सर्वोच्च न्यायालय ने चंडीगढ़ के महापौर चुनाव में हुई गड़बड़ी पर सख्त रवैया अपनाते हुए जिस तरह आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के संयुक्त उम्मीदवार को निर्वाचित घोषित किया उसकी सर्वत्र प्रशंसा हो रही है । न्यायपालिका की यही निडरता देश में लोकतंत्र की जड़ें मजबूत करने में सहायक है । यद्यपि राजनेताओं को ये अच्छा नहीं लगता और अनेक मर्तबा इस बात को लेकर बहस भी चली कि न्यायाधीश अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर निकलकर कार्यपालिका और विधायिका के दैनंदिन कार्यों में भी हस्तक्षेप करते हैं। हमारे देश में न्यायपालिका की रचनात्मक आलोचना का अधिकार होने के बावजूद सभी उसके फैसलों का सम्मान करते हैं। हालांकि अपवादस्वरूप अनेक मामलों में उसके निर्णयों को संसद ने पलटा भी है किंतु आम तौर पर नापसंद होते हुए भी उनको स्वीकार करने की परंपरा कायम है। संसद द्वारा पारित अनेक कानूनों को सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक करार दिया है। ताजा उदाहरण इलेक्टोरल बॉन्ड का है जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने रोक लगा दी है। लेकिन न्यायपालिका की सक्रियता उसकी इच्छा पर निर्भर करती है , जिसके कारण उसे आलोचना का शिकार होना पड़ता है। कुछ दिनों पहले झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी के विरुद्ध प्रस्तुत याचिका को सुनने से इंकार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने जब उच्च न्यायालय जाने की सलाह दी तो अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने इस पर नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा कि सर्वोच्च न्यायालय तय करे कि कौन से मामले सीधे सुनेगा , कौन से नहीं ? श्री सिब्बल जैसी शिकायत अनेक लोगों को है। अनेक प्रकरणों में लंबी सुनवाई करने के बाद सर्वोच्च न्यायालय निचली अदालत जाने के निर्देश देता है। इसी तरह अनेक प्रकरणों में पूरी बहस के बाद कह देता है कि इस बारे में संसद कानून बनाए अथवा सक्षम व्यक्ति या संस्था व्यवस्था करे। इलेक्टोरल बॉन्ड मामले में भी ये कहा जा रहा है कि सर्वोच्च न्यायालय ने उसके जरिए राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे पर तो रोक लगा दी किंतु लोकसभा चुनाव के कुछ माह पहले नई व्यवस्था क्या हो ये नहीं बताया। संसद का विदाई सत्र हो चुका और सभी पार्टियां चुनाव की तैयारियों में जुट गईं हैं। ऐसे में नया कानून बनाना भी आसान नहीं होगा। दो दिन पहले सर्वोच्च न्यायालय ने प.बंगाल के संदेशखाली कस्बे में महिलाओं के साथ हुई बर्बरता के मामले में याचिकाकर्ता को फटकारते हुए उच्च न्यायालय जाने की समझाइश दी। साथ ही ये टिप्पणी भी कर डाली कि इसमें और मणिपुर में अंतर है। इस फैसले को लेकर भी काफी तीखी टिप्पणियां हो रही हैं। लोग पूछ रहे हैं कि एक शहर के महापौर के चुनाव में हुई धांधली पर सर्वोच्च न्यायालय ने जैसी तत्परता दिखाई वैसी संदेशखाली के मामले में दिखाने पर वह राज़ी क्यों नहीं हुआ ? सोशल मीडिया में इसे लेकर न्यायाधीशों पर जो लिखा जा रहा है वह शोभनीय नहीं है किंतु देश के मुख्य न्यायाधीश डी.वाय.चंद्रचूड़ को इस बारे में पारदर्शी व्यवस्था बनानी चाहिए कि किस तरह के मामले में सबसे ऊंची अदालत सीधे सुनवाई करेगी और किसमें नहीं। विचारणीय बात ये है कि निचली अदालतों में समय की बरबादी से बचने त्वरित न्याय की उम्मीद लिए लोग सर्वोच्च न्यायालय जाते हैं जिसकी कार्यप्रणाली काफी चुस्त है और उसकी बात का प्रभाव भी पड़ता है। ये देखते हुए उसे स्पष्ट कह देना चाहिए कि सीधे आने वाले किसी भी मामले में वह सुनवाई नहीं करेगा। वैसे न्यायिक व्यवस्था के अनुसार होना तो यही चाहिए कि जब तक निचली अदालत का विकल्प है तब तक ऊपरी अदालत प्रकरण की सुनवाई नहीं करेगी। लेकिन कुछ विशेष मामले होते हैं जिनको सीधे उच्च या सर्वोच्च न्यायालय में ले जाना आवश्यक होता है। उस दृष्टि से ये बात अटपटी लगती है कि सर्वोच्च न्यायालय मुख्यमंत्री की गिरफ्तारी का प्रकरण न सुने किंतु महापौर चुनाव में अतिरिक्त तेजी दिखाते हुए फैसला करे। इसी तरह किसी जगह हिंसा होने पर तो वह स्वतः संज्ञान ले किंतु संदेशखाली में महिलाओं के बड़े पैमाने पर हुए उत्पीड़न को सुनवाई योग्य न माने । न्यायपालिका और सरकार ही नहीं बल्कि न्यायाधीशों और अधिवक्ताओं के बीच भी इसीलिए कहा सुनी की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। बेहतर हो श्री चंद्रचूड़ इस दिशा में समुचित कदम उठाएं जिससे न्याय व्यवस्था के प्रति सम्मान न सिर्फ बना रहे बल्कि उसमें और भी वृद्धि हो।