राष्ट्रीय नेता बनने के फेर में राज्य भी गंवा देंगे नीतीश

राष्ट्रीय नेता बनने के फेर में राज्य भी गंवा देंगे नीतीश
राष्ट्रीय नेता बनने के फेर में राज्य भी गंवा देंगे नीतीश

संपादकीय- रवीन्द्र वाजपेयी

बिहार किसी न किसी कारण से चर्चाओं में रहता ही है। उ.प्र के बाद देश को सबसे ज्यादा आई.ए.एस और आई.पी. एस देने वाले इस राज्य में आर्थिक और सामाजिक विषमता चरम पर रही है। इसलिए आजादी के 75 वर्ष बीतने के बावजूद बिहार जातिवाद के शिकंजे से मुक्त नहीं हो सका । जबकि अतीत में जयप्रकाश नारायण और कर्पूरी ठाकुर जैसे धुरंधर समाजवादी नेताओं की कर्मभूमि रहे इस राज्य ने सामाजिक समरसता का बिगुल फूंकने में अग्रणी भूमिका निभाई। महात्मा गांधी ने जिस चंपारण से स्वाधीनता आंदोलन शुरू किया वह यहीं है और 1974 के संपूर्ण क्रांति आंदोलन की चिंगारी भी बिहार से ही भड़की। मगध साम्राज्य के गौरवशाली इतिहास का साक्षी रहे बिहार को नालंदा जैसे शिक्षा केंद्र के कारण विश्वव्यापी ख्याति मिली। बुद्ध और महावीर जैसे युगपुरूषों की यह जन्मभूमि रही। लेकिन धीरे – धीरे बिहार का प्राचीन गौरव क्षीण होता गया और अपने स्वर्णिम अतीत से सर्वथा पृथक यह गरीबी , पिछड़ेपन , जातिवादी संघर्ष , शोषण और पलायन का जीवंत उदाहरण बनकर रह गया। बीमारू राज्यों में पहले क्रम पर बिहार को रखा जाना इसका प्रमाण है। देश के विभिन्न हिस्सों में फैले बिहारी श्रमिक इस राज्य की दयनीय स्थिति का बयान करते हैं। बिहार रातों – रात इस दुर्दशा को प्राप्त हुआ ऐसा नहीं है किंतु आज जो हालात हैं उनके लिए काफी कुछ लालू प्रसाद यादव और उनके परिवार का राज है जिसने इस राज्य को अराजकता का पर्याय बना दिया था। सामाजिक न्याय और धर्म निरपेक्षता का लबादा ओढ़कर लालू ने जिस परिवारवाद और भ्रष्टाचार का उदाहरण पेश किया उसी का परिणाम है कि समाजवादी आंदोलन से जुड़े तमाम साथी उनसे छिटकते गए । उन्हीं में से एक हैं राज्य के वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जो उनके जंगलराज से लड़ने वालों में अग्रणी रहे । जार्ज फर्नांडीज जैसे प्रखर समाजवादी दिग्गज के साथ समता पार्टी का गठन कर वे भाजपा के नेतृत्व वाले एन.डी.ए में शामिल होकर केंद्र में मंत्री और बाद में भाजपा के साथ मिलकर बिहार के मुख्यमंत्री बने। उस दौरान बिहार की छवि में काफी सुधार हुआ । कानून – व्यवस्था पटरी पर लौटी , आर्थिक विकास भी नजर आने लगा जिसकी वजह से बीमारू राज्य का दाग भी कुछ हल्का पड़ने लगा । इस सबके कारण ही नीतीश को सुशासन बाबू जैसा संबोधन प्राप्त हुआ। लेकिन बीते एक दशक में उनका राजनीतिक व्यवहार जिस प्रकार से बदला उसके कारण वे उन्हीं लालू के शिकंजे में उलझ गए जिन्हें उन्होंने जेल भिजवाया था । उनका यह कदम दरअसल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से निजी कुढ़न के कारण उठाया गया था। यद्यपि बीच में वे एक बार फिर श्री मोदी के साथ आकर भाजपा से जुड़े किंतु केंद्रीय मंत्रीमंडल में उनके दल को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिलने की खुन्नस में फिर लालू एंड कंपनी के संग गठजोड़ कर लिया। इस सबसे उनकी निजी छवि खराब हो गई और सुशासन बाबू का खिताब भी हाथ से जाता रहा। हालांकि आज के राजनीतिक माहौल में इस तरह की पैंतरेबाजी चौंकाती नहीं है किंतु प्रधानमंत्री पद का दावेदार होने के बावजूद नीतीश जिस तरह का राजनीतिक व्यवहार करने लगे वह दिशाहीनता का संकेत है। उनके हालिया फैसले इसका प्रमाण हैं। जातीय जनगणना के बाद हिन्दू त्यौहारों के सरकारी अवकाश कम करने और मुस्लिम पर्वों पर बढ़ाने का फैसला ये साबित करने के लिए पर्याप्त है कि उनकी सोच सतही होने लगी है। इस निर्णय के कारण अपने दल के भीतर ही उनको अप्रिय स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। जातीय जनगणना के विवाद से वे उबर पाते उसके पूर्व ही हिन्दू तीज – त्यौहारों की छुट्टियां कम करने जैसा निर्णय उनके गले कि फांस बन गया। अब उनकी पार्टी के नेतागण इस फैसले को बदलने का आश्वासन देकर चमड़ी बचाने का प्रयास कर रहे हैं किंतु जो नुकसान होना था वह हो चुका। भाजपा ने इसे मुद्दा बनाया ये तो स्वाभाविक था किंतु बिहार का आम जनमानस भी नीतीश के बदलते राजनीतिक आचरण से हतप्रभ है। बिहार के बाहर भी जो लोग उनको एक सुलझा हुआ दूरदर्शी राजनेता समझते थे वे भी अपनी राय बदलने मजबूर हो रहे हैं। एक जमाना था जब मुलायम सिंह यादव ने उ.प्र की राजनीति में मुस्लिम तुष्टिकरण का रंग भर दिया था। उसके चलते समाजवादी पार्टी को कुछ फायदा जरूर हुआ किंतु धीरे – धीरे उसके हाथ से हिन्दू छिटके और अब मुसलमानों का भी मोहभंग होने लगा है। नीतीश को इससे सबक लेना चाहिए था क्योंकि भाजपा और मोदी विरोध में वे जिस रास्ते पर बढ़ चले हैं वह उनके राजनीतिक पराभव का कारण बने बिना नहीं रहेगा । पता नहीं उनका सलाहकार कौन है जो उन्हें इस तरह की मूर्खतापूर्ण सलाह देता है। नीतीश राजनीतिक तौर पर भले ही भाजपा का कितना भी विरोध करें लेकिन उन्हें समाज को जाति में विभाजित करने के साथ ही हिन्दू समाज की भावनाओं को आहत करने से बचना चाहिए। ऐसा लगता है वे इंडिया गठबंधन के नेता बनने के लालच में मुस्लिम तुष्टिकरण में लग गए हैं। परिणामस्वरूप राष्ट्रीय नेता बनने के फेर में वे राज्य में भी अपनी पकड़ को बैठें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।