संपादकीय- रवीन्द्र वाजपेयी
हमास और इजराइल के बीच जारी युद्ध को 45 दिन से ज्यादा हो चुके हैं। 7 अक्टूबर को हमास द्वारा अचानक किए गए हमले के बाद इजराइल ने भी पलटवार में हमास के कब्जे वाले गाजा पट्टी पर विनाश वर्षा शुरू करते हुए फिलिस्तीनियों को वहां से चले जाने को कह दिया। इसमें दो मत नहीं हैं कि हमास का हमला इजराइल की गुप्तचर एजेंसियों की बड़ी विफलता थी । उसके द्वारा दागे गए हजारों राकेटों ने इस देश के उस आकाशीय सुरक्षा तंत्र को छिन्न – भिन्न कर दिया जिसे अभेद्य माना जाता रहा। हमास के लड़ाके जिस तरह इजराइल में घुसे और बड़े पैमाने पर हत्याएं कर डालीं उससे प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू बौखला उठे और उन्होंने उसको समूल नष्ट करने का ऐलान करते हुए गाजा पर थल और नभ दोनों से आक्रमण कर वहां की आपूर्ति व्यवस्था चौपट कर दी जिससे लोगों का जीवन दूभर हो गया। संरासंघ सहित इजराइल के कट्टर समर्थक अमेरिका तक ने मानवीय आधार पर नेतन्याहू से गाजा के नागरिकों को भोजन , पानी , बिजली , दवाइयां आदि की आपूर्ति जारी रखने की गुजारिश की किंतु वे नहीं माने। लेकिन डेढ़ महीने से ज्यादा से चली आ रही जंग में इजराइल भी उसी तरह फंसता लग रहा है जैसा रूस यूक्रेन में उलझा हुआ है। इसका कारण हमास द्वारा सैकड़ों इजराइलियों को बंधक बना लेना है। चूंकि यहूदी राष्ट्र अपने हर नागरिक को बहुमूल्य समझता है इसलिए इजराइल का पूरा जोर बंधकों को हमास के कब्जे से छुड़ाने पर टिक गया। हालांकि अतीत में भी उसे अपने चंद बंधकों के बदले हमास के बंदी बनाए गए लोगों को रिहा करना पड़ा था किंतु इस बार हमास ने बहुत बड़ी संख्या में इजराइली नागरिकों को पकड़कर गुप्त स्थानों में छिपा दिया और यही एक बात नेतन्याहू की दबती नस साबित हो रही है। हालांकि हमास के हमले में इजराइल के जितने नागरिक मारे गए उससे कई गुना लोग गाजा पट्टी में वह मार चुका है। एक समय ऐसा था जब इजराइल अपने अपहृत नागरिकों को मृत मानकर अपहरण करने वालों को नष्ट करने की नीति पर चलता था किंतु हमास के हमले ने नेतन्याहू की राजनीतिक स्थिति खराब कर दी जो पहले से ही जनता का विरोध झेल रहे थे। इजराइल की सुरक्षा व्यवस्था में हमास द्वारा लगाई गई सेंध के पीछे यद्यपि ईरान और कतर जैसे देश थे जो अमेरिका द्वारा सऊदी अरब और यहूदी देश के बीच दोस्ताना कायम करने की बिसात बिछाए जाने से नाराज थे। और फिर जिस तरह इतने लंबे समय तक हमास इजराइल के जबरदस्त आक्रमण का सामना करता आ रहा है वह भी साधारण बात नहीं है। इजराइल की ये सोच गलत साबित हो गई कि उसके कड़े प्रहार के सामने हमास घुटने टेक देगा और बंधक बनाए गए उसके नागरिकों को दबाव वश रिहा कर देगा । यही कारण है कि किसी भी सूरत में युद्ध न रोकने का ऐलान कर चुके नेतन्याहू को बातचीत के लिए बाध्य होकर कुछ दिनों के लिए युद्धविराम करना पड़ा। गत दिवस हमास द्वारा कुछ बंधक और इजराइल की ओर से फिलिस्तीनी कैदी रिहा कर दिए गए। हो सकता है युद्धविराम के दौरान इस कार्य में कुछ और प्रगति हो किंतु नेतन्याहू जिस तरह आर – पार की लड़ाई का मन बना चुके हैं वह समूचे विश्व के लिए खतरे का बड़ा संकेत है। कूटनीति के जानकार भी ये चिंता जता रहे हैं कि कहीं ये संकट तीसरे विश्व युद्ध में न बदल जाए। यद्यपि इस युद्ध का एक रोचक पहलू ये भी है कि अरब जगत के मुस्लिम देशों का पहले जैसा समर्थन हमास को नहीं मिला। मिस्र ने तो गाजा से आने वाले शरणार्थियों के लिए अपनी सीमाएं ही सील कर दीं। सऊदी अरब ने भी इजराइल के विरुद्ध वैसा मोर्चा नहीं खोला जैसा अपेक्षित था। यद्यपि हमास जिस तरह से इजराइल के ताबड़तोड़ हमलों का सामना कर रहा है वह बिना विदेशी मदद के असंभव था । और फिर गाजा में जिस पैमाने पर विध्वंस हुआ उसे भी कम नहीं कहा जा सकता । बावजूद उसके यदि वह इजराइल का मुकाबला करने का दुस्साहस कर सका तो उसके पीछे उसके कब्जे में इजराइली नागरिकों का होना ही है। दरअसल नेतन्याहू भी रूसी राष्ट्रपति पुतिन की तरह उस मोड़ पर आ चुके हैं जहां से बिना जीते वापसी करना पराजय स्वीकार करने जैसा होगा। लेकिन इन दोनों युद्धों ने वैश्विक अर्थव्यवस्था के सामने जबरदस्त मुसीबत उत्पन्न कर दी है। जिसका परिणाम कच्चे तेल के अलावा खाद्यान्न संकट के तौर पर भी देखने मिलना तय है। सबसे बड़ी बात ये है कि दोनों बड़ी लड़ाइयों के पीछे अमेरिका है क्योंकि उसकी आर्थिक , सामरिक और कूटनीतिक मदद के बिना न यूक्रेन इतनी लंबी लड़ाई लड़ सकता था और न ही इजराइल हमास की जड़ें खोदने जैसी जिद पकड़कर बैठता। दोनों लड़ाइयां कहां जाकर खत्म होंगी ये फिलहाल कोई नहीं बता सकता। लेकिन इनका रुकना जरूरी है अन्यथा कोरोना संकट से उबरी वैश्विक अर्थव्यवस्था नए संकट में फंसकर रह जाएगी।