संपादकीय – रवीन्द्र वाजपेयी
एक तरफ तो अनेक विश्वस्तरीय संगठन भारत की आर्थिक प्रगति की प्रशंसा करते हैं। विश्व की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के बाद जल्द ही उसके तीसरे स्थान पर पहुंचने की संभावना है। भारत के प्रति विदेशी निवेशकों का आकर्षण बढ़ा है। विदेशी मुद्रा भंडार रिकॉर्ड स्तर से भी ऊपर है। शेयर बाजार नई ऊंचाइयां छूने लगा है। चीन से निकलीं अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारत का रुख किया है। मोबाइल फोन उत्पादन के पश्चात भारत अब ऑटोमोबाइल उद्योग में भी विश्वस्तरीय हो रहा है। सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में तो दबदबा पहले से ही था किंतु अंतरिक्ष और सैन्य उपकरणों के मामले में भी भारत ने ऊंची छलांग लगाई है। बावजूद इसके अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा बढ़ते हुए कर्ज पर दी गई चेतावनी चर्चा का विषय है। तमाम विशेषज्ञों ने उसके पक्ष – विपक्ष में अपने विचार रखे हैं। केंद्र सरकार ने स्पष्टीकरण दिया कि हालात नियंत्रण में हैं क्योंकि कुल कर्ज में विदेशी हिस्सेदारी बहुत कम है । बड़ा हिस्सा भारतीय स्रोतों से लिए जाने से परेशानी नहीं होगी। आंकड़ों के अनुसार देश के हर नागरिक पर 1.50 लाख रु. का कर्ज है। उल्लेखनीय है डा.मनमोहन सिंह की सरकार ने जो कर्ज लिया वह पहले से तीन गुना अधिक था। नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में उसमें तीन गुनी वृद्धि और हो जाने से वह भारी – भरकम नजर आने लगा। मुद्रा कोष को चिंता है कि भारत इसी गति से कर्ज लेता रहा तो श्रीलंका सरीखे हालात पैदा हो सकते हैं। दरअसल 1991 में पी.वी. नरसिम्हा राव की सरकार के वित्तमंत्री रहते हुए डा. सिंह द्वारा आर्थिक सुधारों की जो शुरुआत की उसने पूंजी को महत्वपूर्ण बना दिया । जिस शेयर बाजार पर पैसे वालों का एकाधिकार था उसमें मध्यम वर्ग का प्रवेश होने लगा । बैंकों में जमा राशि पर ब्याज घटने से घरेलू बचत का रुख पूंजी बाजार की तरफ हो गया। उदारीकरण ने उधारीकरण को भी बढ़ावा दिया जिससे न सिर्फ सरकार अपितु आम उपभोक्ता में भी कर्ज लेकर जरूरतें पूरी करने की प्रवृत्ति जागी। परिणामस्वरूप चारों तरफ विकास के नाम पर समृद्धि नजर आने लगी। जिस साधारण नौकर पेशा की पहिचान साइकिल थी ,वह कर्ज के बल पर स्कूटर और मोटर सायकिल से बढ़ते हुए छोटी कार तक आ पहुंचा। 20 साल पहले तक जितने युवाओं के पास सायकिल थी उससे ज्यादा के पास आज मोटर सायकिल है। दुनिया के सर्वाधिक मोबाइल फोन उपभोक्ता इस देश में हैं। झुग्गियों में भी टीवी की मौजूदगी है। इसके अलावा देश में विश्वस्तरीय राजमार्गों का निर्माण हो सका। पुल , फ्लायओवर , नई रेल लाइनें, हवाई सेवा का विस्तार , विशाल हवाई अड्डे , बंदरगाह , पांच सितारा होटल , पर्यटन केंद्रों पर बढ़ती भीड़ , विदेश यात्रा का बढ़ता चलन , उच्च शिक्षा हेतु विदेश जाने वालों की बढ़ती संख्या कर्ज की सहज उपलब्धता के कारण ही संभव हो सकी। साथ ही अनेक ऐसे कार्य किए गए जो आय का साधन बनते जा रहे हैं। सच तो यह है कि कर्ज चाहे घरेलू हो या विदेशी , यदि उसका उपयोग अनुत्पादक कार्यों में होता है तब वह समस्या बनता है किंतु अधोसंरचना जैसे प्रकल्पों में उसे इस्तेमाल करें तो कालांतर में वह समृद्धि का आधार बनता है। मसलन राजमार्गों के उन्नयन में लगाया गया धन टोल टैक्स के जरिए तो लौटता ही है उसकी वजह से परिवहन और ऑटोमोबाइल उद्योग भी तेज गति से आगे बढ़ा है। आधुनिक स्टेडियम बनाने से विश्वस्तरीय आयोजन संभव होते हैं जिनसे खेल और खिलाड़ियों के विकास के साथ ही मोटी कमाई होती है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हाल ही में संपन्न क्रिकेट विश्व कप है जिससे बीसीसीआई को करोड़ों की आय हुई और आज वह दुनिया का सबसे धनवान खेल संगठन है। आईपीएल का सफल आयोजन भी अच्छे स्टेडियम होने के कारण ही संभव हो सका जिसने इंग्लिश काउंटी जैसे क्लब क्रिकेट की चमक फीकी कर दी। लेकिन चिंता का विषय केंद्र और राज्यों की वे योजनाएं हैं जिनके जरिए लोगों को विभिन्न नामों से नगद राशि , मुफ्त अनाज और घर , सायकिल , स्कूटी, टीवी , सस्ती और मुफ्त बिजली तथा रसोई गैस आदि मिलती हैं । इनके जरिए राजनीतिक दल चुनाव तो जीत जाते हैं लेकिन इनका बोझ करदाताओं पर पड़ता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है पेट्रोल और डीजल पर लगाया जाने वाला भारी – भरकम कर। जीएसटी लागू होने पर इसे एक देश , एक कर का नाम दिया गया परंतु राज्यों की जिद में उक्त दोनों को जीएसटी में शामिल नहीं किया जाता ताकि उनकी आय न घटे । लेकिन वही सरकारें वोट बैंक को लुभाने के लिए दोनों हाथों से लुटाती हैं तब उनको घाटे की फिक्र नहीं रहती। हो सकता है हालिया विधानसभा चुनावों में मुफ्त खैरातों की बाढ़ के कारण मुद्रा कोष को चिंता हुई हो क्योंकि ये चलन बढ़ता ही जा रहा है। म.प्र के नए मुख्यमंत्री डा. मोहन यादव ने सत्ता संभालते ही नौकरशाहों को बुलाकर आय बढ़ाने के रास्ते खोजने कहा किंतु वे तो निहायत ही सीमित हैं। ऐसे में सरकारों को अनुत्पादक खर्च रोकने पर ध्यान देना चाहिए। प्रधानमंत्री स्वयं भी मुफ्तखोरी के विरुद्ध चेतावनी दे चुके हैं किंतु उनकी अपनी सरकार और भाजपा शासित राज्य सरकारें भी सबक नहीं ले रहीं , जो समझ से परे है। समय आ गया है जब चुनाव जीतने हेतु की जाने वाली मुफ्त योजनाओं की प्रतिस्पर्धा रोकी जाए। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का अपना नजरिया हो सकता है किंतु उसकी चेतावनी में छिपे खतरे को नजरंदाज नहीं किया जाना चाहिए।