ज्ञानवापी में मंदिर के प्रमाण मिलने के बाद हठधर्मिता छोड़ें मुस्लिम

ज्ञानवापी में मंदिर के प्रमाण मिलने के बाद हठधर्मिता छोड़ें मुस्लिम
ज्ञानवापी में मंदिर के प्रमाण मिलने के बाद हठधर्मिता छोड़ें मुस्लिम

 

वाराणसी के सुप्रसिद्ध विश्वनाथ मंदिर से सटी ज्ञानवापी मस्जिद में पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा की गई खुदाई से उस दावे की पुष्टि हो गई है कि वह हिन्दू मंदिर पर ही बनाई गई थी। इस खुदाई को रोकने मुस्लिम पक्ष द्वारा अदालत में भरपूर दलीलें दी गईं। अपेक्षा तो थी कि स्वाधीनता के बाद केंद्र सरकार मुगल काल में हिन्दू धर्मस्थलों को तोड़कर या उन्हीं ढांचों पर खड़ी की गई मस्जिदों को हिंदुओं को सौंपने की नीति बनाती । लेकिन कांग्रेस सहित अन्य पार्टियां मुसलमानों की नाराजगी से बचने के लिए हिंदुओं के वैध दावों को ठुकराती रहीं। हालांकि अयोध्या विवाद को सुलझाकर सर्वोच्च न्यायालय ने जो रास्ता खोल दिया वह उन सभी धर्मस्थलों को मुक्त करवाने में सहायक होगा जिनको मुस्लिम शासकों ने बलपूर्वक मस्जिद का रूप दे दिया। उस दृष्टि से ज्ञानवापी में किए गए सर्वेक्षण की जो रिपोर्ट अदालत में पेश हुई , उसमें समाहित चित्रों को देखकर कोई भी कह सकता है कि वह मंदिर ही है । मुस्लिम पक्ष को इसका एहसास काफी पहले से था । इसीलिए उन चीजों को छिपा दिया गया था जो हिन्दू धर्म के प्रतीक हैं। सबसे बड़ी बात शिवलिंग का मिलना है। मुस्लिम पक्ष द्वारा इस बारे में वही गलती दोहराई जा रही है जो अयोध्या विवाद में देखने मिली। इसलिए इस विवाद को निपटाने के लिए अदालत ही एकमात्र विकल्प बच रहती है जहां पुख्ता प्रमाणों के आधार पर फैसले होते हैं। अयोध्या में हिन्दू मंदिर होने की बात भी वहां की गई खुदाई से ही तय हुई। वही प्रक्रिया ज्ञानवापी के बारे में भी अपनाई जा रही है। 1991 में केंद्र की नरसिम्हा राव सरकार ने जो कानून बनाया उसके अनुसार 15 अगस्त 1947 को किसी भी धर्मस्थल की जो स्थिति थी उसे परिवर्तित नहीं किया जावेगा। लेकिन अयोध्या विवाद में सर्वोच्च न्यायालय ने अपना निर्णय इस आधार पर दिया कि बाबरी ढांचा हिंदुओं के मंदिर को मस्जिद का रूप देकर खड़ा किया गया था। ठीक वही बात ज्ञानवापी के बारे में भी सामने आ रही है। मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि के बारे में भी ऐसा ही दावा है। ये सब देखते हुए मुस्लिम धर्मगुरुओं को अपने समुदाय के लोगों को समझाना चाहिए कि वे हठधर्मिता के बजाय समझदारी और व्यवहारिकता से काम लें। इसमें दो राय नहीं है कि मुगलों द्वारा पूरे देश में हिंदुओं के धर्मस्थलों को नष्ट करने का काम बड़े पैमाने पर हुआ। प्राचीन धर्मस्थलों के बारे में जो तथ्य उभरकर सामने आ रहे हैं वे चौंकाने वाले हैं। उल्लेखनीय है कि देश का बंटवारा धर्म के नाम पर हमारे नेताओं ने स्वीकार किया था। सर्व धर्म समभाव के भारतीय संस्कारों के कारण भले ही मुस्लिमों की बड़ी आबादी भारत में रह गई और पाकिस्तान के उलट भारत ने अपने को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाया किंतु ये भी उतना ही सही है कि तत्कालीन शासकों ने मुस्लिम तुष्टीकरण के फेर में बहुसंख्यकों की धार्मिक भावनाओं को धक्का पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यदि सरदार पटेल न होते तब बड़ी बात नहीं सोमनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार भी न हो पाता।अयोध्या का विवाद तो स्वाधीनता के पहले से चला आ रहा था। मथुरा और वाराणसी में हिंदुओं के सर्वोच्च आराध्यों के पवित्र मंदिर के बगल में बनी मस्जिद के हिन्दू मंदिर होने की बात पंडित नेहरू से लेकर तमाम नेताओं को ज्ञात थी । लेकिन उन्होंने इस दिशा में सोचने की तकलीफ इसलिए नहीं उठाई क्योंकि वे हिंदुओं की सहनशक्ति को जानते थे। वरना क्या कारण था कि हिंदुओं की विवाह व्यवस्था संबंधी रीति – रिवाजों को तो उलट – पलट दिया गया किंतु मुस्लिम पर्सनल लॉ को छेड़ने की हिम्मत नहीं हुई। यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समान नागरिक संहिता लागू करने पर जोर दिए जाने के बाद भी ज्यादातर राजनीतिक दल उसके लिए राजी नहीं हैं। हालांकि ज्ञानवापी के विवाद पर अदालती निर्णय ही एकमात्र रास्ता बच रहता है परंतु मुस्लिम समाज को ये बात समझ लेनी चाहिए कि जिन राजनीतिक दलों के बहकावे में आकर वह सच्चाई की स्वीकार करने से बचता है उनका मकसद महज उनके वोट हासिल करना है। ऐसे में उनका भला इसी में है कि वे अतीत में मुगल शासकों द्वारा हिंदुओं के धर्मस्थलों पर जबरन कब्जा किए जाने वाली गलती को सुधारने की पहल करते हुए उनकी सद्भावना हासिल करें। बहुसंख्यक हिंदुओं के साथ समन्वय बनाकर चलने में ही उनका भविष्य सुरक्षित और उज्ज्वल है।