संपादकीय- रवीन्द्र वाजपेयी
दलबदल देश की राजनीति के साथ अभिन्न रूप से जुड़ गया है जो चुनाव के समय अपने सबसे घृणित रूप में नजर आने लगता है। म.प्र में विधानसभा चुनाव के लिए भाजपा ने अपने प्रत्याशी काफी पहले घोषित कर दिए थे । जबकि कांग्रेस ने पहली सूची नवरात्रि के पहले दिन जारी की। पार्टी किसे टिकिट दे ये उसका विशेषाधिकार है । निर्णय करने से पहले वह प्रत्याशी के जीतने की क्षमता का आकलन करती है । जातीय संतुलन भी देखा जाता है। पार्टी के प्रति निष्ठा तो खैर आवश्यक होती ही है, किसी नेता से नजदीकी और रिश्तेदारी भी इस मामले में सहायक होती है। टिकिट प्राप्त करने के इच्छुक व्यक्ति पार्टी के प्रति वफादारी का प्रदर्शन करने में आगे – आगे नजर आते हैं। विचारधारा में विश्वास जताने का कोई अवसर भी नहीं छोड़ा जाता। पार्टी द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में बढ़ – चढ़कर योगदान देकर वे अपनी सक्रियता भी दिखाते हैं। लेकिन जैसे ही पता चलता है कि पार्टी ने उनको टिकिट नहीं दी तो उनका नया रूप सामने आने में देर नहीं लगती । म.प्र में बीते कुछ दिनों से भाजपा और कांग्रेस ऐसे ही नेताओं के क्रोध का सामना कर रही हैं जिनका गुस्सा उम्मीदवारों की सूची में नाम नहीं आने से सातवें आसमान पर जा पहुंचा है। हालांकि ऐसे लोग भी कम नहीं हैं जो शांत भाव से पार्टी का काम करते रहते हैं । लेकिन ऐसे लोगों की संख्या निरंतर बढ़ रही है जिनका एकमात्र उद्देश्य चुनावी टिकिट होता है। और उससे वंचित होते ही उनकी वफादारी , वैचारिक प्रतिबद्धता और समर्पण बगावत में तब्दील हो जाता है। देश में केवल वामपंथी पार्टियां ही इस बीमारी के संक्रमण से मुक्त कही जा सकती हैं । हालांकि उनमें भी वैचारिक मतभेदों के आधार पर टूटन होती रही है। सीपीआई और सीपीएम के बाद भी न जाने कितने वामपंथी समूह राजनीति के मैदान में आ चुके हैं । जेएनयू के छात्र नेता रहे कन्हैयाकुमार जरूर अपवाद कहे जाएंगे जो 2019 में सीपीआई टिकिट पर बेगूसराय से लोकसभा चुनाव हारने के बाद राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की खातिर कांग्रेस में आ गए । एक समय था जब भाजपा के नेता और कार्यकर्ता वैचारिक प्रतिबद्धता के लिए जाने जाते थे। लेकिन अब उसमें भी स्वार्थ पूरा न होते ही बगावत का झंडा उठाने वाले बढ़ रहे हैं। कांग्रेस तो भारत के अधिकांश राजनीतिक दलों का उद्गम स्थल ही है। उस दृष्टि से भारतीय राजनीति को कांग्रेसी संस्कृति से प्रेरित और प्रभावित कहना गलत न होगा। बीते कुछ समय से चुनाव वाले राज्यों में टिकिट कटने के अंदेशे में ही बड़ी संख्या में दलबदल देखने मिल रहा है। म.प्र , राजस्थान , छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में जिस तरह से लोगों ने अपनी पार्टी छोड़कर दूसरे के साथ नाता जोड़ा वह नई बात नहीं है। नए – नए आए नेताओं को टिकिट देकर उपकृत करने की परिपाटी भी अब आम हो गई है। भाजपा और कांग्रेस द्वारा उम्मीदवार न बनाए जाने पर अनेक लोग आम आदमी पार्टी , बसपा और सपा का दामन थाम रहे हैं। कुछ निर्दलीय मैदान में उतरने का पुरुषार्थ प्रदर्शित करने में भी पीछे नहीं है। अभी पूरी टिकिटें नहीं बंटी तब ये आलम है। पूरी सूची घोषित होने के बाद बागियों के असली दांव पेंच समझ में आयेंगे। जिनको कहीं ठिकाना नहीं मिलेगा वे मान – मनौव्वल के बाद भविष्य में कुछ पाने की प्रत्याशा में टिके रहेंगे तो कुछ ऐसे भी हैं जो खेलेंगे नहीं तो खेल बिगाड़ेंगे का रूप अख्तियार करने से नहीं चूकेंगे। जो दृश्य देखने मिल रहे हैं उनसे ये प्रतीत हो रहा है कि राजनीति विशुद्ध व्यापार अर्थात लाभ कमाने पर केंद्रित हो गई है। जिस पार्टी में स्वार्थ सिद्ध हों और महत्वाकांक्षाएं पूरी हो सकें उसमें घुसना और मकसद पूरा न होने पर बाहर आ जाना एक तरह का कर्मकांड बन गया है। हालांकि दल बदलना लोकतंत्र में कोई अपराध नहीं है। निर्वाचित जनप्रतिनिधियों पर तो कानूनी बंदिश भी है परंतु उसका भी तोड़ निकाल लिया गया है। लेकिन टिकिट के लालच में पार्टी में आना और न मिलने पर उसे छोड़ देने वाले कितने विश्वसनीय होंगे ये विचारणीय प्रश्न है। दो – दो , चार – चार बार विधायक , सांसद यहां तक कि मंत्री रहने वाले भी जब उम्मीदवार न बनाए जाने पर बगावत का झंडा उठाते हुए पार्टी की जड़ें खोदने में जुट जाते हैं तब आश्चर्य से ज्यादा दुख होता है। संसदीय लोकतंत्र में दलीय व्यवस्था एक अनिवार्यता है। हालांकि निर्दलीय के लिए भी स्थान है। अनेक चर्चित व्यक्तित्व दलीय बंधन से मुक्त रहते हुए भी सांसद और विधायक बनते रहे और अपने योगदान से लोकप्रियता और सम्मान अर्जित किया परंतु ज्यादातर निर्दलीय राजनीतिक सौदेबाजी का प्रतीक बने। आजादी के 75 साल बाद भी हमारे देश के लोकतंत्र में गुणात्मकता का जो अभाव है उसका कारण राजनीति का व्यापारीकरण ही है। स्वार्थसिद्धि के लिए किसी पार्टी में आते समय उसकी शान में कसीदे पढ़ना और निहित उद्देश्य पूरे न होते ही तीखी आलोचना करते हुए उसे छोड़ देना साधारण बात हो चली है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का गौरवगान हमें आए दिन सुनने मिलता है लेकिन बिना किसी सैद्धांतिक आधार के पार्टी में आना या उसे छोड़ देना उस गौरव पर कालिमा पोत देता है। इस बारे में रोचक तथ्य ये है कि पार्टी को गरियाकर उससे निकल जाने वाला नेता कुछ समय बाद जब उसी में वापस लौटता है तो उसे घर वापसी कहते हुए उसके लिए लाल कालीन बिछाए जाते हैं।