उत्तराखंड विधानसभा ने समान नागरिक संहिता विधेयक पारित कर दिया। इसके साथ ही अब ये संभावना है कि भाजपा शासित अन्य राज्य भी इस दिशा में कदम बढ़ा सकते हैं। दरअसल स्व.राजीव गांधी के शासनकाल में सर्वोच्च न्यायालय ने शाह बानो के पक्ष में गुजारा भत्ता संबंधी जो फैसला सुनाया था वह समान नागरिक संहिता की मांग को तेज करने का आधार बना। बाद में जब राजीव सरकार द्वारा संसद में उक्त फैसले को रद्द करवा दिया गया तो उसके समर्थकों को जबरदस्त हथियार हाथ लग गया। सच तो ये है कि स्व.गांधी को जितना राजनीतिक नुकसान बोफोर्स कांड ने पहुंचाया उतना ही शाह बानो वाले फैसले को पलटने से पहुंचा । उसके बाद देश में मिली – जुली सरकारों का दौर चलता रहा । लेकिन 2014 में नरेंद्र मोदी की जो सरकार बनी उसे स्पष्ट बहुमत हासिल होने के कारण भाजपा अपने मुख्य नीतिगत मुद्दों पर आगे बढ़ी। तीन तलाक , धारा 370 और राम मंदिर के मामले में सफलता प्राप्त होने के बाद अब समान नागरिक संहिता ही शेष है। रोचक बात ये है। कि इसके पक्ष और विपक्ष दोनों में प्रस्तुत याचिकाओं को सर्वोच्च न्यायालय ने ये कहते हुए रद्द कर दिया कि यह संसद के क्षेत्राधिकार का विषय है। ये भी महत्वपूर्ण है कि उत्तराखंड भले समान नागरिक संहिता लागू करने वाले पहले राज्य के तौर पर प्रचारित हो रहा हो किंतु गोवा में तो यह पुर्तगाली शासन के समय से ही लागू है। और यह भी कि उसका न मुस्लिम विरोध करते हैं और न ही ईसाई। लेकिन देश के अन्य राज्यों में समान नागरिक संहिता लागू करने का मुस्लिम समाज ये कहकर विरोध करता है कि पर्सनल लॉ से छेड़छाड़ उनके धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप होगा जो संविधान में अल्पसंख्यकों को प्रदत्त सुरक्षा के मद्देनजर अनुचित है। लेकिन संविधान में सभी नागरिकों के साथ समान व्यवहार की बात भी तो कही गई है। संविधान सभा में इस विषय पर उस समय के दिग्गज नेताओं ने भी खुलकर अपने विचार रखे थे। ये मुद्दा शायद कभी नहीं उठता यदि पंडित नेहरू की सरकार ने हिंदू विवाह , उत्तराधिकार , पैतृक संपत्ति सहित कुछ और कानूनों में रद्दोबदल न किया जाता। हिन्दू कोड बिल को लेकर कांग्रेस में भी अंतर्विरोध थे। डा. आंबेडकर द्वारा जब इसे पेश किया गया तब यह संसद में पारित न हो सका जिस पर उन्होंने मंत्री पद छोड़ दिया। संविधान सभा के अध्यक्ष के तौर पर भी डा.राजेंद्र प्रसाद उसके पक्ष में नहीं थे। अंततः 1955 में अनेक टुकड़ों में उसे पारित करवा लिया गया। कांग्रेस में जो हिंदूवादी नेता उस दौर में थे वे भी नेहरू जी के आभामंडल के सामने ज्यादा कुछ न कर सके। उसी के बाद से हिंदूवादी संगठनों ने ये कहना शुरू कर दिया कि जब बहुसंख्यक होने के बाद भी हिंदुओं के पर्सनल लॉ में सुधार के नाम पर बदलाव किया गया तब मुस्लिम पर्सनल लॉ को समयानुकूल बनाने में सरकार पीछे क्यों रही? जनसंघ के उदय के बाद से ही समान नागरिक संहिता की मांग लगातार उठती आ रही है जो 2014 के बाद से और तेज हो गई। उत्तराखंड की पहल के बाद अब यह मुद्दा और जोर पकड़ेगा। हो सकता है लोकसभा चुनाव में भी यह भाजपा के प्रचार का हिस्सा बने। प्रधानमंत्री श्री मोदी ने लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण का उत्तर देते हुए कहा भी कि अपने तीसरे कार्यकाल में उनकी सरकार कुछ कड़े और बड़े फैसले लेगी। जाहिर है समान नागरिक संहिता उनमें से एक होगी। वैसे अनेक मुस्लिम देशों में एक से अधिक विवाह , तलाक , हलाला , संपत्ति में उत्तराधिकार जैसे अनेक मामलों में बदलाव किया जा चुका है , जिनमें पाकिस्तान भी एक है। भारत में चूंकि मुसलमान वोट बैंक बनकर रह गए हैं इसलिए उनके तुष्टीकरण का खेल चलता रहा। लेकिन उनकी सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति को सुधारने के दिशा में वे नेता कुछ नहीं करते जो उनके वोट के बलबूते पर राजनीति चलाया करते हैं। मुस्लिम समुदाय को चाहिए कि वह समाज सुधार की प्रक्रिया के प्रति खुले मन से आगे आए। उसे ये देखना और सोचना चाहिए कि जब अनेक इस्लामिक देशों ने सदियों से प्रचलित रीति – रिवाजों को बदलने में संकोच नहीं किया तब भारत जैसे धर्म निरपेक्ष कहे कहे वाले देश में उसका विरोध करने का अर्थ क्या है ? समान नागरिक संहिता में प्रस्तावित किसी बात पर ऐतराज होना तो स्वाभाविक है किंतु उसे सिरे से नकार देना समाज को विकास की राह पर आगे बढ़ने से रोकना ही है। कट्टरपंथी लोग हिंदुओं में भी कम नहीं हैं किंतु उसके बाद भी उनका बहुमत समय की जरूरत के अनुरूप खुद को ढालते रहने के कारण ही तरक्की की राह पर आगे निकल गया। समान नागरिक संहिता को इस्लाम विरोधी कहकर उसका अंध विरोध करने की मानसिकता त्यागकर मुस्लिम समाज के समझदार लोगों को खुद होकर पर्सनल लॉ में बदलाव करने की पहल करना चाहिए। ऐसा करने से वे उस पराजयबोध से बच जायेंगे जिसके वे इन दिनों शिकार हैं
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