सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मथुरा स्थित श्रीकृष्ण जन्मभूमि से सटी शाही मस्जिद के सर्वेक्षण पर रोक लगाने से इंकार किए जाने के बाद अब इस विवाद के हल का रास्ता खुल गया है। स्मरणीय है हिन्दू पक्ष द्वारा लंबे समय से मांग की जा रही थी कि वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद की तरह से ही मथुरा की शाही मस्जिद का भी सर्वेक्षण कर पता किया जाए कि वहां हिन्दू मंदिर के प्रतीक चिन्ह हैं। मुस्लिम पक्ष इसका विरोध करता आ रहा है। हाल ही में अलाहाबाद उच्च न्यायालय के सर्वेक्षण संबंधी आदेश को मुस्लिम पक्ष ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी किंतु उसने भी रोक लगाने से मना कर दिया। दरअसल मुस्लिम पक्ष 1991 के प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट के आधार पर तर्क देता है कि 1947 से पहले अस्तित्व में आए किसी धार्मिक स्थल को किसी अन्य के पूजा स्थल में नहीं बदला जा सकता। इस बारे में उल्लेखनीय है कि श्री कृष्ण जन्मभूमि मंदिर लगभग 11 एकड़ में है जबकि उससे लगी शाही मस्जिद के पास 2.37 एकड़ भूमि है। हिन्दू पक्ष का दावा है कि इस भूमि पर भी मंदिर था जिसे औरंगजेब के शासन में मस्जिद का रूप दे दिया गया। इसीलिए उसकी दीवारों पर हिन्दू मंदिरों में प्रयुक्त होने वाले कमल और त्रिशूल आदि के चिन्ह अंकित हैं। इस प्रकार ज्ञानवापी की तरह से ही शाही मस्जिद के बारे में भी हिन्दू पक्ष का दावा है कि वह मंदिर का ही हिस्सा है जिसे मुगल काल में जबरदस्ती मस्जिद में परिवर्तित कर दिया गया । ज्ञानवापी में तो शिवलिंग के अलावा जिस तरह से दीवारों और स्तंभों पर हिन्दू धार्मिक चिन्ह बने दिखे ठीक वैसे ही शाही मस्जिद के भीतर होने की बात हिन्दू पक्ष कह रहा है। इस बारे में ये कहना गलत न होगा कि मुस्लिम धर्मगुरु और वक्फ बोर्ड जैसी संस्था द्वारा सर्वेक्षण के काम में अड़ंगा लगाने से हिन्दू पक्ष के दावों में सच्चाई लगती है। वैसे भी सर्वविदित है कि काशी विश्वनाथ और श्री कृष्ण जन्मभूमि से सटी मस्जिद बनाने के पीछे तत्कालीन मुस्लिम शासकों का उद्देश्य हिन्दू धर्मावलंबियों को आतंकित करना ही था। विश्वनाथ मंदिर पर तो अनेक बार आक्रमण किए गए। आजादी के बाद से ही कहा जा रहा है कि हिंदुओं के प्रमुख आराध्य श्री राम , श्री कृष्ण और महादेव शिव से जुड़े पवित्र धर्मस्थलों पर बनी मस्जिदें मंदिरों का ही हिस्सा हैं इसलिए वह स्थान हिंदुओं को लौटा दिया जाए किंतु मुस्लिम समुदाय का एक भी व्यक्ति उस हेतु राजी नहीं हुआ। अयोध्या विवाद का हल भी बाबरी ढांचे में मिले हिन्दू प्रतीक चिन्हों के आधार पर ही सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किया गया । उसी के बाद से ज्ञानवापी और शाही मस्जिद के मामले ने जोर पकड़ा और वह निचली अदालतों से होता हुआ सर्वोच्च न्यायालय तक जा पहुंचा जिसने दोनों जगहों पर सर्वेक्षण के आदेश दिए ताकि वास्तविक स्थिति का पता लग सके । होना तो ये चाहिए था कि मुस्लिम धर्मगुरु अपने समुदाय को ये समझाइश देते कि सर्वेक्षण के आधार पर यदि हिन्दू पक्ष का दावा सही साबित होता है तो बजाय हठधर्मिता के उन्हें वे स्थान हिंदुओं को सौंप देना चाहिए। वैसे तो मुस्लिम शासकों के दौर में पूरे देश के भीतर हजारों मंदिर ध्वस्त किए गए किंतु अयोध्या , काशी और मथुरा चूंकि सनातन धर्मियों की आस्था के बड़े केंद्र हैं इसलिए उन पर बनाई मस्जिदें भावनाओं को आहत करने वाली हैं। बेहतर तो यही होगा कि मुस्लिम पक्ष सर्वेक्षण के कार्य में सहयोग करे क्योंकि अदालत बिना पुख्ता सबूत के कोई भी फैसला नहीं करेगी । अयोध्या का मामला भी बाबरी ढांचा गिरने के कई दशक बाद तभी निपटा जब पुरातत्व सर्वेक्षण में उसके हिन्दू मंदिर होने के प्रमाण सामने आए। ज्ञानवापी और शाही मस्जिद में भी यदि हिन्दू मंदिर होने के साक्ष्य मिलते हैं तब अक्लमंदी तो यही होगी कि मुस्लिम धर्मगुरु स्वेच्छा से वे स्थल हिंदुओं को सौंपकर सद्भावना का वातावरण बनाने आगे आएं। इतिहास की गलतियों को सुधारकर अनेक समस्याओं से बचा जा सकता है। मुस्लिम समुदाय को ये जानना चाहिए कि कांग्रेस सहित अनेक राजनीतिक दलों द्वारा छद्म धर्मनिरपेक्षता और तुष्टीकरण के कारण उसको मुख्य धारा में शामिल नहीं होने दिया गया । उसी का परिणाम है कि वह धार्मिक कट्टरता में फंसकर शिक्षा के क्षेत्र में बेहद पीछे रह गया। यदि वह अभी भी उन्हीं बेड़ियों में जकड़ा रहकर अकबर और औरंगजेब के दौर से बाहर नहीं निकला तो फिर उसको अपनी बेहतरी के बारे में सोचना बंद कर देना चाहिए।
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