क्रॉस वोटिंग : विपक्ष से अपना घर नहीं संभल रहा

क्रॉस वोटिंग : विपक्ष से अपना घर नहीं संभल रहा
क्रॉस वोटिंग : विपक्ष से अपना घर नहीं संभल रहा

 

गत दिवस उ.प्र, हिमाचल और कर्नाटक में राज्यसभा चुनाव के जो परिणाम आए उनमें सपा और कांग्रेस को झटका लगा । उ.प्र में सपा के आधा दर्जन विधायकों ने भाजपा के आठवें प्रत्याशी को मत देकर अपने एक प्रत्याशी को हरवा दिया। इसी तरह हिमाचल में कांग्रेस के 6 विधायकों द्वारा भाजपा प्रत्याशी को मत देने से अभिषेक मनु सिंघवी हार गए। यदि तीन निर्दलीय ही साथ देते तो कांग्रेस उम्मीदवार जीत जाता। लेकिन पार्टी का नेतृत्व सिर पर मंडराते खतरे को भांप नहीं सका । उ.प्र में भी सपा विधायकों द्वारा बगावत की आशंका थी । वैसे बगावत कर्नाटक में भी हुई जहां भाजपा विधायक ने कांग्रेस प्रत्याशी को मत देकर सबको चौंका दिया। लेकिन उ.प्र में सपा और हिमाचल में कांग्रेस का प्रत्याशी चूंकि हार गया इसलिए भाजपा पर विधायकों को लालच और भय दिखाकर तोड़ने का आरोप लगाया जा रहा है। राजनीतिक विश्लेषक इसमें सपा और कांग्रेस के नेतृत्व की विफलता देख रहे हैं जिसने सामने खड़े खतरे को नजरंदाज किया। उ.प्र में जया बच्चन को उम्मीदवार बनाए जाते ही सपा में बगावत के सुर उठने लगे थे जिन्हें अखिलेश यादव ने अनसुना कर दिया । इसी तरह हिमाचल में कांग्रेस को बगावत की आशंका थी इसीलिए सोनिया गांधी को राजस्थान से राज्यसभा भेजने का फैसला लिया गया । कुछ मंत्री और विधायक खुलकर मुख्यमंत्री के विरुद्ध थे। राम मंदिर के शुभारंभ पर विक्रमादित्य सिंह नामक मंत्री पार्टी लाइन से अलग हटकर अयोध्या भी गए। आज उन्होंने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया । अनेक विधायक खुलकर मुख्यमंत्री बदलने पर अड़े हुए थे जिसके बाद मुख्यमंत्री सुखविंदर सुक्खू ने भी इस्तीफा दे दिया। जो जानकारी आ रही है उसके मुताबिक शाम तक कांग्रेस नया नेता चुन सकती है। लेकिन बागी विधायक नहीं माने और निर्दलीय भी छिटक गए तो सरकार की स्थिरता संदिग्ध रहेगी। उ.प्र में सपा चूंकि विपक्ष में है इसलिए उसे सरकार गिरने की चिंता तो है नहीं किंतु लोकसभा चुनाव के ठीक पहले पार्टी के विधायकों की बगावत अखिलेश के लिए चेतावनी है। निश्चित रूप से भाजपा की रणनीति विपक्षी दलों में सेंध लगाने की है । सत्ता में होने के कारण उसका प्रभाव और दबाव दोनों बढ़े हैं। लेकिन विपक्ष को अपनी कमजोरी भी देखनी होगी। हिमाचल में कांग्रेस की अंतर्कलह का लाभ ही भाजपा ने उठाया । उसी तरह कर्नाटक में कांग्रेस के पास भारी बहुमत होने के बाद भी उसने एक भाजपा विधायक को तोड़ने में संकोच नहीं किया। हिमाचल में मुख्यमंत्री द्वारा त्यागपत्र दिए जाने से स्पष्ट हो गया कि कल बगावत न हुई होती तब भी उनके विरुद्ध ज्वालामुखी फूटने के कगार पर था। स्मरणीय है श्री सुक्खू कांग्रेस महासचिव प्रियंका वाड्रा की पसंद थे जिन्हें पूर्व मुख्यमंत्री स्व.