भारतीय संस्कृति और इतिहास आज की युवा तरुणाई को मार्ग दिखाने में सक्षम है। यह प्रकृति, संस्कृति, सभ्यता के साथ ही मानव व्यवहार का मूर्त रूप है। मनुष्य, जीव और पर्यावरण जगत का साक्षात्कार कराने में भारतीय दर्शन सक्षम है। इन सब मानवीय विशेषताओं के कारण ही भारत दुनिया को ज्ञान का प्रकाश देता रहा और विश्वगुरु की उपाधि से विभूषित हुआ। आज भी भारत अपने इतिहास के बल पर अपने उस गुरूत्तर दायित्व को निभाने में सक्षम है। आज जब विश्व अनेक धर्म, पंथ, मंत और वर्गों में विभाजित होकर संघर्षरत है और दुर्भाग्य से वही बीमारी आज भारत में भी दिखाई देती है तब इतिहास के झरोखों में झाँककर लोगों को उस ओर इशारा कर अपने अतीत के दर्शन कराना जरूरी हो जाता है। आज जब भारत जैसे देश में नारी सशक्तीकरण की बात चलती है तो स्वाभाविक रूप से समझ आता है कि हम अपने देश के इतिहास से अपरिचित हैं। भारत में तो सतयुग से लेकर कलयुग तक हर जाति-वर्ग की हजारों-हजार भारतीय नारियों के श्रेष्ठतम उदाहरण दिखाई देते हैं, जिन्होंने जीवन के हर क्षेत्र में उत्कृष्ट जीवन जी कर विश्व की नारियों के सामने आदर्श स्थापित किए हैं। वैदिक युग में सती, सावित्री, अनुसूया, कैकेयी, सीता, शबरी एवं द्रौपदी जैसी भारतीय नारियों के नाम लोगों के मुंह से आज भी स्वाभाविक रूप से सुने जा सकते हैं। वही मुगलों के आक्रमण, अत्याचार के कालखंड में राजा दाहिर की पुत्रियों ने जो बलिदान की परंपरा खड़ी की, उसे महारानी पद्मिनी, पन्नाधाय, रानी दुर्गावती एवं हाड़ा रानी ने बनाए रखते हुए राष्ट्रधर्म और स्वाभिमान को जागृत करने का मार्ग आज की पीढ़ी को दिखाया हैं अंग्रेजी दासता के काल में कित्तूर की रानी चैन्नम्मा, रानी लक्ष्मीबाई एवं दुर्गा भाभी जैसी विदुषी नारियां राष्ट्र और समाज के लिए बलिदान देने की प्रेरणा जागृत करती हैं। है देवी तेरी वीर गति, पर श्रद्धा सुमन चढ़ाते हैं। तेरी अमर कथा सुनकर दूंग में आंसू आ जाते हैं। भारत का इतिहास ऐसी वीरांगनाओं के बलिदान से भरा पड़ा है जिन्होंने स्वाधीनता, स्वाभिमान, सतीत्व के लिए युद्ध भूमि में दुश्मन के छक्के ही नहीं छुड़ाए बल्कि हंसते-हंसते अपने प्राणों को मातृ-भूमि पर न्योछावर कर दिया। इसी श्रृंखला में एक नाम आता है गोंड रानी वीरांगना दुर्गावती जिसने मुगलों के दांत खट्टे कर दिए थे। गढ़ मण्डला की गोंड रानी दुर्गावती अपने रणकौशल, वीरता, शक्ति और पराक्रम के बल पर मुगलों से संघर्ष करते हुए बलिदान हो गई। यह किसी साधारण नारी के लिए करना असंभव था इसलिए वह बलिदान देकर भी अमर हो गई। उनके जन्म के 500वें वर्ष के प्रसंग पर याद कर हम उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित कर रहे हैं। रानी दुर्गावती का जन्म 5 अक्टूबर 1524 को कालिंजर दुर्ग में महोबा नरेश कीर्तिवर्मन चन्देल के यहां दुर्गा अष्टमी को हुआ इसलिए उनका नाम दुर्गावती रखा गया। उन्होंने बचपन में ही युद्ध कला, तलवारबाजी, तीरंदाजी, घुड़सवारी और युद्ध व्यूह रचना आदि विद्याएं सीख ली थी। दुर्गावती का विवाह गढ़ मण्डला के गोंड नरेश दलपतशाह कछवाहा से संपन्न हुआ। राजा दलपतशाह वीर तथा चतुर राजनीतिज्ञ थे । इसलिए उनके जीवित रहते उनसे युद्ध करने का साहस अकबर तक नहीं कर सका। विवाह के कुछ वर्ष पश्चात की उन्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई उसका नाम वीरनारायण रखा गया। वीरनारायण अभी चार वर्ष का ही था उसी दौरान एक दुखद घटना घटी, राजा दलपतशाह की मृत्यु हो गई। रानी दुर्गावती ने वीरनारायण को राजा घोषित कर शासन के सारे सूत्र संभाल लिए लेकिन मुगलों के उस अराजकता के समय में एक जवान, सुंदर विधवा हिन्दू रानी को कौन आसानी से शासन करने देता । नारी के शासन को असुरक्षित समझकर उसे लूटने के लिए चारों और से घेरे मुस्लिम सत्ता को अवसर हाथ लग गया।
