कांग्रेस नेता राहुल गाँधी की न्याय यात्रा कल मुंबई में समाप्त हो गई। इस अवसर पर आयोजित रैली में इंडिया गठजोड़ के अनेक नेताओं ने मंच साझा किया। जिनमें शरद पवार, उद्धव ठाकरे, स्टालिन , तेजस्वी यादव, फारुख अब्दुल्ला , महबूबा मुफ्ती, चंपाई सोरेन प्रमुख रहे। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और प्रियंका वाड्रा की मौजूदगी तो रहना ही थी। इस रैली में समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव, तृणमूल प्रमुख ममता बैनर्जी और आम आदमी पार्टी संयोजक अरविंद केजरीवाल ने अपने किसी अन्य नेता को भेज दिया। रैली में काफी बड़ी संख्या में श्रोता उपस्थित थे जिसका श्रेय मुख्य रूप से उद्धव ठाकरे की पार्टी को जाता है। इंडिया बनने के बाद उसकी एक भी रैली अब तक नहीं होना राजनीतिक विश्लेषकों में चर्चा का विषय रहा है। हाल ही में तेजस्वी यादव द्वारा बिहार में आयोजित रैली में भी गठबंधन के काफी नेता मौजूद थे। लेकिन वह राजद और कल की रैली कांग्रेस द्वारा आयोजित थी। शायद इसीलिए ममता और श्री केजरीवाल इन रैलियों से दूर रहे। मंचासीन नेताओं ने अपनी – अपनी तरह से भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमला किया किंतु मुख्य आकर्षण का केंद्र थे श्री गाँधी। लोकसभा चुनाव घोषित होने के बाद विपक्ष का यह पहला मैदानी प्रदर्शन था। भले ही उसमें ढेर सारे नेताओं ने भाषण भी दिये किंतु क्षेत्रीय होने के कारण वे राष्ट्रीय स्तर पर प्रभाव नहीं छोड़ पाते। आम आदमी पार्टी कहने को तो राष्ट्रीय पार्टी है किंतु उसका प्रभाव क्षेत्र दिल्ली और पंजाब तक ही है। ऐसे में राहुल पर ही सभी की निगाहें लगी थीं। लेकिन न्याय यात्रा के दौरान लोगों से संवाद करते हुए वे जो कुछ बोलते रहे वही उन्होंने कल दोहरा दिया। नरेंद्र मोदी उनसे डरते हैं क्योंकि उनको पता है कि राहुल गाँधी उनको हरा सकता है, जैसी बातें कहकर उन्होंने जता दिया कि वे गलतियों से सीखने के बजाय उनको दोहराने में विश्वास रखते हैं। राजनीतिक विश्लेषक ये कहते रहे हैं कि न्याय यात्रा यदि कांग्रेस की बजाय इंडिया की होती तब उसे उन राज्यों में भी भरपूर तवज्जो मिलती जिनमें क्षेत्रीय पार्टियां भाजपा का मुकाबला कर रही हैं। ये भी कहा गया कि कांग्रेस , इस यात्रा के बहाने राहुल को प्रधानमंत्री के चेहरे के तौर पेश करना चाह रही है। यही वजह रही कि ममता बैनर्जी यात्रा से पूरी तरह दूर रहीं। वहीं अखिलेश ने आगरा में उपस्थित होकर रस्म अदायगी मात्र कर दी। रैली में होना तो ये चाहिए था कि लोकसभा चुनाव के मद्देनजर गठबंधन की ओर से बड़ी नीतिगत घोषणाएं की जातीं जिनसे उसकी दिशा स्पष्ट होती। लेकिन श्री गांधी के अतिरिक्त भी जिन नेताओं ने भाषण दिया वे सब मोदी विरोध का राग अलापते रहे। कांग्रेस और गठबंधन के उसके साथियों को समझना चाहिए कि एनडीए की ओर से श्री मोदी को निर्विवाद रूप से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार स्वीकार कर लिया गया है। वहीं इंडिया की समस्या ये है कि कांग्रेस भले उसका नेतृत्व करती हो किंतु उसके लिये अपनी 50 सीटें बचाना ही मुश्किल हो रहा है। उ.प्र और बिहार में उसे क्रमशः 17 और 8 सीटें सहयोगी दल दे रहे हैं। तमिलनाडु में मात्र 6 सीटें मिलेंगी। केरल में वामपंथियों ने ठेंगा दिखा दिया। यहाँ तक कि वायनाड तक पर उम्मीदवार अड़ा दिया। 2019 में इस राज्य में उसे अच्छी सीटें मिल गई थीं किंतु त्रिपुरा और प. बंगाल से साफ हो जाने के बाद वामपंथी अपने आखिरी किले को बचाने में जुटे हुए हैं जिसकी वजह से कांग्रेस की राह मुश्किल हो गई है। ले – देकर उसके पास तेलंगाना ही उम्मीद की किरण है क्योंकि कर्नाटक में भाजपा उसे ज्यादा कुछ नहीं मिलने देगी। उत्तर और पश्चिमी राज्यों में भी कांग्रेस को इतनी सीटें मिलने की स्थिति नहीं है कि वह केंद्र में सत्ता बनाने की सोच सके। ऐसे में इंडिया के बाकी घटक दल उसका उपयोग तो कर रहे हैं किंतु उसकी सर्वोच्चता को स्वीकार करने राजी नहीं हैं। लालू प्रसाद यादव को छोड़कर अन्य किसी ने भी श्री गाँधी को प्रधानमंत्री का चेहरा नहीं बताया। मुंबई रैली एक अवसर था किंतु राहुल द्वारा खुद को महिमामंडित किये जाने के बाद भी गठबंधन इस बारे में अनिश्चितता का शिकार नजर आया। कांग्रेस और उसके साथियों को ये समझना चाहिए कि भाजपा 2004 वाले अति आत्मविश्वास से बचते हुए चल रही है। ये भी सर्वविदित है कि उसने चुनाव को पार्टी से ऊपर व्यक्ति केंद्रित कर दिया है और प्रधानमंत्री की छवि और व्यक्तित्व उस दृष्टि से सब पर भारी है।
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