सदियों से चले आ रहे संघर्ष की यह सफल परिणिति केवल ईंट – गारे से बना मंदिर ही नहीं अपितु सैकड़ों वर्षों की मानसिक दासता से मुक्ति का दिवस है। 15 अगस्त 1947 को लंबी विदेशी सत्ता से देश को स्वाधीनता प्राप्त हुई थी किंतु सांस्कृतिक गौरव का वह भाव उत्पन्न नहीं किया जा सका जो इस देश के अस्तित्व का आधार रहा है। जिन लोगों को आज अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा का आयोजन राजनीति से प्रेरित लग रहा है उन्होंने स्वयं को इस ऐतिहासिक समारोह से दूर रखकर हाशिए पर धकेल दिया है। सही बात तो ये है कि राम मंदिर का निर्माण दुनिया को ये संदेश है कि भारत ने भले ही अपना लक्ष्य राजनीतिक आजादी प्राप्त करने के समय तय किया हो किंतु उस लक्ष्य तक पहुंचने का मार्ग अब जाकर खोजा है। इस मंदिर को किसी धर्म से जोड़कर देखने से बड़ी मूर्खता नहीं होगी क्योंकि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की समाधि पर लिखा हुआ हे राम , जिस तरह समूचे देश की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करता है उसी तरह अयोध्या में आज जिस राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा हुई वह भारत की शाश्वत और सनातन संस्कृति का उद्घोष है । आज यदि समूचे विश्व में बसे भारतीय हर्षोल्लास से भरे हुए हैं तो उसका कारण इस देश की मिट्टी के प्रति उनकी अखंड आस्था है जो हजारों मील की दूरी के बाद भी यदि अक्षुण्ण है तो उसका कारण कहीं न कहीं राम ही हैं , जो पुरुषोत्तम के रूप में आदर्शमय जीवन के ऐसे मापदंड हैं जिसका कोई विकल्प हजारों साल बाद भी न उत्पन्न न हुआ और न ही होगा। उनकी जन्मभूमि पर आततायी मुस्लिम शासकों द्वारा कब्जा करने के विरुद्ध सैकड़ों वर्षों से संघर्ष चला आ रहा था। कुछ लोग यह मानते हैं कि राम महज एक कल्पना है जिनके अस्तित्व की प्रामाणिकता नहीं है किंतु जिस तरह आंखें मूंद लेने से दोपहर , रात में नहीं बदल जाती , वैसे ही इस तरह के कुतर्क विकृत मानसिकता को ही बढ़ावा देते हैं । इन्हीं के कारण देश को सैकड़ों वर्षों तक विधर्मी विदेशियों की दासता सहन करनी पड़ी । उस दौर में हमारी धार्मिक आस्था और सांस्कृतिक विरासत को नष्ट करने के प्रयास निरंतर चलते रहे किंतु प्रभु श्री राम के प्रति विश्वास ने ही संकट के उस काल में भी देशवासियों का मनोबल ऊंचा रखा। आजादी के बाद ये उम्मीद थी कि महात्मा गांधी की आकांक्षा के अनुरूप रामराज आयेगा किंतु विदेशी संस्कृति की चकाचौंध से प्रभावित राजनीतिक नेतृत्व ने राष्ट्रपिता के आदेश को रद्दी की टोकरी में फेंकते हुए भारतीयता के उस मूल भाव को उपेक्षित और अपमानित करने का षडयंत्र रचा जो इस देश की एकता और दृढ़ता का आधार स्तंभ रही । लेकिन जिस तरह हर रात का अंत सुबह के तौर पर होता है ठीक वैसे ही समय ने करवट ली और भारत का खोया हुआ स्वाभिमान लौटने लगा जिसकी झलक नब्बे के दशक में दिखाई देने लगी थी। यद्यपि राम जन्मभूमि की मुक्ति का संघर्ष विभिन्न रूपों में पीढ़ियों से चला आ रहा था किंतु जब वह जनांदोलन बना तभी उसकी सफलता की बुनियाद रखी जा सकी। ये उसी तरह से था जैसे भगवान राम ने महाबली रावण को परास्त करने के लिए अपनी दैवीय शक्ति का उपयोग करने के बजाय वानर सेना का गठन किया जिससे कि राक्षसी शक्तियों को पराजित करने का श्रेय केवल उनके हिस्से में नहीं आए। राम जन्म भूमि की मुक्ति के लिए सैकड़ों वर्षों तक चला संघर्ष जब अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंचा तो फिर विधर्मी दासता के प्रतीक ढांचे को धूल – धूसरित होते देर न लगी। वह इस बात का प्रतीक था कि रावण की अभेद्य लंका को भी राम भक्ति की साधारण कही जाने वाली शक्ति छिन्न – भिन्न करने में सक्षम है। 6 दिसंबर 1992 की वह घटना इतिहास के नए अध्याय की शुरुआत थी किंतु उसके पूर्व जिन पूज्य साधु – संतों और ज्ञात – अज्ञात कारसेवकों ने राम काज के लिए अपना बलिदान दिया उनकी पवित्र आत्माएं इस संघर्ष को प्रेरणा और प्रोत्साहन देती रहीं। राम मंदिर के लिए चली लंबी संघर्ष यात्रा का यह पल निश्चित रूप से अविस्मरणीय है। अयोध्या को उसकी प्राचीन भव्यता मिलने के साथ ही आज देश को अपनी दिव्यता का जो अनुभव हुआ वह सही मायने में सनातन परंपरा से जुड़े करोड़ों भारतीयों के मन में नए विश्वास की प्राण प्रतिष्ठा है। इस दिव्य आयोजन के माध्यम से भारत ने पूरे विश्व को ये एहसास करवा दिया है कि उसने अपने आधारभूत आदर्शों की पुनर्स्थापना का संकल्प ले लिया है। राम मंदिर में हुआ प्राण प्रतिष्ठा समारोह स्वामी विवेकानंद की उस भविष्यवाणी की पुष्टि करने वाला है कि 21 वीं सदी भारत की होगी। उस दिशा में एक बड़ा कदम आज अयोध्या से उठाया जा चुका है।