सनातन धर्म के धर्माचार्यों के बीच सामंजस्य बेहद जरूरी 

सनातन धर्म के धर्माचार्यों के बीच सामंजस्य बेहद जरूरी 
सनातन धर्म के धर्माचार्यों के बीच सामंजस्य बेहद जरूरी 

 

 

शंकराचार्य का पद बेहद सम्मानित है किंतु जब वे गद्दी के लिए एक दूसरे पर व्यक्तिगत आरोप लगाते हैं तब इस पद की गरिमा कम होती है। ज्योतिष्पीठ के शंकराचार्य को लेकर ब्रह्मलीन स्वामी स्वरूपानंद जी और स्वामी वासुदेवानंद जी के बीच मुकदमा सर्वोच्च न्यायालय तक गया जिसने फैसला स्वरूपानंद जी के पक्ष में दिया। उनकी मृत्यु के बाद स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी को उनका उत्तराधिकारी बनाने के घोषणा हुई जिस पर वासुदेवानंद जी ने आपत्ति उठाते हुए खुद को उस पीठ का शंकराचार्य घोषित कर दिया। यही नहीं तो गोवर्धन पीठ के जगद्गुरु स्वामी निश्चलानंद जी ने भी उनकी नियुक्ति पर ऐतराज जताया। ये मामला भी अदालत में गया। यहां तक कि अविमुक्तेश्वरानंद जी की जाति पर भी सवाल उठा दिए गए। दुख की बात ये है कि जो धर्माचार्य स्वयं को सनातन धर्म का सबसे बड़ा संरक्षक और प्रवक्ता बताते हैं वे पदवी और उससे जुड़ी धन – संपत्ति का अधिकार पाने के लिए अदालत में शपथपत्र दाखिल करते हैं। होना तो ये चाहिए कि सनातन धर्म के धर्माचार्यों के बीच होने वाले इस प्रकार के विवादों का हल करने के लिए धर्म संसद या अखाड़ा परिषद जैसी किसी संस्था के निर्णय को अंतिम माना जाए। उल्लेखनीय है स्वामी स्वरूपानंद जी और वासुदेवानंद जी के शिष्य भी आपस में बंटे हुए थे। हाल ही में निश्चलानंद जी ने भी शंकराचार्यों की बढ़ती संख्या पर नाराजगी व्यक्त की थी। कुंभ मेले में महामंडलेश्वर का पद प्राप्त अनेक साधु – संन्यासी विवादग्रस्त हुए। आद्य शंकराचार्य ने मूल रूप से चार पीठ बनाई थीं। कालांतर में धर्म प्रचार की सुविधा और बेहतर प्रबंधन को ध्यान रखते हुए अनेक उप पीठ बनाई गईं। लेकिन इसकी आड़ में अनेक स्वयंभू शंकराचार्य भी पनपे जिनकी प्रामाणिकता को लेकर प्रमुख धर्माचार्य भी आपस में उलझते रहे। यहां तक कि कुंभ मेले के दौरान स्थान आवंटन के अलावा शाही स्नान जैसे अवसरों पर महत्व को लेकर मतभेद अप्रिय रूप ले लेते हैं। कहने का आशय ये कि सांसारिक मोह – माया को त्यागने का उपदेश देने वाले साधु – संत भी जब साधारण लोगों की तरह आरोप – प्रत्यारोप में उलझ जाते हैं तो उससे उनके प्रति श्रद्धा में कमी आती है। जगद्गुरु संबोधन ही अपने आप में सम्मान का भाव उत्पन्न करने वाला होता है परंतु जब इस पद को हासिल करने के लिए भी होड़ मचती है तब इसकी प्रतिष्ठा में ह्रास होना स्वाभाविक है । और इस पदवी से वंचित रह जाने वाले जब अपनी कुंठा व्यक्त करते हैं तब उनमें और एक साधारण इंसान के बीच का फर्क समाप्त हो जाता है। वर्तमान में राम जन्मभूमि पर निर्मित मंदिर के शुभारंभ समारोह में नहीं जाने को लेकर शंकराचार्य काफी चर्चाओं में हैं। उनमें से एक दो खुलकर बयानबाजी भी कर रहे हैं। दावा किया जा रहा है कि 22 जनवरी को अयोध्या में होने जा रहे आयोजन में नहीं जाने के लिए चारों मुख्य शंकराचार्य एक मत हैं। लेकिन इनके बीच की ये एकता भी इस विशिष्ट मुद्दे पर तो नजर आ रही है किंतु जो मतभेद अन्य मुद्दों पर उनके बीच हैं क्या वे भी इसी तरह सुलझ जायेंगे ये बड़ा सवाल है। बीते कुछ दिनों में शंकराचार्य जिस प्रकार राष्ट्रीय परिदृश्य पर उभरे वह इस लिहाज से अच्छा है कि समस्त प्रमुख धर्माचार्य पूरी तरह सक्रिय हैं। अन्यथा सोशल मीडिया पर ये सवाल तेजी से उठाए जा रहे हैं कि महत्वपूर्ण मुद्दों पर ये मौन ही रहते हैं। धार्मिक विषयों पर हुए अनेक आंदोलनों में शंकराचार्यों की अनुपस्थिति को लेकर भी आलोचनात्मक टिप्पणियां सुनाई दे रही हैं। ऐसे में अब ये जरूरी हो गया है कि सनातन धर्म से जुड़े जितने भी प्रमुख धर्माचार्य हैं वे सब आपसी तालमेल बनाएं और किसी भी बड़े मामले में अपनी राय समय रहते दें। राम मंदिर के मामले में बात जब मूर्तियां रखने तक आ गई तब आपत्तियां व्यक्त करने से विशाल हिंदू समाज पक्ष – विपक्ष में विभाजित होने लगा है। लोगों में इस बात की चर्चा है कि शंकराचार्य एक ऐतिहासिक आयोजन के विरोध में मात्र इसलिए एकजुट हो गए क्योंकि उन्हें उनकी अपेक्षानुसार महत्व नहीं मिला। अब एक बात तो तय है कि 22 जनवरी का कार्यक्रम यथावत रहेगा और ये भी कि इसमें शामिल न होकर चारों प्रमुख शंकराचार्य फिलहाल तो अलग – थलग पड़ जायेंगे क्योंकि हिन्दुओं का बहुमत इस आयोजन से उत्साहित और प्रफुल्लित है। हालांकि ये स्थिति अच्छी इसलिए नहीं है क्योंकि सनातन विरोधी मानसिकता वाले वर्ग को इस विवाद के बहाने अपना उल्लू सीधा करने का अवसर मिल रहा है। सबसे बड़ी बात ये है कि शंकराचार्यों द्वारा व्यक्त जी जा रही आपत्तियों को सभी धर्मगुरुओं का समर्थन नहीं मिल रहा।