संपादकीय- रवीन्द्र वाजपेयी
चुनाव प्रचार करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर गरीबी को सबसे बड़ी जाति बताया है। कांग्रेस द्वारा जातिगत जनगणना कराए जाने के चुनावी वायदे से होने वाले संभावित नुकसान की काट के तौर पर श्री मोदी गरीबी को सबसे बड़ी जाति बताकर उन वर्गों को साधने की कोशिश में जुटे हुए हैं जो ओबीसी श्रेणी में आने के बावजूद लाभान्वित नहीं हो सके। बिहार में जातिगत जनगणना के बाद उससे जुड़ी विसंगतियां जिस तरह से सामने आने लगी हैं उसका सूक्ष्म अध्ययन करते हुए भाजपा 2024 के लोकसभा चुनाव के पहले कांग्रेस और मंडलवादी अन्य पार्टियों के हाथ से ये हथियार छीनने की फिराक में हैं। सुनने में आ रहा है कि पांच राज्यों के चुनाव परिणाम आने के बाद पार्टी आरक्षण और जातिगत जनगणना के राजनीतिक प्रभाव का आकलन करने के बाद किसी ऐसी नीति का ऐलान करने पर विचार करेगी जिससे आरक्षण का मौजूदा ढांचा बदले बिना ही आर्थिक दृष्टि से कमजोर तबके को सभी प्रकार से संतुष्ट कर दिया जाए। आज के राजनीतिक माहौल में जातिगत आरक्षण को आर्थिक आधार प्रदान करना तो खतरे से खाली नहीं होगा परंतु एक बात अब निष्कर्ष में बदलने लगी है कि जातिगत आरक्षण केवल राजनीतिक नेताओं और उनके परिवारों की मिल्कियत बनकर रह गया है। उनके अलावा नौकरशाहों का एक वर्ग भी उसके फायदों पर कुंडली मारकर बैठा हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस संबंध में अनेक बार टिप्पणी भी की । सामाजिक मंचों पर भी इस बारे में मंथन चल रहा है। लेकिन राजनेता साहस नहीं दिखा पा रहे। कुछ साल पहले बिहार विधानसभा के चुनाव के समय रास्वसंघ प्रमुख डा.मोहन भागवत ने सहज रूप से आरक्षण की समीक्षा किए जाने का सुझाव दिया था। उसकी बेहद तीखी प्रतिक्रिया हुई और भाजपा को काफी नुकसान हो गया। हालांकि बाद में संघ प्रमुख ने इस बात को कई बार दोहराया कि फिलहाल आरक्षण को हटाने की स्थितियां नहीं बनी हैं। तभी से भाजपा भी इस विषय में सतर्क हो गई । और सोशल इन्जीनियरिंग का उपयोग करते हुए पिछड़ी जातियों को अपने साथ जोड़ लिया जिससे दूसरी पार्टियों को तकलीफ है। जातिगत जनगणना का अस्त्र दरअसल इसी के जवाब में निकाला गया। भाजपा की दुविधा ये है कि इसका समर्थन करने पर उसका सवर्ण जनाधार खिसक जाएगा और विरोध करने पर पिछड़ी और दलित जातियां हाथ से निकल जाएंगी। प्रधानमंत्री चूंकि इस बात को समझ गए हैं इसीलिए उन्होंने जातिगत जनगणना के जवाब में गरीबी को सबसे बड़ी जाति बताकर नए विमर्श को जन्म दे दिया। हालांकि अभी तक ये मुख्यधारा की राजनीति का विषय तो नहीं बन सका किंतु जिस तरह वे लगातार इसे दोहरा रहे हैं उससे लगता है कि गरीबी को सबसे बड़ी जाति बनाना किसी बड़े खेल का पूर्वाभ्यास है। गौरतलब है कि श्री मोदी शतरंज के खेल की तरह बहुत आगे की सोचकर चाल चलते हैं। म.प्र में चूंकि कांग्रेस ने जातिगत जनगणना को अपने चुनावी वायदे में शामिल कर लिया है इसलिए उन्होंने भी पलटवार कर दिया है। लेकिन भाजपा के बाकी नेता इस बारे में उतने मुखर नहीं है। सही मायनों में अब समय आ गया है जब आरक्षण के मामले में राजनेताओं को खुलकर अपने विचार व्यक्त करना चाहिए क्योंकि ये मुद्दा अब समाज में जातिगत दरारें चौड़ी करने का कारण बनता जा रहा है। एक समय था जब बिहार और उ.प्र ही जाति की राजनीति का बोलबाला था किंतु वोटों की राजनीति ने अब जाति को भारतीय राजनीति की अनिवार्य बुराई बना दिया है। पहले क्षेत्रीय पार्टियां ही इस बारे में मुखर थीं किंतु जिस तरह से राष्ट्रीय पार्टियां इससे जुड़ती जा रही हैं वह खतरनाक है। भाजपा शुरू में हालांकि सवर्ण जातियों की हितचिंतक मानी जाती थी किंतु धीरे – धीरे उसने भी जाति की राजनीति को अपना हथियार बनाया। हालांकि उसे इसका लाभ भी हुआ किंतु एक राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर उसे साहस के साथ आगे आना होगा। इसके पहले कि स्वार्थी राजनेता देश को जातीय गृहयुद्ध की आग में झोंक दें , इस मुद्दे को सही दिशा देना जरूरी है। गरीबी वाकई एक कलंक है जो हमारी सारी प्रगति पर सवालिया निशान लगा देती है । पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के बाद इस बारे में खुली राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए । समाज में ऊंच – नीच का पैमाना यदि आर्थिक स्थिति बना दी जाए तभी सबके विकास का लक्ष्य पूरा हो सकेगा । अन्यथा चुनाव आते – जाते रहेंगे और जनता नारों और वायदों के भूल – भुलैयों में फंसकर ठगी जाती रहेगी।