संपादकीय- रवीन्द्र वाजपेयी
बिहार में जातिगत जनगणना के नतीजों ने राष्ट्रीय राजनीति में उबाल ला दिया है। विपक्ष इस मुद्दे से भाजपा को पटकनी देना चाह रहा है।उसकी परेशानी ये है कि उच्च जातियों की पार्टी कहलाने वाली भाजपा पिछड़ों और दलितों की पसंद बनकर केंद्र में स्पष्ट बहुमत हासिल कर ले गई। सबसे बड़ा नुकसान कांग्रेस को हुआ जो उ.प्र और बिहार में हाशिए पर चली गई। मंडल वादियों की कर्मभूमि रहे इन राज्यों में भाजपा का उभार चौंकाने वाला था। कांग्रेस की मुसीबत ये है कि आज उसके साथ न तो मुस्लिम पूरी तरह हैं और न ही ओबीसी तथा दलित। सवर्ण पहले ही खिसक चुके थे। उन्हें रिझाने के लिए राहुल गांधी ने खुद को जनेऊ धारी ब्राह्मण और शिव भक्त प्रचारित करवाते हुए मंदिरों – मठों में मत्था टेकना शुरू कर दिया । लेकिन ये दांव जब कारगर नहीं हुआ तब कुछ महीनों से वे पिछड़ी जातियों को लुभाने का प्रयास करने लगे। जिसकी जितनी संख्या , उसका उतना हिस्सा , वाला नारा लगाकर वे जिस सामाजिक न्याय का ढोल पीट रहे हैं वह बात तो डा.राममनोहर लोहिया ने आजादी के बाद ही कहना शुरू कर दिया था। जब जातिगत जनगणना का कोई जिक्र तक नहीं करता था तब लोहिया जी ने पिछड़ा पावै 100 में साठ का नारा लगाया था। मंडल आयोग तो उनके न रहने के बरसों बाद बना। सवाल ये है कि कांग्रेस को ओबीसी के हितों की चिंता पहले क्यों नहीं हुई और अनु. जाति/जनजाति को आरक्षण देते समय संविधान सभा ने ओबीसी को क्यों उपेक्षित किया? 1979 में जब चौधरी चरणसिंह की केंद्र सरकार से कांग्रेस ने समर्थन वापस लिया था तब उसके सांसद स्व.कल्पनाथ राय की टिप्पणी थी , जातिवाद का काला नाग मारा गया। दरअसल चौधरी साहब ने अजगर नामक गठबंधन बनाकर उ. प्र में पहली गैर कांग्रेसी सरकार गठित की थी । अजगर से अभिप्राय अहीर(यादव) , जाट, गुर्जर और राजपूत था। इसमें ब्राह्मण और दलितों को दूर रखा गया । बाद में नए – नए समीकरण बनते बिगड़ते रहे। सवर्ण जातियों को जूते मारने का नारा बुलंद करने वाली बसपा उनके समर्थन के लिए हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा , विष्णु , महेश है का राग अलापने लगी । 2007 में इन्हीं के बल पर मायावती ने उ. प्र में पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनाई। इसी तरह 2012 में अखिलेश यादव को सत्ता में लाने में भी सवर्णों की भूमिका थी जो मायावती के दलित मोह से त्रस्त हो चुके थे। लेकिन वे भी यादव प्रेम में फंसकर सवर्णों के साथ अन्य पिछड़ी जातियों का समर्थन गंवा बैठे जिसका लाभ उठाकर भाजपा ने इस राज्य में अपने दम पर बहुमत हासिल कर लिया । और पिछड़े या अगड़े के बजाय योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनवाया जो हैं तो क्षत्रिय किंतु सन्यासी होने से उनकी जातिगत पहिचान मुद्दा नहीं बन पाती। 2022 में भाजपा की सोशल इन्जीनियरिंग को ध्वस्त करने अखिलेश ने जाट नेता जयंत चौधरी से गठजोड़ किया लेकिन वह भी कारगर नहीं हो सका । सबसे चौंकाने वाली ये रही कि इस राज्य कांग्रेस का जनाधार घटता चला गया। बिहार में भी कांग्रेस दुर्गति की शिकार है और लालू प्रसाद यादव और उनके बेटों के इशारों पर नाचने की मजबूरी झेल रही है। सही बात तो ये है कि जबसे राहुल के हाथ बागडोर आई है तबसे पार्टी वैचारिक भटकाव का शिकार होकर रह गई है। बिहार में हुई जातिगत जनगणना के नतीजों से बल्लियों उछल रहे श्री गांधी को इस सवाल का उत्तर भी देना चाहिए कि केंद्र में 2004 से 2014 तक जो सरकार चली उसकी लगाम उनके परिवार के हाथ थी। खुद राहुल इतने ताकतवर थे कि केंद्र सरकार द्वारा जारी अध्यादेश को पत्रकार वार्ता में फाड़कर फेंकने जैसा दुस्साहस कर बैठे । यदि जातियों के आधार पर हिस्सेदारी की फिक्र होती तो वे मनमोहन सरकार से कहकर नीतिगत फैसला करवा लेते। 2011 की जनगणना तो यूपीए के राज में ही हुई थी । और जिस तरह बिहार सरकार ने जातिगत जनगणना के लिए प्रतिबद्धता दिखाई वैसी कांग्रेस शासित पंजाब , राजस्थान और छत्तीसगढ़ भी दिखाते तब ये कहा जा सकता था कि पार्टी जातियों की संख्या के आधार पर सामाजिक और राजनीतिक बंटवारा करने की हिमायती है। अचानक श्री गांधी जिस प्रकार जातिगत जनगणना के पक्षधर बनकर सामने आए उसके बारे में उनकी पार्टी के भीतर भी मतैक्य नहीं है। एक नेता द्वारा सोशल मीडिया पर की गई विपरीत टिप्पणी हालांकि जल्द ही वापस ले ली गई लेकिन उससे काफी कुछ संकेत तो मिल ही गए । सबसे महत्वपूर्ण ये है कि कांग्रेस कब तक दूसरों के मुद्दों पर राजनीति करेगी जबकि लंबे समय से वह इस प्रवृत्ति का खामियाजा भुगत रही है। उसने तात्कालिक लाभ हेतु जितने भी नीतिगत फैसले किए उस सबकी महंगी कीमत चुकाने के बावजूद उसे अक्ल नहीं आ रही तो फिर ये मानकर चलना गलत न होगा कि देश की सबसे पुरानी पार्टी दिशाहीनता का शिकार होकर निर्णय क्षमता खो बैठी है। राहुल सहित पूरी पार्टी को ये समझ लेना चाहिए कि नीतीश , लालू और अखिलेश जैसे नेता कांग्रेस को दोबारा उठने नहीं देंगे क्योंकि उससे उनकी राजनीति को ग्रहण लग जाएगा । कांग्रेस को चाहिए वह राष्ट्रीय पार्टी की तरह आचरण करे क्योंकि क्षेत्रीय मुद्दों में उलझकर उसका ऊंचा कद बौनेपन में तब्दील हो चुका है।