संपादकीय- रवीन्द्र वाजपेयी
देश का राजनीतिक विमर्श एक बार फिर जाति के मकड़जाल में आकर उलझ गया है। बिहार की नीतीश सरकार ने सामाजिक न्याय की अगुआई करने के लिए जातिगत जनगणना का जो दांव चला उससे ओबीसी के भीतर अति पिछड़ी और आर्थिक दृष्टि से कमजोर जातियों की उपेक्षा का मसला उठ खड़ा हुआ है। इसका तात्कालिक असर ये होगा कि ओबीसी के भीतर भी वर्ग संघर्ष की स्थिति पैदा हो सकती है। बिहार को ही लें तो तो वहां यादव सबसे बड़े जातीय समूह के रूप में सामने आए किंतु आर्थिक दृष्टि से बेहद कमजोर होने के साथ ही सामाजिक और राजनीतिक तौर पर उपेक्षित पिछड़ी जातियों की कुल संख्या यादवों से कहीं ज्यादा है।अब तक देखने में ये मिलता रहा कि राजनीतिक सत्ता पर यादवों का प्रभाव ज्यादा रहा । लालू प्रसाद यादव का समूचा कुनबा नव सामंतवादी व्यवस्था का पर्याय बन गया। अर्थात मंडल आयोग की सिफारिशों का अधिकतम लाभ इस जाति के लोगों ने न सिर्फ बिहार अपितु उ.प्र में भी बटोरा जहां जिला पंचायत से लेकर तो संसद तक में स्व.मुलायम सिंह यादव के परिवार के लोग बैठे नजर आएंगे। अब जबकि जातिगत जनगणना के आंकड़े आ गए हैं तब मंडलवादी नेताओं के माथे पर पसीने की बूंदें छलछलाने लगी हैं क्योंकि जिस तरह महादलित जैसी नई श्रेणी सामने आई उसी तरह से अब अति पिछड़ी जातियों की संख्या भी स्पष्ट हो चली है। आरक्षण के भीतर आरक्षण की मांग करने वाले ओबीसी नेताओं को ये डर सताने लगा है कि कहीं अति पिछड़ी और आर्थिक दृष्टि से कमजोर जातियां गोलबंद हो गईं तो प्रभावशाली पिछड़े नेताओं की जमीन खिसकने लगेगी। ये आशंका गलत भी नहीं है क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गरीबी को ही आरक्षण का आधार बनाए जाने का मुद्दा छेड़ दिया है। जो लोग जातिगत जनगणना को विपक्ष का तुरुप का पत्ता मान बैठे थे उन्हें भी अपनी राय बदलने बाध्य होना पड़ रहा है क्योंकि केंद्र सरकार ने आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग को आरक्षण और उससे जुड़े लाभ देने की पहल कर दी तो जातिगत जनगणना का पूरा खेल उलट जावेगा। वैसे भी अब ये कहा जाने लगा है कि जातिगत आरक्षण के अपेक्षित परिणाम नहीं निकले , उल्टे समाज टुकड़ों में विभाजित होता जा रहा है। जब तक अनु. जाति और जनजाति ही आरक्षण के अंतर्गत रहीं तब तक तो सामाजिक विद्वेष नहीं बढ़ा किंतु ओबीसी आरक्षण ने सामाजिक स्तर पर जातिगत टकराव और बढ़ा दिया । राजनीतिक दलों के भीतर भी इसे लेकर खेमेबाजी बढ़ी है। सबसे बड़ी बात ये हुई कि राष्ट्रीय दलों के भीतर भी पिछड़ी जातियों के नेताओं में आलाकमान पर दबाव बनाने की प्रवृत्ति नजर आने लगी। जातिगत जनगणना को ही लें तो उसके बारे में जिस तरह की प्रतिक्रियाएं सुनाई दे रही हैं उनसे स्पष्ट है कि आरक्षण को लेकर पार्टियों के भीतर भी खींचातानी चल पड़ी है । लेकिन इस विवाद के बीच एक बात अच्छी हो रही है कि ओबीसी की सियासत करने वाले छत्रप भी ये भांप गए हैं कि आर्थिक दृष्टि से कमजोर तबके को मदद पहुंचाए बिना आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था को जारी रखना मुश्किल हो जाएगा । बीते तीन दशक में देश की सामाजिक स्थिति में जो बदलाव हुआ उसे देखते हुए आर्थिक आरक्षण को बेहतर विकल्प मानने वाले बढ़ रहे हैं। प्रधानमंत्री श्री मोदी ने सामाजिक कल्याण की जितनी भी योजनाएं प्रारंभ कीं उनका केंद्र गरीबी रही न कि जाति। मुफ्त और सस्ता अनाज , आवास , रसोई गैस , किसान कल्याण , शौचालय जैसी योजनाओं में जाति को आधार नहीं बनाए जाने से सामाजिक तौर पर ईर्ष्या नहीं पनप सकी। आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग के लिए आरक्षण की जो नीति बनी उसका भी सकारात्मक प्रभाव हुआ। जातिगत आरक्षण के समर्थकों को ये बात समझ लेनी चाहिए कि सरकारी नौकरी दिन ब दिन कम होती जा रही हैं। जो राहुल गांधी केंद्रीय सचिवालय में ओबीसी सचिवों की बेहद कम संख्या को मुद्दा बनाए हुए घूम रहे हैं वे शायद भूल गए कि उनकी ही पार्टी के प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह ने सरकार का आकार छोटा करने की शुरुआत करते हुए निजी क्षेत्र को काम सौंपने की शुरुआत की थी। उसी के बाद स्व.रामविलास पासवान ने निजी क्षेत्र में भी आरक्षण की मांग उछाली । यद्यपि उसे ज्यादा बल नहीं मिला। आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा को शिकस्त देने बनाए गठबंधन के पास चूंकि प्रधानमंत्री की टक्कर का दूसरा नेता नहीं है इसलिए उन्होंने जातिगत जनगणना को मुद्दा बनाने का दांव चल तो दिया लेकिन जैसे संकेत आ रहे हैं उनसे लगता है भाजपा आर्थिक दृष्टि से कमजोर तबके को केंद्र में रखकर इसे नई दिशा दे सकती है। जहां तक बात नौकरी और चुनावी टिकिट की है तो उसकी तुलना में समाज का बड़ा तबका आर्थिक दृष्टि से मदद का आकांक्षी है। ऐसे में यदि केंद्र सरकार ऐसे कदम उठाती है जिनसे समाज का गरीब वर्ग लाभान्वित हो तो उससे सामाजिक विद्वेष तो कम होगा ही , आरक्षण की आड़ में की जाने वाली सौदेबाजी पर भी लगाम लगेगी।