भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी 1990 में जब सोमनाथ से रथ यात्रा लेकर अयोध्या के लिए निकले तो भारतीय राजनीति को एक नया मोड़ मिला । भाजपा उस समय केंद्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार को बाहर से समर्थन दे रही थी। लेकिन सरकार में शामिल अन्य दलों को वह यात्रा रास नहीं आ रही थी। आखिरकार बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने चेतावनी दी कि जैसे ही श्री आडवाणी बिहार में प्रविष्ट होंगे उनका रथ रोक दिया जावेगा । उधर भाजपा ने भी जवाबी चुनौती पेश करते हुए ऐलान किया कि रथ यात्रा रोकी गई तो वह केंद्र सरकार से समर्थन वापस ले लेगी। और जब बिहार के समस्तीपुर में लालू सरकार ने श्री आडवाणी का रथ रोककर उनको गिरफ्तार कर लिया तब स्व.अटल बिहारी वाजपेयी ने राष्ट्रपति को विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार से समर्थन वापसी का पत्र सौंप दिया जिससे वह सरकार गिर गई। राजनीति के जानकार मानते हैं कि मुस्लिम मतदाताओं का तुष्टिकरण करने के लिए ही लालू ने रथ यात्रा रोकी थी जिसका शिवसेना छोड़कर बाकी लगभग सभी दलों द्वारा समर्थन किया गया। उस घटना का प्रभाव भाजपा के पुनरुत्थान के तौर पर हुआ जिसका चरमोत्कर्ष आज महसूस किया जा सकता है। तीन दशक बीतने के बाद ऐसा लगता है इतिहास अपने को दोहरा रहा है। लेकिन रोचक बात ये है कि तब भी केंद्र बिंदु अयोध्या और उसमें बनाया जाने वाला राम मंदिर था और आज भी लगभग वही कारण बना हुआ है। उदाहरण के लिए प्राण प्रतिष्ठा हेतु 22 जनवरी के आयोजन का आमंत्रण पत्र जब विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं को दिया गया तो लगभग सभी ने उसे अस्वीकार कर दिया । कुछ पार्टियों ने तो इसे बिना देर लगाए ठुकरा दिया , वहीं कांग्रेस ने इंकार करने में भी दो हफ्ते लगा दिए। अनेक नेताओं ने आमंत्रण मिलने पर तो खुशी जताई किंतु 22 जनवरी के बाद राम मंदिर के दर्शनार्थ जाने की घोषणा करते हुए भाजपा से परहेज होने के कारण आयोजन से दूरी बना ली। इसे लेकर बयानबाजी भी जारी है। कुछ नेताओं ने उन धर्माचार्यों के बयानों का सहारा लिया जिनको राम मंदिर में प्राण – प्रतिष्ठा धार्मिक रीति – रिवाजों के विरुद्ध लग रही है। बहरहाल , सबके पास अपने – अपने कारण और बहाने हैं किंतु इस मामले में द्वारकापुरी के शंकराचार्य स्वामी सदानंद जी ने बेहद सुलझा हुआ बयान देते हुए कहा कि चूंकि प्राण प्रतिष्ठा की पूरी तैयारियां हो चुकी हैं इसलिए अब उसका विरोध करना अर्थहीन है। प्रधानमंत्री की उस अवसर पर उपस्थिति को भी उन्होंने उचित बताते हुए कहा कि वहां जाने का सभी को अधिकार है। यदि आयोजन से दूर रहने वाली बाकी पार्टियां और नेतागण भी इसी तरह का सकारात्मक रुख दिखाते हुए अपनी प्रतिक्रिया देते तो उसमें उनका ही भला था। ऐसा लगता है कि आयोजन का बहिष्कार करने वाले राजनेताओं और उनकी पार्टियों ने वही गलती कर दी जो श्री आडवाणी की रथ यात्रा को रोककर लालू प्रसाद यादव ने की थी । इसी तरह जब भाजपा ने विश्वनाथ प्रताप सरकार के साथ ही उ.प्र की तत्कालीन मुलायम सिंह और बिहार की लालू सरकार से अपना समर्थन वापस लिया तब स्व.राजीव गांधी ने भाजपा के अंध विरोध के चलते उन दोनों सरकारों को कांग्रेस का समर्थन देकर गिरने से तो बचा लिया किंतु पार्टी उक्त दोनों राज्यों में जो कमजोर हुई तो आज तक घुटनों के बल चलने की स्थिति में बनी हुई है। बाकी गैर कांग्रेसी विपक्षी दल भी यदि कमजोर होते जा रहे हैं तो उसकी वजह मुख्य धारा से अलग बहने की उनकी नीति है। रास्वसंघ , विहिप और भाजपा बीते कई दशक से अपना जनाधार बढ़ाने में जुटे हुए हैं। राम मंदिर पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का इंतजार किए बिना ही अयोध्या में कारसेवकपुरम नामक स्थान पर पत्थरों की गढ़ाई का काम निरंतर चलता रहा। उसी का परिणाम है कि फैसला आने के बाद इतनी जल्दी मंदिर निर्माण संभव हो सका। दूसरी तरफ सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आने के बाद भी भाजपा विरोधी मंदिर निर्माण का श्रेय उससे छीनने में जुटे रहकर अपनी समूची शक्ति व्यर्थ गंवाते रहे। यही कारण है कि आज जब पूरे देश में राम नाम का उद्घोष हो रहा है और पूरी दुनिया में फैले करोड़ों सनातनी 22 जनवरी को लेकर उत्साहित हैं तब समूचा विपक्ष कुंठाग्रस्त होकर बैठा हुआ है । इसे लेकर उसके भीतर भी विरोध फूटने लगा है जिसका देर – सवेर खुलकर बाहर आना तय है। कहते हैं ठोकर खाने के बाद व्यक्ति संभल जाता है किंतु राम मंदिर जैसे बेहद महत्वपूर्ण मुद्दे पर इस तरह की अविवेकपूर्ण राजनीति करते हुए विपक्ष ने भाजपा को मानो थाली परोसकर दे दी है।