बीते कुछ दिनों से चीन की अर्थव्यवस्था के हिचकोले लेने की खबरें आ रही है। मंहगाई और बेरोजगारी बढ़ने के साथ ही निर्यात में भी कमी आने की खबर है। विदेशी पूंजी वियतनाम , सिंगापुर , थाईलैंड और भारत जैसे देशों में स्थानांतरित हो रही है। कोरोना संकट के दौरान विश्व भर में चीन की जो नकारात्मक छवि बनी यह उसका ही प्रभाव है। भारत के बाजार भी चीनी सामान के दबाव से उबर रहे हैं । दवा उद्योग में हुए शोध और अनुसंधान का सुपरिणाम कच्चे माल का आयात घटने के रूप में सामने आया है। लगभग बंद हो चुका घरेलू खिलौना उद्योग भी दोबारा उठ खड़ा हुआ है। उत्पादन के क्षेत्र में भी भारतीय औद्योगिक इकाइयां बेहतर प्रदर्शन करने लगी हैं। जिसके कारण रोजगार के अवसर बढ़ने के साथ ही आयात में कमी आई है। जीएसटी संग्रह में निरंतर वृद्धि भी आर्थिक स्थिति मजबूत होने का संकेत है। वहीं ऑटोमोबाइल और जमीन – जायजाद के व्यवसाय में उछाल से भी अर्थव्यस्था में सुधार हुआ है । ऐसे में वैश्विक स्तर की संस्थाओं द्वारा भारत की विकास दर के बारे में आशाजनक तस्वीर पेश की जा रही हो तब संदेह की गुंजाइश ही नहीं रह जाती। इस बारे में दो बातें उल्लेखनीय हैं। पहली तो कोरोना महामारी के दौरान भारत में आर्थिक , सामाजिक और चिकित्सा क्षेत्र में किया गया बेहतर प्रबंधन और दूसरा यूक्रेन संकट से उत्पन्न वैश्विक परिस्थिति में विदेश और आर्थिक नीतियों में बेहतरीन सामंजस्य। ये बात पूरी दुनिया स्वीकार कर चुकी है कि कोविड काल में भारत जैसे विशाल देश में जरूरी चीजों की आपूर्ति निर्बाध जारी रहने से अराजकता नहीं हुई । लॉक डाउन के दौरान मालवाहक वाहनों को लूटने की एक भी वारदात न होना इसका प्रमाण है । टीकाकरण अभियान तो पूरी दुनिया के लिए मिसाल बन गया। लेकिन कोरोना के जाते ही दुनिया एक नए संकट में फंस गई जब रूस ने यूक्रेन पर हमला कर दिया। पहले – लगा था कि यह लड़ाई जल्दी खत्म हो जायेगी क्योंकि रूस जैसी महाशक्ति के सामने यूक्रेन ज्यादा नहीं टिक पाएगा । लेकिन देखते – देखते दो देशों की लड़ाई ने शीतयुद्ध को पुनर्जीवित कर दिया। अमेरिका और उसके समर्थक देशों ने रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने के अलावा यूक्रेन को अस्त्र – शस्त्र के साथ ही आर्थिक सहायता देना शुरू कर दिया। इसकी वजह से लड़ाई डेढ़ साल से चली आ रही है। परिणामस्वरूप दुनिया भर में कच्चे तेल , गैस और खाद्यान्न का संकट पैदा हो गया। कोविड रूपी विपदा का असर पूरी तरह खत्म हो पाता उसके पहले ही आ टपकी इस मुसीबत ने तमाम देशों की अर्थव्यवस्था के लिए दूबरे में दो आषाढ़ वाली स्थिति पैदा कर दी। समूचा यूरोप गैस संकट में फंस गया। रूस और यूक्रेन बड़े खाद्यान्न उत्पादक रहे हैं। ऐसे में इस युद्ध से दुनिया के बड़े हिस्से में अन्न की कमी हो गई। यूक्रेन तो सूरजमुखी का भी सबसे बड़ा निर्यातक है जिसका उपयोग खाद्य तेल बनाने में किया जाता है। रूसी हमलों ने वहां जिस पैमाने पर तबाही मचाई उससे भारत भी अप्रभावित कैसे रह सकता था ? खाद्यान्न तो नहीं किंतु कच्चे तेल का काफी आयात चूंकि रूस से होता रहा इसलिए युद्ध शुरू होते ही चिंता बढ़ने लगी । लेकिन भारत ने अमेरिका के दबाव को नजरंदाज करते हुए तटस्थता की नीति अपनाते हुए रूस के साथ सस्ती दरों पर कच्चे तेल की खरीदी का जो अनुबंध किया उसने अर्थव्यवस्था को लड़खड़ाने से बचा लिया । अन्यथा हालात बेकाबू हो सकते थे। इसी का असर है कि गाड़ी सुचारू रूप से चलती रही । इस दौरान भारत को खाद्यान्न के अलावा अन्य जरूरी वस्तुओं का निर्यात करने का अवसर मिलने से घरेलू उद्योगों को संजीवनी मिल गई क्योंकि डालर के दाम भारतीय रुपए के तुलना में काफी ऊंचे हैं। कोरोना काल के दौरान भारत में ऑटोमोबाइल और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में लगने वाले सेमी कंडक्टरों की कमी से बड़ी परेशानी हुई। उससे सबक लेकर सरकार ने इनका उत्पादन भारत में ही करने की दिशा में जो पहल की उससे भी अर्थव्यवस्था का विश्वास बढ़ा है। रक्षा उपकरणों की खरीद के साथ उनका निर्यात भारत के बढ़ते कदमों का प्रमाण है। स्थितियां जिस तरह अनुकूल हो रही हैं उनसे एक सुनहरे भविष्य की कल्पना साकार होने की संभावना बढ़ रही है किंतु अभी भी ब्याज दर , टैक्स ढांचा , जीएसटी की विभिन्न दरें और सबसे बड़ा नेताओं और नौकरशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार आर्थिक क्षेत्र में गति अवरोधक बने हुए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यदि उक्त बुराइयां दूर कर सकें तो अर्थव्यवस्था में अकल्पनीय उछाल आ सकती है। साथ ही केंद्र स्तर पर इस तरह की पहल होना चाहिए जिससे कि मुफ्तखोरी को बढ़ावा देने पर लगाम लगे। जिस युवा शक्ति को श्री मोदी भारत का भविष्य निर्माता मानते हैं उसकी क्षमता का समुचित उपयोग उत्पादकता बढ़ाने में किया जाना समय की मांग है। जहां तक बात चीन की हालत बिगड़ने की है तो उसका कारण वह खुद है क्योंकि उसने अपनी अर्थव्यस्था को तो दुनिया के लिए खोल दिया किंतु राजनीतिक व्यवस्था अभी भी साम्यवादी बेड़ियों में जकड़ी है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के चीन से मोहभंग का कारण पारदर्शिता का अभाव ही है। यदि भारत पूरी तरह से पेशेवर होकर अपने मानव संसाधन को काम पर लगा दे तो अमृत काल अपने नाम को सार्थक साबित कर देगा।