वीरभद्र सिंह का परिवार पसंद नहीं करता । विक्रमादित्य उन्हीं के बेटे हैं और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रतिभा सिंह उनकी माता जी । इस प्रकार श्री सिंघवी न हारते तब भी मुख्यमंत्री की कुर्सी को हिलाने का प्रयास जारी रहता। दरअसल ये कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के लिए चेतावनी है कि उसके द्वारा थोपे गए नेताओं को आंख मूंदकर स्वीकार कर लेने वाला दौर चला गया। वैसे भी पुरानी कहावत है कि जब केंद्रीय सत्ता कमजोर होती है तो सूबे सिर उठाने लगते हैं। गांधी परिवार राज्यों में अपनी मर्जी के नेताओं को लादने की जो गलती कर रहा है उसी के कारण अनेक राज्य उसके हाथ से खिसक गए। म.प्र में झटका खाने के बाद भी उसने राजस्थान और छत्तीसगढ़ में पनपे असंतोष का समय रहते इलाज नहीं किया जिसका नतीजा सामने है। सपा में भी अखिलेश खुद को सर्वेसर्वा मानकर नेताओं और कार्यकर्ताओं के साथ ही गठबंधन के साथियों से दूरी बनाए रहते हैं। यही कारण है कि ओमप्रकाश राजभर और स्वामीप्रसाद मौर्य के बाद जयंत चौधरी ने उनसे रिश्ता तोड़ लिया । रही – सही कसर पूरी कर दी राज्यसभा चुनाव में हुई क्रॉस वोटिंग ने। इस प्रकार ये स्पष्ट हो रहा है कि कांग्रेस और सपा जैसी पाटियों के शीर्ष नेतृत्व का निचले स्तर तक संवाद टूट चुका है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक खबर आ गई कि असम में कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष ने भी पार्टी छोड़ दी। प. बंगाल से भी ऐसी ही जानकारी आई है। बेहतर है भाजपा को कोसने के बजाय कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी पार्टियां अपने अंदरूनी हालात सुधारें। केवल आपस में गठबंधन कर लेने से उनका बेड़ा पार नहीं होने वाला। भाजपा की रणनीति बेशक विपक्ष का मनोबल तोड़ने की है। इसके लिए वह कोई अवसर नहीं छोड़ना चाहती परंतु जहां भाजपा कमजोर है वहां विपक्ष को भी सफलता मिली । कर्नाटक और तेलंगाना इसके उदाहरण हैं । ऐसे में विपक्षी दलों को चाहिए वे अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं का हौसला बढ़ाते हुए उन्हें पार्टी में बने रहने प्रेरित करें । यदि वे इस काम में असफल रहते हैं तब फिर किसी और को दोष देना कहां तक उचित है ?

