संपादकीय – रवीन्द्र वाजपेयी
म.प्र विधानसभा की 230 सीटों के लिए गत दिवस मतदान संपन्न हुआ। हालांकि मत प्रतिशत आधा प्रतिशत से थोड़ा सा ही ज्यादा बढ़ा किंतु ये भी कम उपलब्धि नहीं है । वरना रोजाना घंटों राजनीति और चुनाव पर बातचीत करने वाले तमाम लोग मतदान के दिन या तो पिकनिक मनाते हैं या घर में आराम फरमाते हैं। इसके अलावा महिलाओं का मत प्रतिशत यद्यपि उतना नहीं बढ़ा जितना ढिंढोरा पीटा जा रहा था किंतु जितना भी हुआ वह ये साबित करता है कि आधी आबादी भी अब निर्णय प्रक्रिया में हिस्सेदारी कटिबद्ध हो रही है। वैसे भी ये चुनाव महिला मतदाताओं पर काफी हद तक केंद्रित था । कांग्रेस की नारी सम्मान योजना के जवाब में शिवराज सिंह चौहान सरकार द्वारा लाई गई लाड़ली बहना योजना भाजपा के लिए तुरुप का पत्ता बन गई। कांग्रेस द्वारा महिलाओं को 1500 रु. प्रति माह दिए जाने का वायदा किया गया था किंतु शिवराज सरकार द्वारा जून महीने से 1000 देने शुरू कर दिए जिसे बढ़ाकर 1250 किया जा चुका है और भविष्य में 3000 किया जाने वाला है। इस योजना से भाजपा मुकाबले में वापिस आई वरना उसके 60 -70 सीटों तक सिमटने की आशंका जताई जाने लगी थी। सर्वेक्षण एजेंसियां भी इस योजना को खेल उलट देने वाली मानते हुए भाजपा को 100 से 115 तक सीटें मिलने की बात कहने लगीं। मतदान से 10 दिन पहले लाभार्थी महिलाओं के खाते में 1250 रुपए की मासिक किश्त जमा होने का असर मतदान केंद्रों पर महिलाओं की लंबी कतारों से देखने मिला। हालांकि उनमें सभी लाड़ली बहना श्रेणी की नहीं थीं। सामान्य वर्ग की महिलाएं भी बराबरी से मतदान केंद्रों पर नजर आईं। कांग्रेस की संभावनाओं को मजबूत मानने वालों का कहना है कि सरकारी कर्मचारियों ने अपनी नाराजगी सपत्नीक विरोध में मतदान कर व्यक्त की। पुरानी पेंशन शुरू करने का उसका वायदा इसके पीछे था । हालांकि सरकारी कर्मचारियों का बड़ा वर्ग भाजपा और रास्वसंघ से प्रेरित और प्रभावित है और इसे जाहिर करने में संकोच भी नहीं करता। जो राम को लाए उनको लाएंगे का नारा जिस तरह चला उसका भी अदृश्य असर उस वर्ग में दिखाई दिया जो भाजपा और राज्य सरकार से रूष्ट होने के बावजूद सरकार बदलने के तैयार नहीं हो सका। ऐसे में मतदान प्रतिशत 2018 की तुलना में बढ़ा तो जरूर किंतु उसे सत्ता विरोधी लहर मानना व्यवहारिक नहीं लगता। मतदाताओं की आम प्रतिक्रिया से लगता है कि 3 दिसंबर को जो जनादेश म.प्र में आएगा वह पूरी तरह से स्पष्ट होगा । हालांकि भाजपा का यह आशावाद विचारणीय है कि हर सीट पर औसतन 25 से 30 हजार जो लाड़ली बहना मतदाता हैं उनके अधिकांश मत भाजपा की झोली में गिरे। उनके पति तथा अन्य परिजनों को भी यदि भाजपा का पक्षधर मान लिया जाए तो ऐसे में पार्टी 2003 का परिणाम दोहरा सकती है । एक और बात मध्यमवर्गीय हिन्दू परिवारों में देखने मिल रही है कि पुरुषों से अधिक महिलाएं सनातन मुद्दे पर मुखर होने लगी हैं। अयोध्या में राममंदिर के निर्माण की तिथि निकट आने का भी असर है। कांग्रेस को इस बात से भी चिंतित होना चाहिए कि साधु – सन्यासियों और मंदिरों में बैठे ज्यादातर पुजारियों द्वारा बिना नाम लिए सनातन और राम समर्थक सरकार लाने का संदेश दिया गया। स्मरणीय है कि छिंदवाड़ा में बागेश्वर धाम के धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री की कथा के आयोजन में कमलनाथ भगवा चोला धारण कर आगे – आगे रहे किंतु जाते – जाते स्वामीजी भारत को हिन्दू राष्ट्र बता गए और श्री नाथ को मजबूरन उनका समर्थन करना पड़ा जिस पर कांग्रेसी नेताओं और अन्य विपक्षी दलों ने उनकी आलोचना की। वैसे मतदान का विश्लेषण हर कोई अपने – अपने तरीके से कर रहा है किंतु 76 फीसदी मतदान के बाद भाजपा खेमे में उत्साह की लहर है । वहीं कांग्रेस भारी मतदान को लेकर असमंजस में है । महिलाओं द्वारा स्वप्रेरणा से निकलकर मतदान करने से उसे खतरा नजर आ रहा है। जो लोग किसी दल से जुड़े नहीं हैं वे भी मान रहे हैं कि लाड़ली बहना योजना ने भाजपा को कांग्रेस की बराबरी पर लाकर खड़ा कर ही दिया और कमलनाथ आखिरी तक उसकी काट नहीं ढूंढ सके। इस चुनाव का एक रोचक पहलू ये भी है कि जिन शिवराज सिंह चौहान को राजनीतिक विश्लेषक पूरी तरह हाशिए से बाहर मान रहे थे वे ही भाजपा को विजय मंच के इतने करीब लेकर आए हैं । इसीलिए अब विरोधी भी उनकी मेहनत और सक्रियता के कायल हो उठे हैं। कांग्रेस इस चुनाव में हारती है तो उसके द्वारा श्री चौहान को कमतर आंकना भी बड़ा कारण होगा। वहीं कांग्रेस यदि जीती तो उसका श्रेय अकेले कमलनाथ ही लूटेंगे और यही उनकी रणनीति 2020 में सरकार हाथ से निकल जाने के बाद से देखी गई है।