संपादकीय- रवीन्द्र वाजपेयी
राजस्थान विधानसभा चुनाव में प्रचार के अंतिम चरण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरुद्ध अपमानजनक टिप्पणी के लिए भाजपा की शिकायत पर चुनाव आयोग द्वारा कांग्रेस नेता राहुल गांधी को नोटिस दिया गया है। हालांकि इसका कोई असर नहीं होने वाला क्योंकि ऐसी टिप्पणियां हर चुनाव में सुनाई देती हैं जिन पर आयोग कार्रवाई की औपचारिकता का निर्वहन भी करता है। कुछ नेताओं को प्रचार करने से प्रतिबंधित भी किया जाता है। लेकिन मतदान होते ही किसी को इस तरफ ध्यान देने की फुरसत नहीं रहती । आयोग भी अगले चुनाव की व्यवस्था में व्यस्त हो जाता है। लेकिन चिंता का विषय ये है कि चुनाव प्रचार का स्तर चुनाव दर चुनाव गिरता ही जा रहा है। बात केवल प्रधानमंत्री के मान – अपमान तक ही सीमित न रहे बल्कि सभी राजनीतिक नेताओं को चाहिए एक दूसरे के सम्मान का ध्यान रखें। सही बात तो ये है कि जब कोई नेता किसी अन्य के बारे में आपत्तिजनक बातें सार्वजनिक मंच से बोलता है तो उससे उसकी विकृत मानसिकता ही उजागर होती है। राजनीति में वैचारिक मतभेद होना तो स्वाभाविक है और वही लोकतंत्र की खूबसूरती भी है । विरोधी को शत्रु मानने की प्रवृत्ति साम्यवादी शासन और तानाशाहों के राज में तो देखने मिलती है किंतु भारत में जो संसदीय लोकतंत्र है उसमें सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों का समान महत्व है और इस दृष्टि से सौजन्यता और सामान्य शिष्टाचार का पालन नितांत आवश्यक है। दुख का विषय है कि इस कसौटी पर दोनों पक्ष खरे साबित नहीं हो रहे। चुनावों के दौरान प्रतिस्पर्धा चरम पर होने से नीतिगत के साथ ही व्यक्तिगत आलोचना भी स्वाभाविक तौर देखने मिलती है। लेकिन वह शालीनता के मापदंडों के अंतर्गत न हो शत्रुता कही जाएगी । ये बात प्रधानमंत्री से लेकर स्थानीय नेताओं तक पर बराबरी से लागू होती है। इस समय जिन पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की सर्वत्र चर्चा है उनमें मिजोरम के बारे में तो ज्यादा रुचि लोगों में नहीं है किंतु राजस्थान , छत्तीसगढ़ , म.प्र और तेलंगाना को लेकर जबरदस्त उत्सुकता है। चूंकि आगामी वर्ष की गर्मियों में लोकसभा के चुनाव होना हैं इसलिए इन चुनावों के नतीजों पर सबकी नजर है। उक्त चार राज्यों में से पहले तीन में तो भाजपा और कांग्रेस ही प्रमुख प्रतिद्वंदी हैं जबकि तेलंगाना में इन दोनों को सत्तारूढ़ क्षेत्रीय पार्टी वीआरएस से जूझना पड़ रहा है। दोनों राष्ट्रीय पार्टियों के शीर्ष नेता सभी राज्यों में स्टार प्रचारक के तौर पर सभाएं और रोड शो करते नजर आए। लेकिन जिस प्रकार की शब्दावली कतिपय दिग्गज नेताओं द्वारा उपयोग की गई वह इनके राजनीतिक कद के अनुरूप कतई नहीं है। इस मामले में किसी विशेष नेता को कठघरे में खड़ा करना तो अन्याय होगा क्योंकि शब्दों की लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन सभी की ओर से किया गया। कुछ अपवाद अवश्य होंगे लेकिन ज्यादातर ने आलोचना करते समय लोकतांत्रिक सौजन्यता की खुलकर उपेक्षा की। चुनाव आयोग में इस बारे में की जाने वाली शिकायतें अपनी जगह हैं किंतु क्या राजनीतिक दलों को खुद होकर अपने नेताओं की बदजुबानी पर नियंत्रण नहीं करना चाहिए? धार्मिक और जातिगत मुद्दों पर किसी आपत्तिजनक बयान के लिए तो राजनीतिक दल बिना देर लगाए संबंधित नेता पर कार्रवाई करते हैं किंतु विरोधी नेता पर की जाने वाली स्तरहीन टिप्पणी पर न सिर्फ मौन साधा जाता है अपितु उसका बचाव भी किया जाता है। यही कारण है कि इस तरह के लोगों का हौसला बुलंद होता जा रहा है। लेकिन इसके लिए बड़े नेता ज्यादा जिम्मेदार हैं क्योंकि उनकी देखासीखी ही अन्य नेता गण भी राजनीतिक बहस को शर्मनाक स्थिति तक ले आए हैं। चिंता तो तब होती है जब किसी स्तरहीन बयान का बचाव ये कहकर किया जाता है कि दूसरे नेता ने भी तो वैसा ही किया था। चुनाव में राजनीतिक दल अपने नेताओं के माध्यम से नीतियों और विचारधारा के आधार पर जनता से समर्थन मांगते हैं। मतदाताओं को लुभाने के लिए घोषणापत्र में किए गए वायदों का प्रचार भी किया जाता है। चूंकि अब चुनावी वायदे नीतिगत न होकर व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा का रूप ले बैठे हैं इसलिए मतदाता को ग्राहक समझकर अपनी ओर आकर्षित करने की होड़ मचती है। इसीलिए चारों प्रमुख राज्यों में नीतिगत मुद्दे तो दबकर रह गए और व्यक्तिगत छींटाकशी तथा मुफ्त उपहारों के वायदे समूचे परिदृश्य पर हावी हो गए जो निश्चित रूप से इसलिए भी चिंतनीय है क्योंकि इन चुनावों में फैली कटुता का विस्तार लोकसभा चुनाव में होना सुनिश्चित है।