1993 में मुंबई सहित कुछ और शहरों में हुए बम विस्फोटों का कर्ताधर्ता अब्दुल करीम उर्फ टुंडा गत दिवस अजमेर की टाडा अदालत से बरी कर दिया गया क्योंकि सीबीआई उसके विरुद्ध आरोप पत्र प्रस्तुत नहीं कर सकी। वह दाऊद इब्राहीम के करीबियों में शुमार था। उसे बेकसूर मान लेना तो उचित नहीं होगा किंतु अदालत में किसी को अपराधी साबित करने के लिए प्रमाण सहित आरोप पत्र प्रस्तुत करना पड़ता है। टुंडा जिस घटना के लिए पकड़ा गया उसे 30 वर्ष से भी अधिक बीत चुके हैं। लेकिन सिर्फ इसलिए कि जांच एजेंसी उसके विरुद्ध आरोप पत्र पेश नहीं कर सकी , वह बरी हो जाए तो फिर समूची अभियोजन प्रक्रिया पर सवाल उठ खड़े होते हैं। सीबीआई देश की प्रमुख जांच एजेंसी है। किसी भी बड़ी वारदात की जांच उससे करवाने की मांग उठती है। उसके द्वारा अनेक गंभीर मामलों के अपराधियों को दंडित करवाया जा चुका है। अनेक राजनीतिक नेता भी सीबीआई जांच के बाद जेल जाने मजबूर हुए। भ्रष्टाचार के सैकड़ों मामलों के पर्दाफाश में उसने सराहनीय भूमिका का निर्वहन किया। लेकिन अनेक चर्चित अपराधिक मामलों में वह दोषियों को दंड दिलवाने में विफल रही। टुंडा का बरी हो जाना निश्चित रूप से चिंता का विषय है क्योंकि मुंबई में हुए विस्फोट साधारण अपराध नहीं थे। देश की आर्थिक राजधानी में आतंक उत्पन्न करने के उस प्रयास में पड़ोसी शत्रु राष्ट्र की भूमिका भी सामने आ चुकी है। कुख्यात माफिया सरदार दाऊद इब्राहीम उसके बाद पाकिस्तान भाग गया था । लेकिन देश विरोधी गंभीर वारदातों के जो आरोपी पकड़ में आ गए उन सबको दंडित करने में भी जब लंबा समय लगाया जाता है तो अन्य अपराधियों का हौसला बुलंद होता है। टुंडा का मामला अकेला नहीं है जिसमें सीबीआई द्वारा आरोप पत्र दाखिल नहीं किए जाने के कारण अपराधी बरी हो गए हों। अन्य जांच एजेंसियां भी इसी तरह की उदासीनता के लिए जिम्मेदार हैं। गत दिवस चार वर्ष पूर्व दिल्ली में हुए दंगों की एक महिला आरोपी ने उसके विरुद्ध आरोप पत्र पेश न किए जाने की शिकायत की। यही तोहमत ईडी पर भी लगती है कि वह छापेमारी और गिरफ्तारी करने के बाद आरोप पत्र दाखिल करने में जो विलम्ब करती है उससे उसकी दुर्भावना जाहिर होने के साथ ही उसके शिकंजे में आए व्यक्ति के प्रति सहानुभूति उत्पन्न होने लगती है। हमारे देश में सिविल सोसायटी के नाम पर कुछ लोगों का समूह है जो किसी आतंकवादी की फांसी रुकवाने के लिए देर रात सर्वोच्च न्यायालय खुलवाने की हद तक चला जाता है। टुंडा जैसों के बरी हो जाने के बाद इस तबके को जांच एजेंसियों को कठघरे में खड़ा करने का अवसर मिल जाता है। कई बार ऐसा लगता है कि सीबीआई और ईडी जैसी एजेंसियों के पास काम का बोझ जरूरत से ज्यादा है। गत दिवस खबर आई कि सीबीआई द्वारा सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव को उनके मुख्यमंत्रित्वकाल में हुए किसी भ्रष्टाचार के सिलसिले में पूछताछ हेतु बुलाया गया है । उन्हें सत्ता से हटे हुए सात वर्ष बीत चुके हैं। उ.प्र की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के विरुद्ध भी सीबीआई जांच एक बार बंद किए जाने के बाद सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के उपरांत दोबारा शुरू की गई थी। इसीलिए ये आरोप केंद्र सरकार पर लगते हैं कि वह सीबीआई और ईडी का उपयोग अपने स्वार्थ साधने के लिए करती है। नेशनल हेराल्ड मामले में सोनिया गांधी और राहुल गांधी से घंटों पूछताछ होने के बाद मामला कहां पहुंचा ये कोई नहीं जानता। दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया साल भर से जेल में हैं। उनके विरुद्ध भी विस्तृत आरोप पत्र लंबित हैं। अदालत इस बारे में ईडी से तीखे सवाल भी कर चुकी है। हालांकि प्रभावशाली व्यक्तियों की ओर से जांच एजेंसी द्वारा की जाने वाली पूछताछ में अड़ंगे लगाया जाना भी जांच प्रक्रिया को विलंबित करने का कारण बनता है। झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन लंबे समय तक ईडी के समन को ठुकराते रहे और अंततः गिरफ्तार हुए। दिल्ली के मुख्यमंत्री भी ईडी के बुलावे को अनेक महीनों से नजरंदाज करते आ रहे हैं । इस तरह की रस्साखींच में आरोपी अपने बचाव के रास्ते तलाश लेता है। जांच एजेंसी के कार्यालय में पूछताछ होने के दौरान नेताओं के समर्थक बाहर धरना – प्रदर्शन देने बैठे रहते हैं। ये देखते हुए जरूरी हो गया है कि सीबीआई और ईडी जैसी एजेंसियों की कार्यकुशलता बढ़ाने हेतु उनको पर्याप्त स्टाफ दिया जाए । साथ ही लंबित प्रकरणों के जल्द निबटारे की समुचित व्यवस्था की जावे। अन्यथा इन एजेंसियों पर लगाए जाने वाले प्रश्नचिन्ह और गहरे हो जाएंगे।