गत दिवस देश की 102 लोकसभा सीटों के लिए मतदान हुआ। 21 राज्यों में पहले चरण के लिए औसत 62 प्रतिशत मतदाताओं ने ही मताधिकार का उपयोग किया। प. बंगाल , तमिलनाडु, असम, पुडुचेरी , मेघालय और त्रिपुरा में 70 फीसदी से अधिक मत पड़े जबकि राजनीतिक चर्चाओं में सबसे ज्यादा रहने वाले बिहार में महज 48.50 प्रतिशत मतदाताओं ने अपना सांसद चुनने में रुचि ली। राजस्थान, छत्तीसगढ़ और म. प्र जैसे जिन राज्यों में कुछ माह पहले हुए विधानसभा चुनावों में 75 प्रतिशत के लगभग मतदान हुआ था वहाँ भी गत दिवस मतदान में उल्लेखनीय कमी आई। देश की राजनीतिक दिशा तय करने वाले उ. प्र में 58.49 फीसदी मतदाताओं ने ही लोकतंत्र के महायज्ञ में अपनी हिस्सेदारी दिखाई। 2019 के लोकसभा चुनाव की तुलना में मतदान के घटने से राजनीतिक विश्लेषक भौचक हैं। बीते अनेक महीनों से सत्ता और विपक्ष में बैठे नेता जनता के बीच जाकर अपना पक्ष रख रहे थे। समाचार माध्यमों में भी चुनावी चर्चा को जरूरत से ज्यादा महत्व दिया जाने लगा है। टीवी और यू ट्यूब चैनल पर तो राजनीतिक बहस के सिवाय और कुछ होता ही नहीं। इसके बाद भी यदि मतदान औसतन 75 फीसदी भी न पहुंचे तो इसका सीधा अर्थ यही निकलेगा कि मतदाता राजनीति के अतिरेक से ऊबने लगा है। यद्यपि असम, त्रिपुरा, तमिलनाडु और प. बंगाल में 70 फीसदी से अधिक मतदान ये साबित करने के लिए पर्याप्त है कि इन राज्यों में राजनीतिक जागरूकता बिहार, उ. प्र, म.प्र और राजस्थान जैसे राज्यों में कहीं ज्यादा है। वहीं इसका दूसरा पहलू ये भी है जहाँ कम या ज्यादा मतदान हुआ वहाँ का सामाजिक ढांचा किस प्रकार का है ? उदाहरण के लिए मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में अधिक मतदान ऐलनिया भाजपा के विरुद्ध जाता है। लेकिन हिन्दू बहुल क्षेत्रों के मतदाता पूरी तरह भाजपा को मत देंगे ये कह पाना कठिन है। बावजूद इसके कि भाजपा हिन्दू समुदाय का ध्रुवीकरण अपने पक्ष में करने में काफी हद तक सफल रही है। इसी तरह जातीय समीकरण बिठाने में भी उसने काफी महारत हासिल की है। भाजपा के साथ मध्यम वर्ग परम्परागत जुड़ा रहा है जो पूरी तरह खुश नहीं होने के बाद भी उसकी राष्ट्रवादी नीतियों से प्रभावित होकर उसके पक्ष में खड़ा रहता है। बीते 10 वर्षों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कद राष्ट्रीय राजनीति में इतना बड़ा हो चुका है कि कोई अन्य नेता उनके आस – पास भी नजर नहीं आता। इस वजह से भाजपा को लगभग 5 प्रतिशत मत उस तबके के मिलने लगे हैं जो नीतियों के बजाय करिश्माई नेतृत्व से ज्यादा प्रभावित होता है। बुद्धिजीवी, विशेष रूप से पेशेवर वर्ग में श्री मोदी की छवि बड़े निर्णय लेने वाले राजनेता की बन जाने से वह उनका प्रशंसक बन बैठा है। इन सबसे अलग गरीब जनता के मन में उनकी मुफ्त अनाज और मकान योजना का गहरा असर है। हालांकि प. बंगाल, तमिलनाडु, आंध्र , दिल्ली, पंजाब और कर्नाटक की गैर भाजपाई राज्य सरकारें भी ऐसे ही तमाम जन कल्याणकारी कार्यक्रम चला रही हैं किंतु देश के बड़े भूभाग पर भाजपा का राज होने से मोदी की गारंटी का शोर अपेक्षाकृत ज्यादा नजर आता है। वैसे तो सभी पार्टियां कम मतदान को अपने पक्ष में बताने का प्रयास कर रही हैं किंतु सभी के लिए विचारणीय प्रश्न ये है कि शिक्षा और सूचनातंत्र का इतना प्रसार होने के बावजूद मतदान कम क्यों होता है ? चुनाव आयोग प्रतिशत बढ़ाने के लिए खूब प्रयास करता है। मतपर्चियाँ भी घर – घर पहुंचाने की व्यवस्था की गई है। लेकिन गत दिवस कुछ राज्यों को छोड़ बाकी में 2019 के लोकसभा और 2023 के विधानसभा चुनाव से कम मतदान होना राजनीतिक पार्टियों के लिए चिंता और चिंतन का कारण होना चाहिए। हालांकि परिणाम के बाद ही ये स्पष्ट हो सकेगा कि कम मतदान से किसे फ़ायदा या नुकसान हुआ किंतु लोकतंत्र के लिए जिस तरह से मजबूत विपक्ष आवश्यक है उसी तरह मतदाताओं की जागरूकता भी। उस दृष्टि से गत दिवस जहाँ – जहाँ मतदान 70 फीसदी से कम हुआ वहाँ मतदाताओं का मतदान से दूरी बनाये रखना अध्ययन का विषय है। इसका कारण पिछले वायदे पूरे न होना भी हो सकता है। समाज में एक वर्ग उन लोगों का भी है जो ये मान बैठे हैं कि सत्ता बदलने पर भी व्यवस्था में सुधार नहीं होता । ये निराशा किसको नुकसान पहुंचाएगी ये तात्कालिक तौर पर तो कहना संभव नहीं है किंतु कालांतर में लोकतंत्र के लिए घातक साबित होगी ये निश्चित है।
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