वादे लपेट लीजिए लंगोटी नहीं तो क्या ….

वादे लपेट लीजिए लंगोटी नहीं तो क्या ….
वादे लपेट लीजिए लंगोटी नहीं तो क्या ….

संपादकीय- रवीन्द्र वाजपेयी

चुनावी घोषणापत्र यूं तो विभिन्न विषयों पर केंद्रित होता है किंतु हर वर्ग उसमें से अपने मतलब की बात पर ध्यान देते हुए ये मन बनाता है कि अपना मत किसे दे ? राजनीतिक दलों के अलावा जो निर्दलीय प्रत्याशी लड़ते हैं वे भी मतदाता के सामने कुछ वायदे परोसते हैं। हालांकि इस सबसे अलग हमारे देश में कुछ प्रत्याशी भावनात्मक मुद्दों पर भी चुनाव लड़ते और जीतते हैं। इनमें जाति , धर्म और क्षेत्रीय भावनाओं के साथ ही व्यक्तिगत मान – अपमान प्रमुख होता है। कुछ जातिगत और धार्मिक पार्टियां बिना वायदे के भी जीतती रहती हैं क्योंकि उनका जनाधार कुछ अलग ही किस्म का होता है। उ.प्र और बिहार में अनेक ऐसे विधायक और सांसद बने जो अपराधी सरगना होने के बावजूद जीतते रहे जिसके पीछे उनका आतंक और धनबल मुख्य वजह बना। इसके ठीक विपरीत अनेक सुशिक्षित , पेशेवर , समाजसेवी चुनाव मैदान में बुरी तरह पराजित हुए । उल्लेखनीय है विश्विख्यात अर्थशास्त्री की छवि के बावजूद डा.मनमोहन सिंह दक्षिण दिल्ली से लोकसभा चुनाव हार गए थे । लोगों को सफलता का मंत्र देने वाले शिव खेड़ा भी जमानत गंवाने का स्वाद चख चुके हैं । इंफोसिस जैसी कंपनी के स्तंभ कहे जाने वाले देश के विख्यात और सम्मानित उद्योगपति नंदन नीलेकणी को बेंगलुरु की जनता ने हरा दिया। जबकि अतीक अहमद , अफजाल अंसारी , शहाबुद्दीन और पप्पू यादव जेल में रहकर भी जीत जाते थे। कुल मिलाकर देखें तो चुनावी जीत का कोई निश्चित और कालजयी फार्मूला नहीं है। इसीलिए चुनावी घोषणापत्र के प्रति उनको जारी करने वाले राजनीतिक दल भी गंभीर नहीं रहे। इसी तरह वचन पत्र के प्रति वचनबद्ध होना जरूरी नहीं समझा जाता। चुनावी वायदे करने वाली पार्टियां भी उनको भूल जाती हैं और कुछ समय बाद मतदाता भी। यही कारण है कि चुनाव दर चुनाव वही बातें दोहराए जाने के बाद भी कोई ये पूछने वाला नहीं है कि पिछली बार जो कहा था , उसे पूरा क्यों नहीं किया गया? विशेष रूप से सत्ता में रही पार्टी को तो नए वायदे करने से पहले पुरानों का लेखा – जोखा पेश करना ही चाहिए। इस बारे में सर्वोच्च न्यायालय भी अनेक मर्तबा टिप्पणी कर चुका है कि चुनावी घोषणा या वचन पत्र को कानूनी स्वरूप दिया जाए किंतु चुनाव आयोग और राजनीतिक पार्टियां इस बारे में पूरी तरह उदासीन नजर आती हैं । आजादी के 75 साल बाद भी हमारे राजनीतिक दल यदि विश्वानीयता की कसौटी पर अपने को साबित नहीं कर पाए तो इसके लिए चुनावी वायदों के प्रति ईमानदारी का अभाव ही है। लाखों और करोड़ों लोगों को रोजगार देने का वायदा तो कर दिया जाता है किंतु सत्ता मिलते ही उसकी तरफ ध्यान देने की जरूरत नहीं समझी जाती। बिहार विधानसभा के पिछले चुनाव में तेजस्वी यादव ने वायदा किया था कि सत्ता संभालते ही 10 लाख बेरोजगारों को नौकरी देंगे। हालांकि उस समय उनकी सरकार नहीं बनी किंतु बीच में नीतीश कुमार का साथ मिल जाने से वे सरकार में तो आ गए किंतु उनको अपना वह वायदा पूरा करने में नानी याद आ गई। हालांकि ये अकेला उदाहरण नहीं है जहां कोई राजनीतिक दल या नेता अपने वायदे से साफ मुकर गया हो। हमारे देश में घोषणापत्र की गंभीरता और पवित्रता का ध्यान रखना चूंकि कानूनन आवश्यक नहीं है इसलिए उनको एक रस्म अदायगी मान लिया गया है। बीते कुछ वर्षों से चुनावी साल में सरकारी खजाना लुटाने का रिवाज बन गया है और इस बारे में सभी राजनीतिक दल तकरीबन एक जैसे हैं । ये देखते हुए समय आ गया है जब चुनावी वायदों की जवाबदेही निश्चित की जाए। लोकतंत्र को सार्थकता प्रदान करने के लिए राजनेताओं और पार्टियों की प्रामाणिकता असंदिग्ध होना चाहिए। इसके लिए चुनाव पूर्व आसमानी वायदे करने के बाद तरह – तरह के बहाने बनाकर उनको पूरा करने से बचते रहने का चलन बंद होना जरूरी है। चूंकि इस बारे में किसी भी तरह का कानूनी बंधन नहीं है इसलिए ऐसे – ऐसे वायदे कर दिए जाते हैं जिनको पूरा करना असम्भव होता है। हर पार्टी आरक्षण को लेकर चुनाव में तो आश्वासन बांट देती है जबकि उसे पता होता है कि सर्वोच्च न्यायालय ने उसकी सीमा तय कर रखी है और पहले से ही अनेक मामले उसके समक्ष विचाराधीन हैं । आशय यही है कि चुनावी वायदों की गरिमा तभी कायम रह सकेगी जब उन्हें पूरा करने की बाध्यता हो और उनका पालन किसी कारणवश न हो सके तो संबंधित नेता और पार्टी को उसका समुचित कारण भी सार्वजनिक करना चाहिए । वरना किसी शायर की ये पंक्तियां दोहराई जाती रहेंगी :-
सब कुछ है मेरे देश में रोटी नहीं तो क्या,
वादे लपेट लीजिए लंगोटी नहीं तो क्या।