सर्वोच्च न्यायालय की सख्ती के कारण इलेक्टोरल बॉण्ड संबंधी जानकारी धीरे – धीरे सामने आ रही है। 21 मार्च तक स्टेट बैंक को बॉन्ड के नम्बर बताने के साथ ही ये शपथ पत्र देने कहा गया है कि कोई भी जानकारी छिपाई नहीं गई। इस मामले में रोचक मोड़ तब आ गया जब उद्योग- व्यापार जगत की शीर्ष संस्था एसोचेम और फिक्की की ओर से बॉण्ड के नम्बरों को उजागर करने के आदेश को रद्द करने का आवेदन दिया गया। हालांकि अदालत ने उसे तत्काल नहीं सुना किंतु उनका कहना है कि जिस कानून के अंतर्गत बॉण्ड खरीदकर चंदा दिया गया उसमें नाम गोपनीय रखने का प्रावधान था। बॉण्ड शुरू करते समय स्व. अरुण जेटली ने संसद में उसका उद्देश्य राजनीतिक चन्दे में काले धन की भूमिका को कम करना बताया था। जिस मात्रा में बॉण्ड के जरिये चंदा मिला उससे उनकी बात सही साबित हो गई। इसके पहले राजनीतिक दलों को सफेद धन से इतना चंदा कभी नहीं मिला। ये बात तो सर्वविदित है कि पहले आम चुनाव से ही उद्योग – व्यापार जगत राजनीतिक दलों को चंदा देता आया है। चूँकि उसका हिसाब – किताब सार्वजनिक करना जरूरी नहीं था इसलिए काले धन से आये चंदे पर पर्दा पड़ा रहता था। ये भी जगजाहिर है कि उसके बदले उद्योगपतियों को व्यावसायिक लाभ पहुंचाया जाता था। लाइसेंस प्रणाली इसका सबसे बड़ा उदाहरण था जिसके जरिये उन्हें एकाधिकार मिला हुआ था। कार ट्रक और स्कूटर के गिने चुने ब्रांड होने से उनकी कालाबाजारी होती थी। सीमेंट, इस्पात, दवाइयाँ सभी कुछ चंद उद्योगपतियों के नियंत्रण में था। बॉण्ड के बदले उपकृत किये जाने पर सवाल उठाने वाले उस दौर को भूल जाते हैं जब किस राजनीतिक दल को कितना धन मिला ये पूछने – बताने की कोई जरूरत ही नहीं थी। इलेक्टोरल बॉण्ड उस दृष्टि से एक अच्छा प्रयोग था किंतु सर्वोच्च न्यायालय ने जिस आधार पर उसे रद्द कर दिया उसे भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता । इस प्रणाली में फर्जी कंपनियों के जरिये चंदा दिये जाने का अंदेशा कुछ हद तक सही साबित हो गया जब नाममात्र का मुनाफा दिखाने वाली कंपनी द्वारा करोड़ों के बॉण्ड खरीदकर बांटने की जानकारी मिली। कुछ राजनीतिक दलों द्वारा सफाई दी गई कि कोई अनजान उनके दफ़्तर में करोड़ों के बॉण्ड बंद लिफ़ाफ़े में फेंककर चला गया। किसी ने डाक से प्राप्ति की बात कही। जहाँ तक बात उपकृत करने की है तो वह स्वाभाविक है। ज्यादातर लोकतांत्रिक देशों में चंदा देने वालों को लाभ पहुंचाने का चलन है। लेकिन इस मामले में सत्ताधारी दल भाजपा पर जाँच एजेंसियों का दुरूपयोग करने का आरोप भी लग रहा है। छापे पड़ने के बाद बॉण्ड खरीदे जाने पर भी सवाल उठ रहे हैं। फ्यूचर गेमिंग नामक एक कंपनी इस बारे में सबसे ज्यादा चर्चा में आई किंतु उसके द्वारा तमिलनाडु की सत्ताधारी पार्टी द्रमुक को 509 करोड़ के बॉण्ड दिये जाने की बात खुद द्रमुक द्वारा सार्वजनिक किये जाने के बाद अब विपक्ष भी घेरे में आ गया है। चंदा देने वालों को ठेके दिये जाने का मुद्दा भी उछल रहा है। इस बारे में तृणमूल कांग्रेस, द्रमुक, बीजद और बीआरएस जैसे क्षेत्रीय दलों को अरबों के बॉण्ड मिलना उक्त आशंका की पुष्टि कर रहा है। भाजपा उसे मिले भारी – भरकम चंदे को अपने सांसदों और विधायकों की संख्या से जोड़ रही है। लेकिन व्यवहारिक दृष्टि से देखें तो उद्योग – व्यवसाय चलाने वाले ज्यादातर लोग चूंकि किसी राजनीतिक पार्टी से बुराई नहीं लेना चाहते इसलिए वे चंदे की गोपनीयता बनाये रखना चाहेंगे और उसके लिए घूम – फिरकर बात फिर काले धन तक पहुँच जाती है। राजनीतिक दलों के लिए अपना खर्च चलाने को चंदा ही रास्ता होता है। बसपा जैसी पार्टी अपने कार्यकर्ताओं से प्राप्त छोटे – छोटे चंदे को आय का स्रोत बताती है जो गले नहीं उतरता। वामपंथी दलों ने इलेक्टोरल बॉण्ड से चंदा नहीं लेने की जानकारी दी किंतु उनका काम किस प्रकार चलता है ये जिज्ञासा भी उत्पन्न होती है। ऐन लोकसभा चुनाव के समय इलेक्टोरल बॉण्ड पर रोक लगने के साथ ही उन्हें खरीदने और प्राप्त करने वालों की जानकारी सार्वजनिक हो जाने के बाद भी यह चुनावी मुद्दा नहीं बन सकेगा क्योंकि कुछ को छोड़ सभी पार्टियों ने उनको मिले बॉण्ड भुनाए हैं। उनके बदले यदि केंद्र की भाजपा सरकार ने चंदा दाताओं को उपकृत किया तो दूसरे दलों की राज्य सरकारें भी इस आरोप से बच नहीं सकेंगी। उद्योग जगत के अनेक दिग्गजों का इसीलिए कहना है कि सर्वोच्च न्यायालय को बॉण्ड व्यवस्था पर रोक लगाने के बावजूद उसके साथ जुड़े गोपनीयता प्रावधान को मान्य करना था जिससे चंदा देने वाले को राजनीतिक प्रतिशोध का सामना नहीं करना पड़े। एसोचेम और फिक्की का पक्ष न्यायालय सुने या नहीं ये उसकी मर्जी पर निर्भर है किंतु राजनीतिक चंदे को पूरी तरह पारदर्शी बनाना उसी तरह असंभव है जैसे न्यायपालिका सहित सरकारी तंत्र को भ्रष्टाचार मुक्त करना।
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