इलेक्टोरल बॉण्ड पर रोक के बाद राजनीतिक चंदे में काले धन की मात्रा बढ़ेगी

इलेक्टोरल बॉण्ड पर रोक के बाद राजनीतिक चंदे में काले धन की मात्रा बढ़ेगी
इलेक्टोरल बॉण्ड पर रोक के बाद राजनीतिक चंदे में काले धन की मात्रा बढ़ेगी

 

किसने कितने मूल्य के इलेक्टोरल बॉण्ड खरीदे और किस राजनीतिक दल को उनमें से कितने का चंदा मिला ये तो सामने आ गया। हालांकि , समूचा लेन – देन सफेद धन से हुआ इसलिए देने और लेने वाले ने उसे अपने आय – व्ययक में दर्शाया भी। चुनाव आयोग को राजनीतिक दलों से मिली अधिकृत जानकारी में उनको मिलने वाले चन्दे के साथ ही उसका जरिया अर्थात बॉण्ड , चेक या नगद का भी उल्लेख होता है। इसी तरह जो भी व्यक्ति, संस्था , व्यवसायिक या औद्योगिक प्रतिष्ठान राजनीतिक दल को सफेद धन से चंदा देते हैं , वे उसे खाते – बही में बाकायदा दर्ज करते हैं। टाटा समूह चंदा देने का काम एक न्यास के जरिये करता है। जब इलेक्टोरल बॉण्ड का मसला उठा तब एक बात तो तय थी कि दिये और लिये गए चन्दे का हिसाब – किताब दोनों पक्षों द्वारा रखा गया है। जिस भारतीय स्टेट बैंक को इलेक्टोरल बॉण्ड बेचने अधिकृत किया गया उसने भी बॉण्ड खरीदने वाले की पहिचान के दस्तावेज हासिल करने के बाद ही उनको जारी किया। इसके बाद हुए लेन – देन में दोनों पक्षों की पहचान उजागर नहीं हुई और यही विवाद का कारण है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसी आधार पर बॉण्ड को असंवैधानिक निरूपित करते हुए रद्द किया कि चंदा देने वाले का नाम गोपनीय रखना लोकतंत्र को कमजोर करना है। सर्वोच्च न्यायालय के दबाव के बाद स्टेट बैंक ने ये तो बता दिया कि किसने, कितने बॉण्ड खरीदे। ये जानकारी भी आ गई कि किस राजनीतिक दल को कितना चंदा प्राप्त हुआ किंतु यह जानकारी बैंक ने नहीं दी कि बॉण्ड खरीदने वाले ने किस राजनीतिक दल को कितना चंदा दिया ? विपक्ष का आरोप है कि केंद्र सरकार ने सीबीआई और ईडी का डर दिखाकर भाजपा को खूब चंदा दिलवाया। बॉण्ड खरीदने और उक्त एजेंसियों द्वारा छापे की तारीख के आधार पर उक्त आरोप प्रथम दृष्ट्या सही भी लगता है किंतु जब तक बैंक द्वारा ये नहीं बताया जायेगा कि कौन सा बॉण्ड किसके हिस्से में आया, तब तक कयासों का दौर चलता रहेगा। समूचे विवाद की असली वजह कुल खरीदे गए बॉण्ड से अधिकतर चंदा भाजपा को मिलना है। कांग्रेस दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है किंतु उसको तृणमूल कांग्रेस से कम चंदा मिलना भी चर्चा का विषय बना हुआ है। बॉण्ड का समूचा विवरण सार्वजनिक किये जाने के बाद कौतूहल का विषय ये रह जायेगा कि जिस राजनीतिक दल को बॉण्ड के माध्यम से करोड़ों रुपये मिले, उसने या उसकी सरकार ने चन्दा देने वाले को किस प्रकार से लाभ पहुंचाया? बॉण्ड खरीदने के फौरन बाद कुछ लोगों को मिले ठेके एवं अन्य फायदों से इस तरह के अनेकानेक सवाल उठ खड़े हुए हैं जिनका समुचित और सही उत्तर मिलना जरूरी है। जहाँ तक भाजपा को बॉण्ड के जरिये मिले चंदे का सवाल है तो उसमें हैरत की बात नहीं है। जब तृणमूल, बीजद, द्रमुक और बीआरएस जैसे क्षेत्रीय दलों को अरबों रुपये मिले तब केंद्र के साथ ही देश के अनेक राज्यों में सत्तारूढ़ होने से भाजपा को बड़ा हिस्सा मिलना अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता । वैसे भी बॉण्ड से चंदा देने वाले ने या तो फायदे के लिए वैसा किया होगा अथवा नुकसान से बचने। स्टेट बैंक से समूचा ब्यौरा मिलने के बाद ही सभी पार्टियों की स्थिति स्पष्ट होगी और देने वाले की मंशा भी। लेकिन एक बात तो तय है कि चन्दे का धन्धा कभी रुकने वाला नहीं है। हवाला कांड में आरोपी बनने के बाद स्व. शरद यादव ने खुलकर कहा था कि उन्होंने पार्टी के लिए पैसे लिए थे और आगे भी कोई देगा तो निःसंकोच लेंगे। उनकी वह स्वीकारोक्ति भारतीय राजनीति का वह सच है जिससे जानते तो सब हैं किंतु स्वीकार करने का साहस नहीं बटोर पाते। चूंकि इलेक्टोरल बॉण्ड के मुद्दे से आम जनता को कुछ भी लेना – देना नहीं है इसलिए कुछ समय बाद ये हवाला कांड की तरह हवा – हवाई होकर रह जाए तो आश्चर्य नहीं होगा क्योंकि जैसे ही स्टेट बैंक बची हुई जानकारी देगा त्योंही चन्दा लेने वाली सभी पार्टियां कठघरे में नजर आयेंगी। बॉण्ड खरीदने वाली कुछ कंपनियों के नाम अवश्य चौंकाने वाले हैं जिन्होंने अपने कारोबार के आकार और मुनाफे से कई गुना ज्यादा के बॉण्ड खरीदकर चन्दे में दिये। ये भी कहा जा रहा है कि काले धन को वैध बनाने के लिए फर्जी कंपनियां बनाकर बॉण्ड खरीदे गए। यद्यपि स्टेट बैंक से बाकी जानकारी मिलने के बाद भी पूरा सच सामने आयेगा ये कहना मुश्किल है क्योंकि बॉण्ड का विरोध करने वाली किसी भी पार्टी ने उससे मिला चंदा स्वीकार करने से इंकार नहीं किया। चिंता का विषय तो ये भी है कि अब जो भी चंदा आयेगा उसमें काले धन की हिस्सेदारी सबसे अधिक रहेगी और उसे न चुनाव आयोग रोक सकेगा और न ही सर्वोच्च न्यायालय।