गत दिवस एक किसान और एक पुलिसकर्मी की मौत होने के बाद किसान आंदोलन के नेताओं ने दिल्ली कूच दो दिन टाल दिया। दरअसल आंदोलन के एक बड़े नेता तबियत खराब होने से अस्पताल में भर्ती हो गए। इस कारण भी आंदोलन को विराम दिया गया। लेकिन दो बातें ऐसी हुईं जो सवाल खड़े करती हैं। पहली तो ये कि आंदोलनकारियों और पुलिस के बीच चल रहे संघर्ष के बीच किसानों की तरफ से सफेद झंडा लहराया गया जो युद्धविराम का संकेत होता है। पुलिस ने भी सफेद झंडे से जवाब दिया। और दूसरी बात ये हुई कि किसानों ने पराली जलाने के साथ ही उसमें मिर्च डाल दी जिससे पुलिस कर्मियों के साथ ही आसपास के लोगों को बेहद परेशानी का सामना करना पड़ा । हालांकि केंद्र सरकार और किसान नेताओं के बीच वार्ता भी जारी है किंतु अभी तक समझौता नहीं हो सका। सरकार जो प्रस्ताव देती है उसे किसान नेता किसी न किसी बहाने से ठुकरा देते हैं। कृषक वर्ग के प्रति हर किसी की सहानुभूति होने के बावजूद इस आंदोलन के प्रति ये अवधारणा व्याप्त है कि ये पंजाब के बड़े किसानों द्वारा प्रायोजित है ।जेसीबी और पोकलेन जैसी मशीनों का साथ होना स्पष्ट करता है कि आंदोलन के पीछे कुछ ऐसी शक्तियां छिपी हैं जिनका उद्देश्य शांति – व्यवस्था को खतरे में डालकर अपना स्वार्थ सिद्ध करना है। यही वजह है कि पंजाब से ही आंदोलन के विरुद्ध आवाजें उठने लगी हैं। जिस अकाली दल ने कृषि कानूनों के विरोध में मोदी सरकार से नाता तोड़ लिया वह भी खुलकर कह रहा है कि किसान पहले पंजाब सरकार के विरुद्ध आंदोलन करें जिसने उनके साथ किए वायदों पर अमल नहीं किया। जहां तक एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य ) का प्रश्न है तो उससे किसी को एतराज नहीं है। लेकिन सभी कृषि उत्पादों के लिए उसका तय किया जाना अव्यवहारिक लगता है। इसी तरह की कुछ और मांगें हैं जिनको सैद्धांतिक सहमति के बावजूद स्वीकार करना मौजूदा स्थितियों में असंभव है । सबसे बड़ी बात ये है कि यह आंदोलन पूरे देश के किसानों की भावनाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करता। पिछली बार दिल्ली में चले लंबे किसान आंदोलन को ज्यादातर राजनीतिक दलों का समर्थन मिलने के बाद भी वह दिल्ली के निकटवर्ती कुछ राज्यों के किसानों तक सीमित होकर रह गया था। ये बात भी देखने मिल रही है कि आंदोलनकारी जिस अंदाज में दिल्ली आना चाहते हैं वह किसी हमले की तैयारी जैसा लगता है। पुलिस द्वारा लगाए गए अवरोधों को तोड़ने के लिए जेसीबी और पोकलेन मशीन जैसे उपकरण साथ लाना उनकी मंशा को स्पष्ट करता है । जिस तरह से पुलिस के साथ उनका मुकाबला हो रहा है। उससे इस संदेह की पुष्टि होती है कि किसानों के कंधे पर रखकर कोई और बंदूक चला रहा है। यदि यह आंदोलन समूची किसान बिरादरी की आवाज होता तो अब तक दूसरे राज्यों से भी किसान दिल्ली आने लगते। और ऐसे समय जब रबी फसल तैयार होने को है और किसान का पूरा ध्यान कटाई के बाद अपनी फसल को सही समय पर बेचने में लगा हो तब उसका अपने खेत से दूर जाकर बैठ जाना चौंकाने वाला है। भारत कृषि प्रधान देश है और किसान को हमारे समाज में सेना के जवानों की तरह ही सम्मान हासिल है। कोई भी सरकार कृषि और कृषक की उपेक्षा नहीं कर सकती । इसीलिए ग्रामीण विकास पर सभी सरकारें भरपूर जोर देती हैं। किसान की आय बढ़े और खेती लाभ का व्यवसाय बने इसमें भी किसी को ऐतराज नहीं होगा। किसान की खुशहाली से ही भारत के उपभोक्ता बाजार में रौनक आती है। सड़क और बिजली पहुंचने के कारण ग्रामीण भारत की तस्वीर काफी हद तक बदल चुकी है। ऐसे में किसान समुदाय में खेती के प्रति लगाव बनाए रखने के लिए आवश्यक है उसका आर्थिक पक्ष सुदृढ़ हो। लेकिन यह एक क्रमिक प्रक्रिया है जो दबाव बनाकर पूरी करवाना संभव नहीं लगता। आंदोलनकारियों को ये समझना होगा कि उनकी सभी बातें स्वीकार करने के बाद भी उनका क्रियान्वयन न हो तो उसका लाभ ही क्या ? और ये भी कि इस तरह के आंदोलन से समाज का एक बड़ा वर्ग नाराज भी है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि ज्यादातर किसान अभी तक बाजारवादी अर्थव्यवस्था के साथ सामंजस्य नहीं बिठा सके। वैसे भी प्रत्येक राज्य के किसानों की समस्याएं अलग – अलग हैं। एमएसपी के बारे में भी ऐसा ही है। बेहतर हो आंदोलन कर रहे किसान इस बात को समझें।लोकसभा चुनाव के कारण उनकी मांगों के प्रति सहानुभूति दिखाना सरकार की मजबूरी है। लेकिन विभिन्न क्षेत्रों से जो प्रतिक्रियाएं मिल रही हैं उनसे लगता है आंदोलन की दशा और दिशा को लेकर लोगों में तरह – तरह की आशंकाएं हैं। पूरा आंदोलन खालिस्तानियों के हाथ में है ये कहना पूर्णतः सही न हो किंतु आंशिक तौर पर तो ऐसा प्रतीत होता ही है। आंदोलन और युद्ध में अंतर नहीं किया गया तो पिछली बार की तरह इस बार भी कुछ हाथ नहीं लगेगा । वैसे भी इस बार आंदोलन को वैसा समर्थन नहीं मिल रहा क्योंकि 26 जनवरी 2021 को लाल किले पर किए गए उत्पात की याद जनमानस में सजीव है।