ऐसा लगता है इंडी नामक विपक्षी गठबंधन जंग में उतरने के पहले ही बिखराव की ओर बढ़ रहा है। राहुल गांधी की न्याय यात्रा भी इसे कमजोर करने का कारण बन रही है। अभी तक के संकेत गठबंधन और कांग्रेस दोनों के लिए अशुभ कहे जायेंगे। यात्रा के प. बंगाल में घुसते ही तृणमूल कांग्रेस नेत्री ममता बैनर्जी ने राज्य की सभी लोकसभा सीटों पर अकेले लड़ने की घोषणा कर दी। वे इस बात से नाराज थीं कि न्याय यात्रा के पूर्व उनके आग्रह के बावजूद भी श्री गांधी ने उनसे फोन पर बात नहीं की। गत दिवस सुश्री बैनर्जी का बयान आ गया कि कांग्रेस लोकसभा की 40 सीटें भी नहीं जीत सकेगी। उन्होंने चुनौती दी कि यदि उसमें हिम्मत है तो वह भाजपा को वाराणसी और प्रयागराज में परास्त करके दिखाए। उन्होंने ये ताना भी मारा कि वह न जाने किस अहंकार में जी रही है। हालांकि वे काफी पहले से ही राहुल और कांग्रेस को अक्षम बता चुकी थीं। विपक्षी मोर्चा बनने के बाद उन्होंने कांग्रेस से साफ कह दिया कि वे उसके लिए वही दो सीटें छोड़ेगी जिन पर 2019 में वह जीती थी। न्याय यात्रा से उनकी खुन्नस इसलिए भी बढ़ी क्योंकि उसमें वामपंथी शामिल हुए। नीतीश कुमार के पाला बदल लेने के बाद ममता ही इंडी की सबसे बड़ी नेता कही जा सकती हैं जिनका प.बंगाल के अलावा एक दो राज्यों में कुछ असर है। जहां तक बात तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन की है तो वे अपने राज्य के अलावा पांडिचेरी तक ही सिमटे हैं। एनसीपी के दिग्गज शरद पवार का करिश्मा भी ढलान पर है। भतीजे अजीत की बगावत के बाद विपक्षी गठबंधन के बजाय उन्हें अपनी बेटी सुप्रिया सुले के राजनीतिक भविष्य की चिंता सताए जा रही है । कहा तो ये भी जा रहा है कि अजीत के भाजपा में जाने की योजना भी चाचा की ही तैयार की हुई थी। देर – सवेर अपनी बेटी के राजनीतिक भविष्य को सुरक्षा चक्र प्रदान करने के लिए वे भी श्री मोदी के मोहपाश में फंस जाएं तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। स्मरणीय है कि आज भले ही नीतीश कुमार को पलटूराम और ऐसे ही न जाने कितने विशेषणों से विभूषित किया जा रहा है परंतु राष्ट्रीय राजनीति में शरद पवार काफी पहले से पाला बदलने और धोखा देने के लिए कुख्यात रहे हैं। मुख्यमंत्री बनने के लिए अपने राजनीतिक गुरु स्व.बसंत दादा पाटिल की पीठ में छुरा भौंकने में भी उन्होंने शर्म नहीं की। 1999 के लोकसभा चुनाव के पूर्व सोनिया गांधी के विदेशी मूल को बहाना बनाकर उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा देकर एनसीपी बना ली। लेकिन कुछ सालों बाद कांग्रेस के करीब आकर डा.मनमोहन सिंह की सरकार में मंत्री भी बन गए। इसीलिए वे पूरी तरह अविश्वसनीय माने जाते हैं। ये सब देखते हुए इंडी की दशा और दिशा दोनों गड़बड़ाती दिख रही हैं । राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार विपक्षी गठबंधन के तमाम घटक जिस प्रकार अपनी ढपली अपना राग लेकर घूम रहे हैं वह उसके भविष्य को लेकर आशंकित कर रहा है। ममता के सभी सीटों पर लड़ने के ऐलान के बाद जब राहुल ने सीटों के बंटवारे को लेकर बातचीत चलने जैसी टिप्पणी करते हुए उनकी नाराजगी दूर करना चाहा तो तृणमूल नेत्री ने कांग्रेस को 40 सीटें मिलने की भविष्यवाणी कर दूध में नींबू निचोड़ दिया। महाराष्ट्र में श्री पवार और उद्धव ठाकरे भी कांग्रेस को बड़ा भाई मानने राजी नहीं हो रहे। आम आदमी पार्टी ने पंजाब के बाद हरियाणा में भी अकेले लड़ने की धौंस दिखा दी। 22 जनवरी को अयोध्या स्थित राम मंदिर में मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा के अवसर पर समूचे देश में जो स्वस्फूर्त वातावरण निर्मित हुआ उसने कांग्रेस को पिछले पैरों पर धकेल दिया । उक्त आयोजन का आमंत्रण मिलने के बावजूद उसमें शामिल नहीं होने के उसके निर्णय को राजनीतिक विश्लेषक बहुत बड़ी गलती मान रहे हैं । यद्यपि श्री पवार और ममता सहित ज्यादातर विपक्षी नेता उस दिन अयोध्या नहीं गए किंतु पूरे देश में कांग्रेस जन जिस उत्साह के साथ राम नाम की माला जपते दिखे उसके बाद ये साफ हो गया कि पार्टी का सामान्य कार्यकर्ता ही नहीं अपितु नेतागण भी राम मंदिर निर्माण के कारण पैदा हुई हिन्दू लहर से भयाक्रांत हैं। आचार्य प्रमोद कृष्णम तो खुले आम पार्टी लाइन के विरुद्ध बोलते जा रहे हैं । और तो और वे प्रधानमंत्री को अपने एक अयोजन का निमंत्रण पत्र देने उनसे भेंट तक कर आए। चौंकाने वाली बात ये है कि विपक्षी गठबंधन में आ रही दरारों को भरने की फुरसत किसी नेता को नहीं है। नीतीश कुमार इसमें सक्षम थे किंतु वे खुद ही भाजपा की गोद में जा बैठे। पवार साहेब से अपना घर ही नहीं संभल रहा। जहां तक बात ममता की है तो उनके साथ किसी की पटरी नहीं बैठती। बच रहते हैं मल्लिकार्जुन खरगे तो अव्वल तो उनको कोई भाव देता नहीं है और वैसे भी उनका पूरा ध्यान न्याय यात्रा पर लगे रहने से वे विपक्षी एकता के लिए कुछ नहीं कर पा रहे। यदि कुछ दिन और ऐसा ही चला तब इस गठबंधन के छिन्न – भिन्न होने की आशंकाएं प्रबल होती चली जाएंगी।