संपादकीय – रवीन्द्र वाजपेयी
तमाम विपक्षी दलों को एकजुट कर भाजपा विरोधी गठबंधन बनाने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को अपनी पार्टी जनता दल (यू) को एकजुट रखने में पसीना आ रहा है। पार्टी के भीतर चल रही खींचातानी के बाद ललन सिंह को हटाकर वे खुद राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए। दरअसल जिन ललन को नीतीश का बाल सखा माना जाता है वे कुछ विधायकों को तोड़कर तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री बनवाने का षडयंत्र रच रहे थे। इसके बदले उन्हें राज्यसभा की सीट देने का वचन दिया गया था। ये भी सुनने में आया है कि ललन सिंह ने नीतीश से मिलकर तेजस्वी की ताजपोशी का सुझाव दिया था । इसी के बाद से वे उनकी गतिविधियों पर निगाह रखे हुए थे। हालांकि खुद नीतीश ने ही राष्ट्रीय राजनीति में जाने की रणनीति के अंतर्गत विपक्ष का गठबंधन बनाने की पहल की थी। उनका सोचना था वे उसके संयोजक बनकर प्रधानमंत्री पद का विपक्षी चेहरा बन जाएंगे । हालांकि इंडिया गठबंधन अस्तित्व में भी आ गया किंतु संयोजक को लेकर फैसला नहीं हो पा रहा। इसे लेकर नीतीश नाराज भी थे और परेशान भी। लेकिन 19 दिसंबर की बैठक में ममता बैनर्जी ने बिना किसी भूमिका के जब नरेंद्र मोदी के मुकाबले मल्लिकार्जुन खरगे का नाम उछाल दिया तब उनको लगा कि उन्हें किनारे किया जा रहा है। इधर बिहार में लालू यादव एंड कंपनी ने भी परदे के पीछे से तख्ता पलट की तैयारी शुरू कर दी। शुरुआत में तेजस्वी को लग रहा था कि गठबंधन का संयोजक बनने के बाद नीतीश मुख्यमंत्री की कुर्सी खाली कर देंगे किंतु उसकी नौबत न आते देख ललन के जरिए दूसरा दांव चलने का प्रयास किया । इसके अलावा नीतीश की पार्टी के कुछ विधायक दोबारा भाजपा के साथ गठजोड़ के पक्षधर हैं। उनको लग रहा है कि लालू का साथ लेकर नीतीश ने जनता दल (यू) का भविष्य खतरे में डाल दिया है। मुख्यमंत्री भले ही वे हों किंतु लालू का पूरा परिवार शासन तंत्र पर हावी है। नीतीश पर ये दबाव भी बनाया जाने लगा कि वे अपने दल का लालू की पार्टी राजद में विलय कर दें। इस पूरे घटनाक्रम में ललन की भूमिका संदिग्ध रही। ये अटकल भी आए दिन लगती रही कि नीतीश एक बार फिर एनडीए का दामन थाम सकते हैं। लेकिन भाजपा ने उनके लिए दरवाजे बंद करने की घोषणा कर डाली। कुल मिलाकर जो हालात उत्पन्न हुए उनमें नीतीश का सत्ता और संगठन दोनों से नियंत्रण कम हो रहा था । राष्ट्रीय नेता बनने के लालच में राज्य भी हाथों से सरकने का अंदेशा पैदा हो गया । न सिर्फ तेजस्वी अपितु भाजपा भी जनता दल (यू) में सेंध लगाने के प्रयास में जुटी हुई थी। सुशील कुमार मोदी और गिरिराज सिंह जैसे नेता खुलकर कहने लगे थे कि नीतीश चलाचली की बेला में है। ऐसे में मुख्यमंत्री पद के साथ ही उनको पार्टी बचाने की चिंता हुई और ललन सिंह को हटाकर वे खुद अध्यक्ष बन बैठे। लेकिन इस पूरे खेल में नीतीश ने अपनी स्थिति हास्यास्पद बना ली। उल्लेखनीय है पार्टी के पिछले अध्यक्ष आरसीपी सिंह मोदी सरकार में मंत्री थे। नीतीश को शक था कि वे भाजपा के साथ मिलीभगत कर रहे हैं। इसीलिए उनकी राज्यसभा सदस्यता का नवीनीकरण नहीं किया गया और अध्यक्ष के साथ – साथ पार्टी से भी अलग कर दिया गया। ये सब देखते हुए नीतीश की स्थिति बड़ी ही विचित्र हो गई है। धीर – गंभीर राजनेता की छवि के विपरीत वे सत्ता के लोभी के तौर पर जाने जा रहे हैं। पहले लालू और अब कांग्रेस सहित विपक्ष के अन्य नेतागण उनकी महत्वाकांक्षाओं को जान चुके हैं और इसीलिए उनको इंडिया का संयोजक नहीं बनाया जा रहा। जनता दल (यू) के मौजूदा संकट में हालांकि सतही तौर पर तो वे विजेता बनकर उभरे हैं लेकिन सच्चाई ये है कि नीतीश लगातार अपनी जमीन खोते जा रहे हैं। पार्टी विधायकों को अपना भविष्य अंधकारमय लग रहा है। लोकसभा की सीटों के लिए कांग्रेस के साथ ही वामपंथी भी दबाव बना रहे हैं। नीतीश की सबसे बड़ी चिंता इंडिया गठबंधन में अपनी वजनदारी घटने को लेकर है। बिहार की राजनीति में लालू परिवार जहां भ्रष्टाचार के कारण बदनाम है वहीं नीतीश की छवि पलटूराम की बन चुकी है। इसी सबके कारण वे बौखलाने लगे हैं। जातीय जनगणना को वे अपना तुरुप का पत्ता मान रहे थे किंतु तीन राज्यों में हार के बाद उसके प्रति कांग्रेस भी उदासीन हो चली है। ममता बैनर्जी ने तो प.बंगाल में उसे लागू करने से साफ इंकार कर दिया। इन सबकी वजह से ये कयास लगाए जा रहे हैं कि नीतीश जल्द ही नया धमाका करेंगे । उनकी पीड़ा इस बात को लेकर भी है कि जब ममता ने इंडिया की बैठक में श्री खरगे का नाम प्रधानमंत्री उम्मीदवार के तौर पर उछाला और अरविंद केजरीवाल ने उसका समर्थन किया तब न लालू और तेजस्वी ने उसका विरोध किया , न ही शरद पवार तथा अखिलेश यादव ने ।