राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कुछ समय पहले सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश श्री उदय. यू . ललित के सामने कहा था कि अदालतें बड़े वकीलों के चेहरे देखकर फैसले देती हैं। उसी तरह की बात वहां मौजूद केंद्र के पूर्व कानून मंत्री किरण रिजजु ने भी कही। लेकिन श्री ललित ने उसका कोई प्रतिवाद नहीं किया । जल्द ही वे सेवानिवृत्त भी हो गए और वह बात लगभग भुला दी गई। उसके बाद श्री रिजजू को उस मंत्रालय से हटा भी दिया गया। इस पर वे तो खामोश हो गए लेकिन गत दिवस श्री गहलोत एक बार फिर न्यायपालिका पर ये कहते हुए हमलावर हो उठे कि उसमें भयंकर भ्रष्टाचार है और कुछ वकील जो लिखकर लाते हैं वैसा ही फैसला आ जाता है। उन्होंने यहां तक कह दिया कि भ्रष्टाचार निचली से ऊपरी अदालत तक व्याप्त है। और देश वासियों को इस बारे में सोचना चाहिए। ये बात पूरी तरह सही है कि न्यायपालिका के बारे में कानून के जानकारों के अलावा आम लोगों में भी श्रद्धा और विश्वास पहले से काफी घटा है। हमारे देश की फिल्मों में भी न्यायाधीशों की अपराधी तत्वों के साथ मिलीभगत के दृश्य दिखाए जाते रहे हैं। बड़े वकीलों से अदालतों के प्रभावित होने की अवधारणा भी जनमानस में स्थापित हो चुकी है। लेकिन श्री गहलोत सामान्य व्यक्ति न होकर राजस्थान जैसे बड़े राज्य के मुख्यमंत्री हैं। यदि उन जैसा व्यक्ति न्यायपालिका में भयंकर भ्रष्टाचार की बात सार्वजनिक रूप से कहे तो उसे उपेक्षित किया जाना न संभव है और न ही उचित। न्यायपालिका और सरकारों के बीच अधिकारों के अतिक्रमण का विवाद लंबे समय से चला आ रहा है। श्रीमती इंदिरा गांधी की सरकार के कुछ अहम निर्णयों को जब सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उलट दिया गया तब बात प्रतिबद्ध न्यायपालिका तक जा पहुंची थी । वामपंथी मानसिकता के कुछ न्यायाधीशों ने भी खुलकर उसका समर्थन किया। धीरे – धीरे ये शिकायत आम होने लगी कि न्यायपालिका अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर निकलकर विधायिका और कार्यपालिका के क्षेत्राधिकार में अतिक्रमण कर रही है। कालेजियम व्यवस्था पर संसद के सर्वसम्मत निर्णय को जिस तरह सर्वोच्च न्यायालय ने रद्द किया उसके बाद से ये चर्चा आम हो गई। श्री रिजजू ने इसी संदर्भ में श्री ललित के सामने ही कहा था कि न्यायाधीश यदि न्याय देने से हटकर एग्जीक्यूटिव का काम करेंगे तो फिर समूची व्यवस्था पर फिर से विचार करना पड़ेगा। लेकिन देश के वरिष्ट राजनेता और मुख्यमंत्री श्री गहलोत ने न्यायपालिका में भयंकर भ्रष्टाचार होने की जो टिप्पणी की वह बेहद गंभीर और इस बात का संकेत भी कि दूसरों को कठघरे में खड़ा करने वाली न्यायपालिका भी अब घेरे में आ रही है। कार्यपालिका के कार्यों में उसके अवांछित हस्तक्षेप का आरोप तो फिर भी राजनीतिक मानकर दरकिनार किया जाता रहा लेकिन जब एक मुख्यमंत्री नीचे से ऊपर तक न्यायपालिका को भयंकर भ्रष्ट बता रहा हो तब भी यदि न्यायपालिका खामोश रहती है तब ये माना जाएगा कि वह अपराधबोध से ग्रसित हो गई है। सर्वोच्च न्यायालय के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश श्री डी.वाय.चंद्रचूड़ अपने पूर्ववर्तियों से अलग हटकर काफी सख्त और मुखर हैं और किसी दबाव में नहीं आते। उनका कार्यकाल भी काफी लंबा है। उस दृष्टि से ये अपेक्षित है कि वे श्री गहलोत की बात का संज्ञान लेते हुए उन्हें तलब कर पूछेंगे कि सार्वजनिक तौर पर न्यायपालिका में सबसे भयंकर भ्रष्टाचार के आरोप का आधार क्या है ? इसके अलावा मुख्यमंत्री से ये भी पूछना जरूरी है कि वे कौन से फैसले हैं जिनके बारे में उनका कहना है कि उनकी इबारत वकीलों द्वारा लिखित थी ? सवाल और भी हैं जिनका उत्तर देना न्यायपालिका की नैतिक जिम्मेदारी है क्योंकि वर्तमान वातावरण में जब राजनेता , पत्रकार , गैर सरकारी समाजसेवी संगठन और नौकरशाह सभी विश्वसनीयता के संकट से जूझ रहे हैं तब न्यायपालिका अंधेरी कोठरी में एकमात्र रोशनदान की तरह है। ऐसे में अगर उस पर भी लांछन लगने लगें तब पूरे कुएं में भांग घुली होने जैसी स्थिति बन जायेगी। यद्यपि किसी नेता के कहने मात्र से न्यायपालिका को भ्रष्ट मान लेना भी जल्दबाजी होगी किंतु मुख्यमंत्री जैसा संवैधानिक पद पर आसीन व्यक्ति जब ऐसा कहे तब उससे सवाल तो पूछा ही जाना चाहिए। बेहतर हो श्री चंद्रचूड़ स्वयं आगे आकर इस बारे में पहल करें क्योंकि संवैधानिक पद पर विराजमान व्यक्ति यदि न्यायपालिका में सबसे भयंकर भ्रष्टाचार की शिकायत करे तो उसे नजरंदाज करना आरोप को स्वीकार करने जैसा होगा।