जनमत – रवीन्द्र वाजपेयी  नीतीश और भाजपा दोनों को एक दूसरे की जरूरत थी

जनमत – रवीन्द्र वाजपेयी      नीतीश और भाजपा दोनों को एक दूसरे की जरूरत थी
जनमत – रवीन्द्र वाजपेयी      नीतीश और भाजपा दोनों को एक दूसरे की जरूरत थी

 

 

लालू कुनबे के जेल जाने की संभावना भी बनी बड़ा कारण

 

आज सुबह तक जो अनिश्चितता बनी हुई थी वह दोपहर आते – आते खत्म हो गई। नीतीश कुमार ने बिहार के मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया। शाम तक भाजपा और जीतनराम मांझी की पार्टी के सहारे वे दोबारा सरकार बना लेंगे। नई सरकार में जद (यू) के साथ अब भाजपा और श्री मांझी के विधायक बतौर मंत्री दिखाई देंगे। इंडी नामक विपक्षी गठबंधन को जन्म देने वाले नीतीश ने जाति आधारित जनगणना करवाकर भाजपा के लिए चिंताजनक हालात उत्पन्न कर दिए थे। राहुल गांधी तो इसे 2024 के लोकसभा चुनाव का मुख्य मुद्दा बनाने में जुट गए। हालांकि म.प्र, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में यह मुद्दा कारगर नहीं रहा किंतु इतना तो माना ही जा सकता था कि नीतीश विपक्षी गठबंधन के सबसे प्रमुख नेता के तौर पर राष्ट्रीय परिदृश्य पर उभर रहे थे। उनको गठबंधन के संयोजक पद के अलावा प्रधानमंत्री पद का चेहरा बनाए जाने की संभावना भी काफी प्रबल थी। इंडी की पिछली बैठक में संयोजक का मसला तो अनिर्णीत ही रहा किंतु ममता बैनर्जी ने प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी के मुकाबले कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे का नाम उछालकर नया दांव चल दिया। अरविंद केजरीवाल द्वारा उसका समर्थन करना भी चौंकाने वाला रहा। यद्यपि श्री खरगे ने उक्त प्रस्ताव पर सहमति नहीं दी लेकिन नीतीश को ये खटक गया कि तेजस्वी यादव के अलावा अखिलेश यादव ने भी ममता के प्रस्ताव का विरोध नहीं किया। उन्हें अपेक्षा थी कि सोनिया गांधी तो कम से कम ममता की पहल को महत्व नहीं देंगी किंतु उन्होंने भी मौन साधे रखा। इस बात से नीतीश उखड़ गए। उनको ये लगने लगा कि जिस गठबंधन को आकार देने के लिए वे महीनों से जुटे हुए थे और अपने से कनिष्ट नेताओं से भी जा – जाकर मिले , यदि वही उनको उपेक्षित कर रहा है तब उसके साथ रहने में कोई लाभ नहीं होने वाला। इधर बिहार में महागठबंधन के मुख्य घटक राजद की गतिविधियों से भी वे चौकन्ने थे। बीच में ये अटकलें भी लगीं कि जद (यू) के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह भीतर – भीतर लालू के साथ गोटियां बिठाते हुए नीतीश को हटाने की बिसात बिछा रहे थे। इसीलिए नीतीश उनको हटाकर पार्टी अध्यक्ष पद पर खुद आसीन हो गए। और तभी से उनके महागठबंधन से अलग होने की खबरें उड़ने लगीं। हालांकि भाजपा के साथ दोबारा जुड़ना आसान नहीं था क्योंकि बीते लगभग डेढ़ साल में दोनों तरफ से बयानों के जो जहर बुझे तीर चले उनके बाद पुनर्मिलन बेहद मुश्किल लग रहा था। पहले भाजपा नीतीश को लेकर उतनी आक्रामक नहीं होती थी किंतु 2022 के अलगाव के बाद कटुता चरम पर जा चुकी थी। नीतीश ने भाजपा के साथ आने के बजाय मर जाना पसंद करूंगा जैसा बयान दिया तो भाजपा ने जवाब में यहां तक कह दिया कि वे आना भी चाहेंगे तो पार्टी अपने दरवाजे नहीं खोलेगी। लेकिन राजनीति में दोस्ती और दुश्मनी दोनों स्थायी नहीं होतीं वाली उक्ति को सही साबित करते हुए नीतीश और भाजपा एक बार फिर साथ आ गए। लेकिन इस बार ये जुगलबंदी महज बिहार पर असर नहीं डालेगी , अपितु आगामी लोकसभा चुनाव की दृष्टि से इसका प्रभाव राष्ट्रीय राजनीति पर पड़े बिना नहीं रहेगा । जिस विपक्षी गठबंधन को जन्म देने के लिए नीतीश ने जी – जान से मेहनत की उसको उनके इस पैंतरे से जबरदस्त धक्का पहुंचा है क्योंकि तमाम विपक्षी दलों को एक साथ लाने का असली श्रेय उन्हीं को है। ये बात भी सही है कि लालू प्रसाद यादव अपने बेटे तेजस्वी को मुख्यमंत्री बनवाने का दबाव बना रहे थे । यदि नीतीश को इंडी का संयोजक बना दिया गया होता तो वे तेजस्वी की ताजपोशी करवाने राजी भी हो जाते किंतु उस संभावना के कमजोर पड़ते ही उन्होंने मुख्यमंत्री पद न छोड़ने का मन बना लिया। आज त्यागपत्र देने के बाद नीतीश ने आरोप लगाया कि राजद के मंत्री काम नहीं कर रहे थे , इसलिए उन्होंने महागठबंधन तोड़ दिया परंतु इस अलगाव का सबसे बड़ा कारण यह है कि लालू परिवार के अनेक सदस्य ईडी और सीबीआई के शिकंजे में हैं । और कब किसकी गिरफ्तारी हो जाए कोई नहीं जानता। ऐसा होने पर उनकी और सरकार दोनों की छवि खराब होती । नीतीश को ये बात अच्छी तरह पता है कि भले ही लगातार पलटी मारने के कारण उनको पलटूराम कहा जाने लगा हो किंतु भ्रष्टाचार के मामले में वे आज भी बेदाग हैं और यही उनकी सबसे बड़ी पूंजी है। भाजपा ने भी उनकी इसी खासियत के कारण न चाहते हुए भी एक बार फिर गले लगाया। ये बात भी सही है कि शुरुआत में नीतीश को बिहार की सत्ता के उच्च शिखर पर पहुंचाने में भाजपा ही बतौर सीढ़ी काम आई। लालू के साथ तो उनका गठजोड़ केंद्र की राजनीति में श्री मोदी के प्रवेश की प्रतिक्रिया स्वरूप हुआ किंतु उसे छोड़कर भी वे एक बार भाजपा के साथ लौटे थे। दरअसल आज के नीतीश में वह दमखम नहीं रहा गया था कि वे लालू कुनबे के दबाव को झेल पाते । ऐसे में उन्हें अपने बचे हुए राजनीतिक जीवन में सुरक्षित ही नहीं सम्मानजनक स्थिति की जरूरत थी जिसके लिए भाजपा ही सर्वोत्तम विकल्प था जो बिहार में वह एक बड़ी वैकल्पिक ताकत बन चुकी है । और उसे भी जातीय समीकरणों के लिहाज से किसी बड़े चेहरे की जरूरत थी जो नीतीश से बेहतर दूसरा नहीं हो सकता था। नीतीश के इस कदम ने भाजपा को चिंता से उबार लिया है वहीं लालू के साथ ही कांग्रेस और अंततः इंडी गठबंधन के लिए अपशकुन उत्पन्न कर दिया । बिहार में हुए परिवर्तन के बाद लालू और उनके परिवार से सत्ता रूपी सुरक्षा चक्र छिन गया है। इसके बाद जांच एजेंसियों को उनकी घेराबंदी करना आसान हो जाएगा । दूसरी तरफ इंडी गठबंधन में भी तेजस्वी की वजनदारी हल्की हो जायेगी। राजद के अनेक नेता सुरक्षित भविष्य की तलाश में अब भाजपा या जद (यू) में संभावनाएं तलाश सकते हैं। भाजपा के हाथ में उ.प्र से सटा एक बड़ा राज्य और आ आने से झारखंड , प.बंगाल और उड़ीसा में भी एनडीए को जबरदस्त लाभ होना तय है। कांग्रेस के लिए ये बदलाव बड़ा धक्का है क्योंकि अब ये आवाज चारों तरफ से उठने लगी है कि विपक्षी गठबंधन के मजबूत न होने के लिए राहुल गांधी का लापरवाह रवैया ही जिम्मेदार है। जिन्होंने न्याय यात्रा निकालने के पहले इंडी के घटक दलों से कोई सहमति नहीं ले। बीते दो – तीन दिनों के भीतर इस गठबंधन को जिस तरह के झटके लगे हैं उनसे ये आशंका मजबूत होती जा रही है कि लोकसभा चुनाव आते – आते तक विपक्षी दलों की एकता में और भी दरारें आएंगी। हो सकता है न्याय यात्रा खत्म होते – होते कुछ और धक्के इस गठबंधन को लग जाएं क्योंकि इसमें शामिल दलों में न साम्यता और न ही समन्वय।