संपादकीय- रवीन्द्र वाजपेयी
2003 में म.प्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनाव में भाजपा को शानदार सफलता मिली । इससे अति आत्मविश्वास में भरकर अटल बिहारी वाजपेयी की केंद्र सरकार ने लोकसभा भंग कर जल्दी चुनाव करवा दिए किंतु निराशा हाथ लगी और दस साल तक भाजपा को केंद्र की सत्ता से बाहर रहना पड़ा। इसका उल्टा देखने मिला 2018 में जब उक्त तीनों राज्यों में कांग्रेस ने सरकार बनाई किंतु कुछ महीनों बाद हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा को इन राज्यों में जबरदस्त सफलता मिली। इन दो उदाहरणों से ये साबित हुआ कि विधानसभा और लोकसभा चुनाव में मतदाता एक ही पार्टी या गठबंधन को समर्थन दें ये जरूरी नहीं है। अनेक राज्यों के मतदाताओं ने राज्य और केंद्र की सरकार लिए अलग – अलग पार्टियों को मत देकर ये संदेश दिया कि उन्हें अपने मत का समुचित उपयोग करने की भरपूर समझ है। ये देखते हुए म.प्र , छत्तीसगढ़ और राजस्थान के मौजूदा विधानसभा चुनावों को 2024 के लोकसभा चुनाव की रिहर्सल मान लेने पर भिन्न दृष्टिकोण हो सकते हैं। इन तीनों में मुख्य मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच ही है । यद्यपि सपा , बसपा , जनता दल (यू)और आम आदमी पार्टी भी मैदान में कुछ सीटों पर लड़ रही हैं लेकिन उनकी अहमियत तभी रहेगी जब उनके कुछ विधायक जीतें और त्रिशंकु विधानसभा बने । 2018 में म.प्र में ऐसा हुआ भी। लेकिन जो संकेत आए हैं उनके अनुसार तीनों राज्यों में जो भी सरकार बने उसके पास स्पष्ट बहुमत होगा। कांग्रेस को उम्मीद है वह तीनों राज्य जीत लेगी और जिसका लाभ 2024 में उसे मिलेगा। वहीं भाजपा के रणनीतिकार मान रहे हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर विधानसभा चुनाव लड़कर वह लोकसभा के मुकाबले के लिए खुद को मजबूत कर लेगी। वैसे ये कहने वाले भी कम नहीं हैं कि वे प्रदेश में किसी को भी मत दें किंतु लोकसभा चुनाव में उनका समर्थन श्री मोदी को ही मिलेगा। कांग्रेस को उम्मीद है कि म.प्र की सत्ता भाजपा से छीन लेने के साथ ही वह राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सरकार बचाए रखने में कामयाब हो जायेगी। दूसरी तरफ भाजपा म.प्र में स्पष्ट बहुमत के साथ सत्ता में वापसी का भरोसा पालने के साथ ही राजस्थान में कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने तथा छत्तीसगढ़ में 2018 से बेहतर प्रदर्शन करने के प्रति आश्वस्त है। दोनों का आशावाद उनके अपने आकलन पर आधारित है लेकिन जो बात जनता के बीच से निकलकर आ रही है उस पर यकीन करें तो इस विधानसभा चुनाव के परिणामों का आगामी लोकसभा चुनाव पर असर पड़ने की संभावना बहुत ज्यादा नहीं हैं। हालांकि जो लोक लुभावन घोषणाएं विधानसभा चुनाव में भाजपा और कांग्रेस दोनों की तरफ से की गईं उनसे मतदाता प्रभावित हो सकते हैं । उस लिहाज से श्री मोदी की लोकप्रियता भी कसौटी पर है। हालांकि कांग्रेस बाकी विपक्षी दलों के साथ गठबंधन करती तब उसे 2024 का पूर्वाभ्यास कहा जा सकता था। लेकिन उक्त तीनों राज्यों में गैर भाजपा पार्टियां एकजुट नहीं हो सकीं जिसके लिए सपा , आम आदमी पार्टी और जनता दल (यू) ने कांग्रेस की आलोचना भी की। बसपा तो वैसे भी विपक्ष के गठबंधन से अलग ही है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि जिन गैर भाजपा पार्टियों के साथ कांग्रेस ने सीटों का बंटवारा करने से इंकार कर दिया वे ही यदि अपना संयुक्त उम्मीदवार उतारतीं तब तीसरी ताकत के तौर पर दबाव बनाने में भी सक्षम हो जातीं। ऐसे में 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा विरोधी विपक्षी पार्टियों की मोर्चेबंदी पर आशंका के बादल मंडराने लगे हैं । लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हो जाती। भाजपा ने प्रधानमंत्री के नाम पर उक्त तीनों राज्यों में चुनाव लड़कर बड़ा जोखिम उठाया है ।यदि परिणाम प्रतिकूल आए तब कांग्रेस को ये कहने का अवसर मिल जायेगा कि मोदी की गारंटी पर मतदाताओं का भरोसा नहीं रहा। हिमाचल और कर्नाटक के बाद यदि उक्त तीन में से भाजपा दो राज्यों में नहीं जीती तब वह दबाव में आ जायेगी । इसी तरह कांग्रेस यदि दो राज्य भी बचा ले गई तब वह विपक्षी दलों को अपने झंडे तले एकजुट होने के लिए दबाने की हैसियत में होगी। लेकिन केवल छत्तीसगढ़ में सिमट गई तब छोटी – छोटी पार्टियां भी उसे आंखें दिखाने से बाज नहीं आएंगी। इस आधार पर कह सकते हैं कि संदर्भित तीनों राज्यों के चुनाव परिणाम भाजपा विरोधी गठबंधन का भविष्य निश्चित करेंगे। इस आलेख में तेलंगाना की चर्चा इसलिए नहीं की गई क्योंकि वहां बाकी विपक्षी दल उतने ताकतवर नहीं हैं जबकि मिजोरम में राष्ट्रीय पार्टियां नाममात्र के लिए हैं। रही बात भाजपा की तो यदि वह 2018 के नतीजों को उलटने में सफल रही तब यह साबित हो जायेगा कि उसके प्रादेशिक नेता भले ही साख खो बैठे हों किंतु प्रधानमंत्री के प्रति लोगों का भरोसा कायम है।