संपादकीय- रवीन्द्र वाजपेयी
देश की राजधानी दिल्ली में हालात गंभीर हैं। शालाओं में अवकाश घोषित कर दिया गया है। लोग सांस लेने में कठिनाई अनुभव कर रहे हैं। शुद्ध हवा के लिये सैर पर जाने वालों के फेफड़ों में जहर समाने लगा है। अस्थमा से ग्रसित लोगों के लिए ऐसी स्थितियां जानलेवा हो सकती हैं। घरों में तो वायु शुद्ध करने वाले उपकरण लगाए जा सकते हैं किंतु बाहर निकलने पर प्रदूषित सांस ही लेनी पड़ती है। और फिर जो लोग झुग्गियों में रहते हैं उनकी तकलीफ का अंदाजा लगाया जा सकता है। देश का दिल कहे जाने वाले महानगर पर दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित शहर होने का कलंक लग चुका है। बावजूद उसके हालात साल दर साल बद से बदतर होते जा रहे हैं। कभी पंजाब से आने वाले पराली के धुएं तो कभी औद्योगिक इकाइयों से होने वाले प्रदूषण से दिल्ली का वायुमंडल जहर भरा हो जाता है। वाहनों से निकलने वाले धुएं को रोकने के लिए सीएनजी और बैटरी चलित वाहनों के उपयोग को बढ़ावा देने की नीति बनी। 10 वर्ष पुरानी गाड़ियों को सड़क से बाहर करने का प्रावधान भी अस्तित्व में है। मेट्रो ट्रेन चलने से निजी वाहनों का प्रयोग कुछ कम हुआ है। लेकिन बढ़ती आबादी और वाहनों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि की वजह से आगे पाट पीछे सपाट की स्थिति बनती रही है। सर्वोच्च न्यायालय , केंद्र और राज्य सरकार के अलावा तमाम स्वयंसेवी संगठन पर्यावरण सुधारने में लगे हैं । लेकिन परिणाम कुछ नहीं निकल पा रहा। उल्टे स्थितियां खराब हो रही हैं। प्रतिवर्ष इसका हल्ला मचता है । जनहित याचिकाएं लगती हैं । पहले दिल्ली की केजरीवाल सरकार पंजाब को कोसती थी जहां के किसान फसल कटने के बाद खेतों में आग लगा दिया करते हैं। लेकिन अब तो उस राज्य में भी आप आदमी पार्टी की ही सरकार है। ऐसे में अरविंद केजरीवाल और भगवंत सिंह मान दोनों को मिलकर कोई रास्ता निकालना चाहिए। केंद्र सरकार को भी इस समस्या के स्थायी समाधान के प्रति गंभीर होना पड़ेगा। वैसे ये समस्या पूरे देश की है। चंडीगढ़ जैसे कुछ शहर ही अपवाद हैं जहां प्रदूषण काफी हद तक नियंत्रित है । अन्यथा क्या मुंबई और क्या कोलकाता , सभी में हालात संगीन हो रहे हैं। मुंबई में में वरली सी फेस के पास समुद्र से आने वाली बदबू वहां से निकलने वालों की नाक में घुसे बिना नहीं रहती। कोलकाता के कंधे तो आबादी के बोझ से पहले से ही दबे जा रहे हैं। दो दशक पहले तक बेंगुलुरु जैसे महानगर का मौसम बेहद खुशनुमा हुआ करता था किंतु सायबर सिटी बनने का गौरव हासिल होने के साथ ही वहां का पर्यावरण खराब होने लगा । वाहनों की कतारें और उनके धुएं ने पुराने मैसूर रियासत की इस ग्रीष्मकालीन राजधानी के मौसम का सत्यानाश कर डाला। दुर्भाग्य से पर्यावरण संरक्षण को लेकर होने वाला समूचा कर्मकांड दिखावा होकर रह गया है। जब देश की राजधानी के वाशिंदे ज़हर भरी सांसें लेने बाध्य हैं तब बाकी की क्या दशा होगी ? लेकिन सबसे बड़ी बात ये है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी या नेता प्रदूषण के विरुद्ध लड़ाई को मुख्य मुद्दा नहीं बनाता। मोदी सरकार के परिवहन मंत्री नितिन गडकरी जरूर बैटरी चालित वाहनों के अलावा पेट्रोल में एथनाल मिलाए जाने और हाइड्रोजन को पेट्रोल – डीजल का विकल्प बनाए जाने जैसे उपायों के प्रति गंभीर हैं किंतु बाकी राजनेता उदासीन नजर आते हैं । ये भी सही है कि जनता भी ऐसे मुद्दों पर जागरूक नहीं है। यही कारण है कि आज तक एक भी चुनाव , प्रदूषण दूर करने के नाम पर नहीं हुआ। वर्तमान में जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं वहां भी मुफ्त खैरात बांटकर मतदाता को लुभाने की प्रतिस्पर्धा चल रही है । कोई नगदी दे रहा है तो कोई सस्ती गैस। मुफ्त बिजली , सायकिल और स्कूटी भी चुनावी वायदों में है । सड़कें , स्कूल , अस्पताल जैसी सुविधाओं का भी जिक्र हो रहा है। लेकिन पर्यावरण संरक्षण कहीं भी चर्चा का विषय नहीं है। दरअसल जनता की इन विषयों में रुचि न होने से नेता भी इस तरफ ध्यान नहीं देते। दिल्ली के मतदाताओं ने आम आदमी पार्टी को विधानसभा और नगर निगम में जिताया । वहीं लोकसभा सीटों पर भाजपा का एकाधिकार चला आ रहा है। दोनों पार्टियां अलग – अलग मुद्दों पर जनता का समर्थन हासिल करती रही हैं किंतु दिल्ली की हवा को प्रदूषण से मुक्त करवाने की प्रतिबद्धता दोनों ने नहीं दर्शाई। औद्योगिकीकरण और आबादी , प्रदूषण का बड़ा कारण है। सुख – सुविधाओं से भरी जीवन शैली भी पर्यावरण को क्षति पहुंचाती है। समस्या क्यों और कैसे है , इस बारे में जानकारी सभी को है किंतु उसे दूर करने के लिए आगे कोई नहीं आना चाहता । आजादी मिले 75 साल से ज्यादा बीत गए किंतु आज भी जनता को न शुद्ध पीने का पानी नसीब है और न ही हवा । बड़ी बात नहीं भविष्य में होने वाले चुनावों में वायु शुद्ध करने वाले उपकरण (एयर प्योरीफायर) भी चुनावी उपहारों की सूची में शामिल हो जाएं।