क्रॉस वोटिंग : विपक्ष से अपना घर नहीं संभल रहा

 

गत दिवस उ.प्र, हिमाचल और कर्नाटक में राज्यसभा चुनाव के जो परिणाम आए उनमें सपा और कांग्रेस को झटका लगा । उ.प्र में सपा के आधा दर्जन विधायकों ने भाजपा के आठवें प्रत्याशी को मत देकर अपने एक प्रत्याशी को हरवा दिया। इसी तरह हिमाचल में कांग्रेस के 6 विधायकों द्वारा भाजपा प्रत्याशी को मत देने से अभिषेक मनु सिंघवी हार गए। यदि तीन निर्दलीय ही साथ देते तो कांग्रेस उम्मीदवार जीत जाता। लेकिन पार्टी का नेतृत्व सिर पर मंडराते खतरे को भांप नहीं सका । उ.प्र में भी सपा विधायकों द्वारा बगावत की आशंका थी । वैसे बगावत कर्नाटक में भी हुई जहां भाजपा विधायक ने कांग्रेस प्रत्याशी को मत देकर सबको चौंका दिया। लेकिन उ.प्र में सपा और हिमाचल में कांग्रेस का प्रत्याशी चूंकि हार गया इसलिए भाजपा पर विधायकों को लालच और भय दिखाकर तोड़ने का आरोप लगाया जा रहा है। राजनीतिक विश्लेषक इसमें सपा और कांग्रेस के नेतृत्व की विफलता देख रहे हैं जिसने सामने खड़े खतरे को नजरंदाज किया। उ.प्र में जया बच्चन को उम्मीदवार बनाए जाते ही सपा में बगावत के सुर उठने लगे थे जिन्हें अखिलेश यादव ने अनसुना कर दिया । इसी तरह हिमाचल में कांग्रेस को बगावत की आशंका थी इसीलिए सोनिया गांधी को राजस्थान से राज्यसभा भेजने का फैसला लिया गया । कुछ मंत्री और विधायक खुलकर मुख्यमंत्री के विरुद्ध थे। राम मंदिर के शुभारंभ पर विक्रमादित्य सिंह नामक मंत्री पार्टी लाइन से अलग हटकर अयोध्या भी गए। आज उन्होंने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया । अनेक विधायक खुलकर मुख्यमंत्री बदलने पर अड़े हुए थे जिसके बाद मुख्यमंत्री सुखविंदर सुक्खू ने भी इस्तीफा दे दिया। जो जानकारी आ रही है उसके मुताबिक शाम तक कांग्रेस नया नेता चुन सकती है। लेकिन बागी विधायक नहीं माने और निर्दलीय भी छिटक गए तो सरकार की स्थिरता संदिग्ध रहेगी। उ.प्र में सपा चूंकि विपक्ष में है इसलिए उसे सरकार गिरने की चिंता तो है नहीं किंतु लोकसभा चुनाव के ठीक पहले पार्टी के विधायकों की बगावत अखिलेश के लिए चेतावनी है। निश्चित रूप से भाजपा की रणनीति विपक्षी दलों में सेंध लगाने की है । सत्ता में होने के कारण उसका प्रभाव और दबाव दोनों बढ़े हैं। लेकिन विपक्ष को अपनी कमजोरी भी देखनी होगी। हिमाचल में कांग्रेस की अंतर्कलह का लाभ ही भाजपा ने उठाया । उसी तरह कर्नाटक में कांग्रेस के पास भारी बहुमत होने के बाद भी उसने एक भाजपा विधायक को तोड़ने में संकोच नहीं किया। हिमाचल में मुख्यमंत्री द्वारा त्यागपत्र दिए जाने से स्पष्ट हो गया कि कल बगावत न हुई होती तब भी उनके विरुद्ध ज्वालामुखी फूटने के कगार पर था। स्मरणीय है श्री सुक्खू कांग्रेस महासचिव प्रियंका वाड्रा की पसंद थे जिन्हें पूर्व मुख्यमंत्री स्व.वीरभद्र सिंह का परिवार पसंद नहीं करता । विक्रमादित्य उन्हीं के बेटे हैं और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रतिभा सिंह उनकी माता जी । इस प्रकार श्री सिंघवी न हारते तब भी मुख्यमंत्री की कुर्सी को हिलाने का प्रयास जारी रहता। दरअसल ये कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के लिए चेतावनी है कि उसके द्वारा थोपे गए नेताओं को आंख मूंदकर स्वीकार कर लेने वाला दौर चला गया। वैसे भी पुरानी कहावत है कि जब केंद्रीय सत्ता कमजोर होती है तो सूबे सिर उठाने लगते हैं। गांधी परिवार राज्यों में अपनी मर्जी के नेताओं को लादने की जो गलती कर रहा है उसी के कारण अनेक राज्य उसके हाथ से खिसक गए। म.प्र में झटका खाने के बाद भी उसने राजस्थान और छत्तीसगढ़ में पनपे असंतोष का समय रहते इलाज नहीं किया जिसका नतीजा सामने है। सपा में भी अखिलेश खुद को सर्वेसर्वा मानकर नेताओं और कार्यकर्ताओं के साथ ही गठबंधन के साथियों से दूरी बनाए रहते हैं। यही कारण है कि ओमप्रकाश राजभर और स्वामीप्रसाद मौर्य के बाद जयंत चौधरी ने उनसे रिश्ता तोड़ लिया । रही – सही कसर पूरी कर दी राज्यसभा चुनाव में हुई क्रॉस वोटिंग ने। इस प्रकार ये स्पष्ट हो रहा है कि कांग्रेस और सपा जैसी पाटियों के शीर्ष नेतृत्व का निचले स्तर तक संवाद टूट चुका है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक खबर आ गई कि असम में कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष ने भी पार्टी छोड़ दी। प. बंगाल से भी ऐसी ही जानकारी आई है। बेहतर है भाजपा को कोसने के बजाय कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी पार्टियां अपने अंदरूनी हालात सुधारें। केवल आपस में गठबंधन कर लेने से उनका बेड़ा पार नहीं होने वाला। भाजपा की रणनीति बेशक विपक्ष का मनोबल तोड़ने की है। इसके लिए वह कोई अवसर नहीं छोड़ना चाहती परंतु जहां भाजपा कमजोर है वहां विपक्ष को भी सफलता मिली । कर्नाटक और तेलंगाना इसके उदाहरण हैं । ऐसे में विपक्षी दलों को चाहिए वे अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं का हौसला बढ़ाते हुए उन्हें पार्टी में बने रहने प्रेरित करें । यदि वे इस काम में असफल रहते हैं तब फिर किसी और को दोष देना कहां तक उचित है ?