पश्चिम में निमाड़ मालवा का शुजात खां सुरी, दक्षिण में खानदेश का मुस्लिम राज्य, पूर्व में अफगान राज्य थे। तीनों ओर से रानी पर आक्रमण प्रारंभ कर दिए। परंतु रानी घबराई नहीं साहस पूर्वक गोंडवाना के हिन्दु युवकों का आह्वान किया और गोंडों की एक शक्तिशाली सेना तैयार की और उसकी कमान स्वयं अपने हाथ में ले ली। उस रणचण्डी वीर बाला ने साक्षात दुर्गा का रूप धारण कर मुस्लिम आक्रमणकारियों को पराजित किया। मुस्लिम शासक इतने भयभीत हुए कि पुनः उन्होंने रानी के राज्य पर आक्रमण करने का साहस नहीं किया। मुस्लिम सत्ताओं के फन कुचलने के पश्चात रानी ने अपने शासन को सुशासन में बदल, सौलह वर्षों तक सफलता पूर्वक शासन किया। रानी ने प्रजा के कल्याण के लिए अपने राज्य में कुएं, बावड़ियां, तलाब खुदवाएं, मंदिर एवं धर्मशालाएं बनवाई। उनके प्रजा वत्सल होने के कारण जनता उन्हें देवी के रूप में पूजने लगी थी। धीर वीर वह नारी थी, गढ़मंडल की वह रानी थी। दूर-दूर तक थी प्रसिद्ध, सबकी जानी-पहचानी थी। रानी के सुशासन में गढ़ मण्डला एक समृद्ध प्रदेश बन गया। एक ओर उर्वरक कृषि भूमि और दूसरी ओर एक कुशल प्रशासक के नेतृत्व में शांति व्यवस्था को देखकर हरियाणा और राजस्थान के व्यापारी वहाँ आकर बसने लगे, देशभर से बड़ी संख्या में लोग व्यापार के लिए वहा आने लगे थे। ऐसा समृद्ध व्यापारिक केंद्र मुगल बादशाह अकबर की आँखों में खटकना स्वाभाविक था। रानी पर आक्रमण के लिए वह अवसर खोजने लगा था। अठारह वर्ष के युवराज वीरनारायण का विवाह पुरगढ़ा के राजा की सौलह वर्ष की पुत्री से तय हुआ। अकबर ने उत्तर भारत के समस्त रजवाड़ो को अपनी कन्याओं के डोले उसके हरम में भेजने का प्रस्ताव भेज रखा था। ऐसे समय में गढ़ मण्डला को सुरक्षित जानकर पुरगढ़ा के राजा ने अपनी पुत्री का विवाह गोंडवाना की राजधानी गढ़ कटंग में करना निश्चित कर अपनी पुत्री को गढ़ कटंग भेज दिया।
बादशाह अकबर को अपने गुप्तचरों से जब यह सूचना मिली तो सुन्दर स्त्री और धन के लालची अकबर ने बुंदेलखंड में डेरा डाले पड़े कड़ा के सूबेदार अपने सेनापति आसफ खां को पंचास हजार के सैनिक लश्कर के साथ गढ़ मण्डला को लूटने की मुहिम पर भेजा । सन 1564 में अधिकांश राजे-रजवाड़ो ने इस्लाम के सम्मुख घुटने टेक दिए थे। जिन्होंने घुटने नहीं टेके उसमें उत्तर भारत में चित्तौड़, दक्षिण में विजयनगर साम्राज्य । इसके अतिरिक्त था गोंडवाना का राज्य जिसकी स्वतंत्रता को नष्ट करने के लिए अकबर ने आसफ खां को भेजा था। आसफ खां रानी पर इसके पूर्व भी बारह बार आक्रमण कर चुका था परंतु वह इस रणचंडी के सामने कभी टिक नहीं पाया था। हर बार उसने मुहं की खाई थी। इस बार वहा मुगल बादशाह के सहयोग से एक बड़ी सेना के साथ युद्ध भूमि में आ धमका था। रानी दुर्गावती गढ़ मण्डला के बीच मैदान में बीस हजार घुड़सवार और एक हजार हाथियों के साथ आ डटी और युद्ध भूमि में खड़े अपने सैनिकों का आह्वान करते हुए रानी ने कहा देश पर मर मिटने वाले वीरों! तैयार हो जाओ, आज तुम्हारी जन्मभूमि विपत्ति में है वह रुदन कर रही हैं। उसकी स्वाधीनता तथा मर्यादा की रक्षा करना तुम्हारा धर्म है। तुम दिखा दो कि जब तक एक भी राजपूत जीवित रहेगा, तब तक गढ़ मण्डला को कोई पराधीन नहीं कर सकता। मैं जीते जी