संपादकीय – रवीन्द्र वाजपेयी
कांग्रेस दावा करती है कि राम जन्मभूमि पर भव्य मंदिर बनाने की परिस्थिति ही न बनती यदि स्व.राजीव गांधी राम लला की मूर्तियों पर लगे ताले न खुलवाते। लेकिन जब राम जन्मभूमि पर बना बाबरी ढांचा हटाकर राम मंदिर बनाने की मांग उठी तो कांग्रेस पीछे हट गई। 6 दिसंबर 1992 को जब कारसेवकों ने वह ढांचा धराशायी कर दिया तब कांग्रेस के प्रधानमंत्री स्व. पी.वी नरसिम्हा राव ने उसे दोबारा खड़ा करने का आश्वासन सार्वजनिक रूप से दिया था। उस घटना के बाद रामसेतु और भगवान राम के अस्तित्व सहित राम लला का मामला अदालतों में चला तब भी कांग्रेस के वरिष्ट नेता बतौर अधिवक्ता विरोध में पैरवी करने खड़े हुए। हालांकि चुनाव के दौरान राहुल गांधी अयोध्या से प्रचार शुरू करने जाते रहे और देश भर के मंदिरों में पूजा – अर्चना करते हुए खुद को हिंदू साबित करने का प्रयास भी करते दिखे परंतु उसका न उनको लाभ मिला और न ही कांग्रेस पार्टी को। म.प्र के हालिया विधानसभा चुनाव में पार्टी की ओर से मुख्यमंत्री का चेहरा बनाए गए कमलनाथ ने तो खुद को भाजपा से बड़ा हिंदूवादी प्रचारित करने के लिए तरह – तरह के हथकंडे अपनाए किंतु कोई प्रभाव नहीं पड़ा । इसकी वजह हिंदुत्व के प्रति कांग्रेस का दोहरा रवैया है । 2014 के बाद ए.के. एंटोनी समिति द्वारा दी गई समझाइश के बाद कांग्रेस ने नर्म हिंदुत्व अपनाने का स्वांग रचा किंतु उसके भीतर ही इसे लेकर असमंजस है। सबसे बड़ा मजाक तो ये हुआ कि केरल में एंटोनी जी का बेटा ही भाजपा में आ गया। कर्नाटक में सरकार बनते ही कांग्रेस ने जिस तरह का मुस्लिम तुष्टिकरण शुरू किया उससे साफ है कि राहुल और उनकी बहिन प्रियंका का हिंदू धर्म के प्रति झुकाव महज दिखावा है। आगमी 22 जनवरी को अयोध्या में राम लला के प्राण प्रतिष्ठा समारोह में शामिल होने को लेकर कांग्रेस में जो अनिश्चितता और अनिर्णय नजर आ रहा है वह हिंदुत्व के प्रति उसके उपेक्षा पूर्ण रवैये का ज्वलंत प्रमाण है। उसकी देखासीखी अन्य विपक्षी दल भी उक्त आयोजन के निमंत्रण को स्वीकार करने के प्रति ढुलमुल बने हुए हैं। इस मामले में वामपंथियों की तारीफ करने होगी जिनकी ओर से वृंदा करात और सीताराम येचुरी ने दो टूक इंकार कर दिया। जहां तक बात कपिल सिब्बल की है तो राम मंदिर के विरुद्ध अदालत में खड़े होने के अपराधबोध के चलते वे अयोध्या जाने की हिम्मत ही नहीं कर पा रहे। सपा भी तय नहीं कर पा रही कि वह अयोध्या में आयोजित ऐतिहासिक समरोह में शिरकत करे या न करे। उसके एक नेता स्वामी प्रसाद मौर्य तो हिन्दू धर्म को धोखा बताने पर आमादा हैं । रामचरित मानस की प्रतियां जलाने जैसा घृणित अपराध करने के बावजूद अखिलेश यादव द्वारा उनको पार्टी में बनाए रखना हिन्दू विरोधी मानसिकता का परिचायक है। शरद पवार की बेटी और एनसीपी की कार्यकारी अध्यक्ष सुप्रिया सुले ने भी उक्त समारोह के राजनीतिकरण का बहाना बनाकर अयोध्या जाने में अरुचि दिखाई है। वहीं इंडिया गठबंधन के कुछ और सदस्य भी न जाने का बहाना ढूंढ़ रहे हैं। ज्यादातर को इस बात की शिकायत है कि राम लला की प्राण प्रतिष्ठा और राम मंदिर के निर्माण का श्रेय भाजपा अकेले लूटकर 2024 के लोकसभा चुनाव में हिंदुओं को अपने पक्ष में गोलबंद करना चाह रही है किंतु गैर भाजपा दल जब मुस्लिम तुष्टीकरण करने के लिए सारी मर्यादाएं तोड़ रहे हैं तब उसकी प्रतिक्रिया तो होगी ही। तमिलनाडु के द्रमुक मुख्यमंत्री का बेटा सनातन को डेंगू ,मलेरिया और कोरोना बताकर खत्म करने की बात करे और कांग्रेस अध्यक्ष के बेटे द्वारा उसका समर्थन किए जाने के बाद भी कांग्रेस सहित इंडिया गठबंधन के घटक दल मुंह में दही जमाए बैठे रहें तो सनातन धर्म के अनुयायी स्वाभाविक रूप से हिंदुत्व की बात करने वाली भाजपा के साथ खड़े होंगे। म.प्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जबरदस्त पराजय का कारण सनातन के विरोध के कारण हिन्दुओं में उत्पन्न गुस्सा भी रहा। ये देखते हुए विपक्षी पार्टियों द्वारा राम लला की प्राण प्रतिष्ठा के ऐतिहासिक उत्सव का बहिष्कार अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसी मूर्खता होगी। उनको ये नहीं भूलना चाहिए कि राम मंदिर आंदोलन का विरोध करने की उनकी गलती के कारण ही भाजपा देखते – देखते देश की सबसे ताकतवर पार्टी बन गई। और ये भी कि हिन्दुत्व अब राजनीति नहीं अपितु राष्ट्रहित से जुड़ा मुद्दा बन चुका है। विपक्ष का बैर भाजपा से हो सकता है किंतु मुस्लिम वोटों के हाथ से खिसकने के भय से यदि वे अयोध्या जाने से बच रहे हैं तो फिर ये मान लेने में कुछ भी गलत नहीं है कि उसके नेताओं की बुद्धि और विवेक दोनों नष्ट हो चुके हैं।