संपादकीय- रवीन्द्र वाजपेयी
वैसे तो हर चुनाव कशमकश भरा होता है लेकिन म.प्र विधानसभा का मौजूदा चुनाव अनेक दृष्टि से अलग हटकर है। इसका कारण ये है कि भाजपा और कांग्रेस दोनों का चुनाव प्रचार नीतियों पर बहस की बजाय मुफ्त उपहारों पर आकर सिमट गया है। 20 साल पहले भाजपा ने दिग्विजय सिंह सरकार के विरुद्ध जो चुनाव अभियान चलाया था उसका आधार बिजली , सड़क और पानी था। दिग्विजय को मिस्टर बंटाधार कहकर प्रचारित किया गया था जिसका जनमानस पर काफी असर हुआ क्योंकि श्री सिंह के 10 वर्षीय शासन में प्रदेश बिजली और सड़कों के अलावा पानी के मामले में भी बहुत खराब स्थिति में था। भाजपा को उस चुनाव में ऐतिहासिक सफलता मिली। उमाश्री भारती मुख्यमंत्री बनीं किंतु जल्दी ही उन्हें पद छोड़ना पड़ा । उनके उत्तराधिकारी बनाए गए बाबूलाल गौर भी पार्टी की आंतरिक राजनीति का शिकार होकर चलते किए गए और फिर आया शिवराज सिंह चौहान का दौर जो अभी तक जारी है। प्रदेश में सबसे अधिक समय तक मुख्यमंत्री रहने का कीर्तिमान स्थापित कर चुके श्री चौहान को इस बार कठिन अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ रहा है। 2018 की हार के बाद भले ही 15 महीने बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया द्वारा कांग्रेस से बगावत के शिवराज सरकार की वापसी हो गई लेकिन इस चुनाव में भाजपा की शुरुआत जिस रक्षात्मक तरीके से हुई और पार्टी हाईकमान ने मुख्यमंत्री के चेहरे पर अनिश्चितता बनाए रखी उससे कांग्रेस को अपने पक्ष में माहौल बनाने में आसानी हो गई। लेकिन जल्द ही भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने प्रचार में आक्रामकता का समावेश किया जिससे वह मुकाबले में बराबर आने के बाद अब आगे निकलती लग रही है । लेकिन अभी भी सर्वेक्षण करने वाले दावे के साथ ये नहीं कह पा रहे कि भाजपा और कांग्रेस कितनी सीटें जीतेंगी ? पिछले चुनाव में चूंकि अनुमान गलत साबित हो गए थे इसलिए इस बार दोनों पार्टियों के प्रवक्ता भी संभलकर दावे कर रहे हैं किंतु एक बात दोनों के प्रचार से स्पष्ट है कि विपक्ष ये चुनाव सरकार की विफलता से ज्यादा मतदाताओं को लुभावने वायदे के नाम पर लड़ रहा है। वहीं सत्ताधारी भाजपा भी अपनी उपलब्धियों से ज्यादा मतदाताओं के सामने परोसी जा रही खैरातों को बढ़ – चढ़कर प्रचारित कर रही है। ऐसा लगता है कांग्रेस विपक्ष के रूप में अपनी भूमिका ठीक तरह से नहीं निभा पाने के कारण अपराधबोध से ग्रस्त है। वहीं भाजपा कांग्रेस से ज्यादा मुफ्त उपहार देकर चुनाव जीतने की मानसिकता से प्रेरित है। 2018 में कांग्रेस ने अनेक ऐसे वायदे किए जिनसे आकर्षित होकर मतदाताओं ने उसे बहुमत के करीब पहुंचा दिया था। भाजपा महज 8 सीटों की कमी से सत्ता गंवा बैठी। इसलिए उसने बजाय अपनी उपलब्धियों के नई आकर्षक योजनाओं को चुनावी हथियार बनाया जिनमें लाड़ली बहना सबसे प्रमुख है। घोषणापत्र में भी भाजपा ने लाड़ली बहना योजना की लाभार्थियों को मकान देने का वायदा कर दिया, वृद्धों की पेंशन बढ़ा दी और लाड़ली लक्ष्मी की राशि को दोगुना कर दिया। कांग्रेस अपने प्रचार में हर माह कितनी राशि का लाभ होगा ये बता रही है। मुफ्त और सस्ती बिजली का वायदा दोनों ओर से हो रहा है। किसानों की फसल के खरीदी मूल्य ज्यादा से ज्यादा देने की होड़ मची है। कहने का आशय ये है कि राजनीतिक विचारधारा और नीतियां तो पृष्ठभूमि में चली गईं और मुफ्त उपहारों ने पूरे चुनाव अभियान पर कब्जा कर लिया। हालांकि दोनों प्रतिद्वंदियों ने अपने घोषणापत्र में लंबी – चौड़ी बातें की हैं। लाखों नौकरियों निकाले जाने के वायदे के साथ बेरोजगारों को भत्ते का लालच भी दिया जा रहा है। लेकिन प्रदेश में नए उद्योग लाने , बिजली उत्पादन और सिंचाई सुविधाओं में वृद्धि जैसे मुद्दे पर कोई ठोस कार्ययोजना दोनों पक्षों ने पेश नहीं की । और यदि घोषणापत्र के किसी कोने में उनका जिक्र है तब भी प्रचार कर रहे नेता उनका उल्लेख करने में पीछे हैं। म.प्र में पर्यटन की असीम संभावनाएं होने के बाद भी यह पर्यटन के क्षेत्र में अपेक्षित सफलता हासिल न कर सका। दोनों पार्टियां इस क्षेत्र को प्राथमिकता देने के बारे में ज्यादा गंभीर नहीं लग रहीं । सही मायने में ऐसा लगता है जैसे इनको केवल उन मतदाताओं में रुचि है जिनको मुफ्त देकर आकर्षित किया जा सकता है। जबकि उन करदाताओं के हित संवर्धन के प्रति राजनीतिक दल बेहद उदासीन नजर आने लगे हैं जिनके कारण सरकारी खजाना भरता है। यही कारण है कि समाज का ये वर्ग राजनीति के प्रति वितृष्णा से भर उठा है। समय आ गया है जब समाज को आत्मनिर्भर बनाकर सम्मान के साथ जीने हेतु प्रेरित किया जाए क्योंकि सरकार किसी की भी हो खैरात बांटकर हमेशा राज नहीं किया जा सकता। लोकतंत्र , कल्याणकारी राज्य की अवधारणा पर आधारित व्यवस्था है किंतु कल्याण का अर्थ व्यक्ति को अपने पैरों पर खड़े होने में सक्षम बनाना है न कि निकम्मा और निठल्ला । उस दृष्टि से ये चुनाव गुणवत्ता और गंभीरता से कोसों दूर चला गया है। यहां तक कि राष्ट्रीय नेता तक सतही बातें करने लगे हैं। ये प्रवृत्ति शुभ संकेत नहीं है। यद्यपि इसके लिए मतदाता भी जिम्मेदार हैं जो दूरगामी लक्ष्यों को उपेक्षित करते हुए तात्कालिक फायदों से आकर्षित होकर निर्णय कर लेते हैं।