संपादकीय- रवीन्द्र वाजपेयी
महाराष्ट्र में मराठा समुदाय द्वारा आरक्षण की मांग लंबे समय से चली आ रही है। इसे लेकर बड़े आंदोलन भी हुए जिनमें हिंसा भी देखने मिली। गत दिवस एक बार फिर मराठा आरक्षण आंदोलन में हिंसा के बाद तनाव है। एनसीपी के दो विधायकों के घर फूंक दिए गए । जिनमें एक शरद पवार और दूसरा अजीत पवार के गुट का है। मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे गुट के दो सांसदों और एक भाजपा विधायक द्वारा आंदोलन के पक्ष में इस्तीफा दे दिया गया। लोकसभा चुनाव के कुछ माह पहले उठे इस बवाल का असर हरियाणा , प.उत्तर प्रदेश , राजस्थान सहित कुछ और राज्यों में भी पड़ सकता है जिनमें जाट, गुर्जर और मीणा जातियां अनेक वर्षों से आंदोलन करती रहीं। दरअसल तात्कालिक उपायों के तौर पर कुछ मांगें मानकर बाकी को टाल दिए जाने से आंदोलन के जो बीज दबे रह जाते हैं उनमें अनुकूल वातावरण मिलते ही दोबारा अंकुरण होने लगता है। महाराष्ट्र में मराठा जाति अगड़ी है या पिछड़ी ये भी विवाद का विषय है। गत दिवस मुख्यमंत्री ने किसी रिपोर्ट के आधार पर उनमें से कुछ को आरक्षण देने की बात कही तो आंदोलन के नेता ने जिद पकड़ी कि सभी मराठाओं को आरक्षण का लाभ दिया जावे। इस बारे में सबसे महत्वपूर्ण ये है कि हिंसा होने पर इन आंदोलनों की जमीन तैयार करने वाले नेता चूहों की तरह बिल में दुबक जाते हैं । इसीलिए मराठा आरक्षण की मांग के समर्थन या विरोध में बोलने का साहस शरद पवार जैसे दिग्गज तक नहीं कर पाते। एनसीपी विधायकों का घर आग के हवाले करने के बाद भी पवार परिवार घटना की निंदा करने का साहस नहीं जुटा सका । जो राजनीतिक दल मराठा समुदाय की इस मांग का समर्थन करते रहे हैं वे भी अपनी चमड़ी बचाते देखे जा सकते हैं । देश भर में जातिगत जनगणना करवाने की गारंटी बांट रहे राहुल गांधी ने भी मौन साध रखा है । कांग्रेस ने राज्य सरकार से इस मामले में नीति स्पष्ट करने कहा है किंतु उद्धव सरकार की सहयोगी रहते हुए मराठा आरक्षण का मसला हल करने का काम उसने क्यों नहीं किया ये बड़ा सवाल है । शरद पवार भी अनेक बार मुख्यमंत्री बने किंतु मराठाओं का सबसे बड़ा नेता होने के बावजूद उन्होंने भी इस विवाद का हल खोजने का सार्थक प्रयास नहीं किया । ऐसे मामले वैसे तो देश के लगभग सभी राज्यों में हैं। मणिपुर में मैतेई समुदाय आरक्षण मांग रहा था । कुछ महीनों पहले उच्च न्यायालय ने उसकी दशकों पुरानी मांग मंजूर कर ली किंतु उसके बाद वह राज्य गृहयुद्ध जैसे हालात में उलझकर रह गया। शायद इसीलिए राजनेता ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर बचते फिरते हैं क्योंकि एक पक्ष का समर्थन करने से दूसरे का विरोध झेलने का खतरा बन जाता है। दुर्भाग्य से जातिगत आरक्षण के लिए आने वाले नए – नए दबाव राजनीति को पूरी तरह से विकृत करने का कारण बन रहे हैं। जाति आधारित जनगणना के पैरोकार भी अपने बनाए जाल में फंसने लगे हैं । इसका ताजा प्रमाण बिहार है जहां मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी करने वाला दांव उनके लिए संकट का कारण बन गया। यहां तक कि उनके अपने जनता दल (यू) में ही भारी असंतोष देखने मिल रहा है। इस कदम का उद्देश्य पिछड़ी जातियों की सही संख्या जानकर उनको लाभान्वित करना था किंतु उल्टे नए जातीय विवादों का खतरा बढ़ गया । मराठा , जाट, मीणा अथवा गुर्जर आरक्षण की मांग को किसी न किसी राजनीतिक नेता अथवा पार्टी ने ही हवा दी है। इसके पीछे उनके अपने निजी और निहित स्वार्थ होते हैं किंतु व्यापक नजरिए से देखें तो देश और समाज के लिए ये मुद्दे विघटनकारी साबित हो रहे हैं। हंसी तो तब आती है जब दलित और पिछड़ी जातियों के राजनीतिक नेता अंतर्जातीय विवाह का आदर्श प्रस्तुत करने के बावजूद भीर जाति की राजनीति करते हैं। उदाहरण के लिए स्व.रामविलास पासवान की दूसरी पत्नी उच्च जाति की हैं , अखिलेश यादव के अलावा लालू प्रसाद यादव के दोनों बेटों ने भी पिछड़ी जाति से बाहर जाकर विवाह किया , सचिन पायलट की पत्नी मुस्लिम है। लेकिन ये सब अपनी जाति के नेता कहलाते हैं। स्व.गोपीनाथ मुंडे पिछड़ी जाति के थे । उन्होंने स्व.प्रमोद महाजन की बहिन से विवाह किया जो ब्राह्मण जाति की थीं। उसके बाद भी स्व.मुंडे पार्टी नेतृत्व से पिछड़े होने के नाम पर भिड़ते रहे। यही काम उनकी बेटियां करती हैं। राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे वैसे तो ग्वालियर के सिंधिया राजवंश की पुण्याई को भुनाती हैं किंतु जाट समुदाय की सरगना बनी हुई हैं। कड़वी सच्चाई तो ये है कि पिछड़े और दलित जातियों के हित चिंतक बने नेताओं ने अपना और अपने परिवार का उत्थान तो खूब कर लिया किंतु अपनी जाति के लोगों के सामाजिक स्थिति को सुधारने के लिए कुछ नहीं। इसीलिए आजादी के 75 वर्षों बाद भी अगड़े – पिछड़े के नाम पर समाज को बांटने की राजनीति का गंदा खेल चल रहा है