गढ़ मण्डला में दुश्मन को पैर न रखने दूंगी। घमासान युद्ध हुआ समुद्र के समान मुगलों की अथाह सेना थी। फिर भी रानी घबराई नहीं, वह सेना लेकर भूखी शेरनी के समान शत्रुदल पर टूट पड़ी। रानी दुर्गावती दोनों हाथों में तलवारें लिए विद्युत गति से तलवारें चलाते हुए शत्रु सेना को गाजर-मूली की तरह काट रही थी। एक हाथ की तलवार शत्रु के सीने में भोंकती तो दूसरे हाथ वाली तलवार से शत्रु की गर्दन उड़ा देती थी। आज वह साक्षात दुर्गा का रूप धारण किए हुए थी, जो सामने आया वह सीधा यमलोक ही पहुंच जाता था। लेकिन यह सब कब तक चलता, रानी घायल हो गई थी, शरीर से रक्त बह रहा था और रानी काफी थक चुकी थी, फिर भी वह लड़ रही थी। तभी एक बाण रानी की आँख में आ लगा। बाण निकालने से भी निकला नहीं। विजय की आशा समाप्त होती देख वह घबरा उठी थी। रानी का संकल्प था जीते-जी शत्रु के हाथ नहीं लगूंगी। अतः उसने अपनी कमर से कटार निकाली और अपने सीने में घोंप ली। उस स्वाभिमानी रानी का निष्प्राण शरीर जमीन पर गिर पड़ा। 24 जून 1564 को 39 वर्ष की आयु में यह
संग्राम शाह की थी पुत्रवधू, गढ़ मंडला की रानी थी। झुकी नहीं वो मुग़लों के आगे, राजपूत स्वाभिमानी थी
इस युद्ध में रानी का पुत्र वीर नारायण भी बलिदान हो गया और लगभग सारे सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए। चौरागढ़ के किले में आसपास के ग्रामों से संभ्रांत घरों की कुल वधुएं, बेटियां, राजपरिवार की महिलाएँ, सरदार परिवार की महिलाएँ जिनकी संख्या लगभग पांच हजार के आस-पास थी, वह पूर्ण श्रंगार कर जलती चिताओं में जौहर कर अपनी अस्मिता के लिए समर्पित हो गई। चौरागढ़ के किले पर जब आसफ खां पहुंचा तो उसे भारत के बलिदान की परंपरा के दर्शन के अलावा कुछ नहीं मिला। ऐसा अद्भुत जौहर और रानी का बलिदान युगों-युगों तक गढ़ मण्डला गौरवगान करता रहेगा और आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा देता रहेगा।
यह ऐतिहासिक युद्ध वर्तमान जबलपुर के पास मंडला मार्ग पर बरेला नामक स्थान पर हुआ था। उस स्थान पर रानी दुर्गावती की समाधि बनाई गई है। रानी के सम्मान में वहां जाकर लोग अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। रानी के सम्मान में शासन ने जबलपुर विश्वविद्यालय का नाम बदलकर 1983 में रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय कर दिया। भारत सरकार ने 24 जून 1988 रानी दुर्गावती के बलिदान दिवस पर एक डाक टिकट जारी कर रानी दुर्गावती को याद किया। जबलपुर में स्थित संग्रहालय का नाम भी रानी दुर्गावती के नाम से जनता को समर्पित किया गया है। मंडला जिले के शासकीय महाविद्यालय का नाम भी रानी दुर्गावती के नाम पर ही रखा गया है। रानी दुर्गावती की याद में कई जिलों में रानी दुर्गावती की प्रतिमाएं लगाई गई है और कई शासकीय भवनों का नाम भी रानी दुर्गावती के नाम पर रखा गया है। जबलपुर हवाई अड्डे का नाम भी रानी दुर्गावती को ही समर्पित है। हाल ही में मा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एवं मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने जबलपुर में रानी दुर्गावती की 500वीं जयंती के अवसर पर शौर्य और वीरता की प्रतीक रानी दुर्गावती के स्मारक व उद्यान का शिलान्यास किया है। वहीं वीरांगना रानी दुर्गावती पर सिक्का और डाक टिकट जारी किया हैं।
रानी तू दुनिया छोड़ गई, पर तेरा नाम अमर अब तक और रहेगा नाम सदा, सूरज चंदा नभ में जब तक
लेखक निखिलेश महेश्वरी
(लेखक विद्या भारती मध्यभारत प्रान्त के संगठन मंत्री है।)