संपादकीय – रवीन्द्र वाजपेयी
कांग्रेस नेता राहुल गांधी आगामी 14 जनवरी से न्याय यात्रा पर निकलने वाले हैं। 6,200 किलोमीटर की यह यात्रा मणिपुर से शुरुआत के बाद नागालैंड, असम, मेघालय, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात होते हुए 20 मार्च को मुंबई में समाप्त होगी। इसके पहले श्री गांधी ने कन्याकुमारी से कश्मीर तक की भारत जोड़ो यात्रा की थी जिसमें वे 3500 किमी पैदल चले थे। लेकिन न्याय यात्रा के कुछ हिस्सों में वे वाहन का उपयोग भी करेंगे। गौरतलब है यह यात्रा इंडिया गठबंधन के आकार लेने के बाद होने जा रही है किंतु इसका आयोजन कांग्रेस द्वारा किया जा रहा है । ये प.बंगाल , झारखंड और बिहार जैसे राज्यों से भी गुजरेगी जहां गठबंधन में शामिल दलों का शासन है। जाहिर है इसका उद्देश्य कांग्रेस को मजबूती प्रदान करना है। उस दृष्टि से देखें तो भारत जोड़ो यात्रा का असर मिला – जुला ही कहा जाएगा क्योंकि कांग्रेस ने इसके बाद तेलंगाना में तो सरकार बनाई किंतु छत्तीसगढ़ और राजस्थान उसके हाथ से निकल गए । वहीं म.प्र में जीत की उम्मीदों पर पानी फिर गया। स्मरणीय है म.प्र और राजस्थान के बड़े हिस्से से भारत जोड़ो यात्रा निकली थी । इस प्रकार ये कहना गलत होगा कि उस यात्रा के बाद राहुल की छवि एक परिपक्व नेता में बदल गई । तेलंगाना के अलावा म.प्र , छत्तीसगढ़ और राजस्थान में तो उन्होंने धुंआधार प्रचार और रोड शो किए ही साथ ही वे मिजोरम में भी कांग्रेस की विजय हेतु अभियान पर गए। इन पांच राज्यों में केवल दक्षिण का तेलंगाना ही कांग्रेस के कब्जे में आ सका जबकि हिन्दी पट्टी के तीन प्रमुख राज्यों में कांग्रेस को जिस तरह की हार देखने मिली उसके कारण हिमाचल और कर्नाटक में भाजपा को सत्ता से बाहर करने के बाद अन्य विपक्षी दलों पर हावी होने की उसकी कोशिश धरी की धरी रह गई। चुनाव परिणाम आने के बाद इंडिया गठबंधन की जो बैठक हुई उसमें ममता बैनर्जी ने प्रधानमंत्री के चेहरे के तौर पर मल्लिकार्जुन खरगे का नाम उछालकर स्पष्ट कर दिया कि गठबंधन के भीतर ही श्री गांधी की क्षमता पर अविश्वास है। उक्त प्रस्ताव का अरविंद केजरीवाल ने भी समर्थन किया था। सही बात ये है कि कर्नाटक की जीत के बाद कांग्रेस ने इंडिया गठबंधन के संयोजक और सीटों के बंटवारे के लिए फार्मूला तय करने के काम को ये सोचकर टाला कि चार राज्यों में विजय हासिल करने के बाद गठबंधन में शामिल दल उसके इशारे पर नाचने मजबूर हो जाएंगे । स्मरणीय है कर्नाटक और हिमाचल का चुनाव भी भाजपा ने प्रधानमंत्री के नाम को सामने रखकर ही लड़ा था । हार के बाद राजनीतिक विश्लेषकों ने ये कहना शुरू कर दिया कि मोदी मैजिक असरकारक नहीं रहा। लेकिन भाजपा इससे हताश नहीं हुई और उसने म.प्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में मोदी की गारंटी के नारे पर कांग्रेस को पूरी तरह धराशायी कर दिया। तेलंगाना में भी उसकी सीटें और मत प्रतिशत में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। इन परिणामों से नीतीश कुमार ,ममता बैनर्जी , अखिलेश यादव , अरविंद केजरीवाल जैसे क्षेत्रीय छत्रप भी गठबंधन में कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार करने के प्रति अनिच्छुक नजर आने लगे। 19 दिसंबर की बैठक के पहले शिवसेना के मुखपत्र सामना में कांग्रेस को लेकर की गई तीखी टिप्पणी अपने आप में बहुत कुछ कह गई। ऐसे में श्री गांधी की न्याय यात्रा के जरिए कांग्रेस के वर्चस्व को साबित करने का जो दांव चला जा रहा है वह कितना कारगर होगा यह तो समय बताएगा किंतु इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि यह गठबंधन के बिखराव का कारण बन सकता है। बिहार में जद (यू) में चल रही खींचातानी के बीच ये अटकल लगाई जा रही है कि नीतीश फिर पलटी मारेंगे। हालांकि भाजपा इस बार उनको साथ लेने के प्रति उत्साहित नहीं है किंतु नीतीश का इतिहास देखते हुए इतना तो कहा ही जा सकता है कि वे लोकसभा चुनाव के पहले ऐसा कुछ कर सकते हैं जिससे कांग्रेस को झुकने के लिए मजबूर किया जा सके । ये देखते हुए न्याय यात्रा का समय रणनीतिक दृष्टि से उपयुक्त नहीं है। एक तरफ जहां भाजपा जनवरी के अंत तक 2019 में हारी हुई लोकसभा सीटों पर प्रत्याशी घोषित करने का संकेत दे रही है तब कांग्रेस की शक्ति और संसाधन इस यात्रा के प्रबंधन में खर्च होंगे। 22 जनवरी को अयोध्या में राम लला की प्राण प्रतिष्ठा के बाद भाजपा उसका लाभ लेने के लिए योजनाबद्ध तरीके से जुटी है । होना तो ये चाहिए ऐसे समय बजाय यात्रा के राहुल गठबंधन के सदस्यों के बीच सामंजस्य बनाकर सीट बंटवारे का आधार तय करते हुए अपने नेतृत्व के प्रति उनमें भरोसा पैदा करते । लेकिन ऐसा लगता है न तो वे और न ही उनकी पार्टी दीवार पर लिखी इबारत को पढ़ पा रही है। इसलिए 3 दिसंबर के पहले तक जो राजनीतिक विश्लेषक श्री गांधी की शान में कसीदे पढ़ते थे , उनके सुर बदल गए हैं।