अन्य दलों के दूर रहने से न्याय यात्रा असर नहीं छोड़ पा रही

अन्य दलों के दूर रहने से न्याय यात्रा असर नहीं छोड़ पा रही
अन्य दलों के दूर रहने से न्याय यात्रा असर नहीं छोड़ पा रही

 

कांग्रेस नेता राहुल गांधी की न्याय यात्रा उ.प्र में है। बीते दो दिनों से वे अपने पुश्तैनी गढ़ रहे अमेठी , सुल्तानपुर और रायबरेली के इलाके में मौजूद हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निर्वाचन क्षेत्र से भी यात्रा गुजर चुकी है। हालांकि यात्रा मार्ग में भीड़ तो नजर आती है किंतु भारत जोड़ो का प्रबंधन जितना अच्छा था और कांग्रेस के तमाम नेतागण उसमें उपस्थिति दर्ज करवाते देखे गए , वैसा इस बार देखने नहीं मिल रहा। संभवतः इसका कारण म.प्र, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की करारी हार के साथ ही लोकसभा चुनाव नजदीक होना है। लेकिन यात्रा को लेकर पहले जैसा उत्साह नहीं होने की वजह इंडिया में शामिल दलों के नेताओं की उससे दूरी भी है। उ.प्र. को ही लें तो वहां सपा विपक्षी गठबंधन की सबसे मजबूत सदस्य है। लेकिन सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने ऐलान कर दिया कि जब तक सीटों के बंटवारे का मुद्दा उलझा रहेगा तब तक वे राहुल के साथ यात्रा नहीं करेंगे । इसी के साथ कांग्रेस को 17 सीटें देने का प्रस्ताव भी दे डाला। स्मरणीय है कुछ दिन पहले उन्होंने कांग्रेस को 11 सीटें देने की बात कही थी । उसके बाद जयंत चौधरी अपनी पार्टी रालोद को लेकर एनडीए में शामिल हो गए। इसीलिए रालोद को दी जा रही आधा दर्जन सीटें अखिलेश ने कांग्रेस को देने का दांव चला। हालांकि कांग्रेस ने अब तक इस प्रस्ताव पर सहमति नहीं दिखाई और वह 21 – 22 सीटों पर अड़ी हुई है। इस खींचातानी की वजह बसपा भी है क्योंकि कांग्रेस ने अखिलेश के दबाव को कम करने के लिए बसपा को भी इंडिया गठबंधन में शरीक होने का निमंत्रण दे दिया। क्षेत्रीय पार्टियां जिस तरह कांग्रेस पर हावी होकर ज्यादा से ज्यादा सीटों पर लड़ने की बात कर रही हैं उसका कारण कांग्रेस में निर्णय क्षमता का अभाव ही है। लोकसभा चुनाव पार्टी के लिए जीवन – मरण का प्रश्न है। 2014 और 19 के लोकसभा चुनाव में मिली जबर्दस्त पराजय के बाद उसके हाथ से ज्यादातर राज्य निकलते चले गए। हिमाचल , कर्नाटक और तेलंगाना में जीत से जो मनोबल बढ़ा वह म.प्र, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की हार से धरातल पर आ गया। ऐसे में जरूरत थी कि वह विपक्षी पार्टियों के बीच सामंजस्य बनाकर भाजपा के समक्ष कड़ी चुनौती पेश करने के लिए सीटों के बंटवारे का तरीका खोजकर जल्द से जल्द विपक्ष के संयुक्त उम्मीदवारों की घोषणा करवाती । लेकिन पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव और उसके बाद न्याय यात्रा की तैयारियों के कारण कांग्रेस नेतृत्व इस कार्य के लिए समय ही नहीं निकाल सका , जिससे संवाद हीनता की स्थिति बनती चली गई। न्याय यात्रा से अन्य दलों के नेताओं द्वारा दूरी बना लेने का कारण उनको सही समय और सही तरीके से निमंत्रित नहीं किया जाना ही है। उ.प्र में यात्रा के आने पर अखिलेश से उसमें शामिल होने के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा , बुलाया ही नहीं गया। उनकी उस टिप्पणी के बाद ही न्यौता भेजा गया। दूसरी बात ये भी है कि उ.प्र कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय रॉय से सपा प्रमुख का छत्तीस का आंकड़ा है । म.प्र विधानसभा चुनाव के समय कमलनाथ और अखिलेश के बीच हुए बयान युद्ध के दौरान श्री रॉय द्वारा किए गए कटाक्ष पर श्री यादव ने उनको चिरकुट बताते हुए कांग्रेस को खरी – खोटी सुनाई थी। भले ही कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी है किंतु उ.प्र में उसकी स्थिति दयनीय से भी बुरी है। ऐसे में बुद्धिमत्ता इसी में थी कि खुद श्री गांधी सपा प्रमुख को शुरू में ही यात्रा का निमंत्रण देते । लेकिन यात्रा के संयोजक जयराम रमेश एवं अन्य प्रबंधकों को इन सब बातों का ध्यान नहीं है । इसीलिए यात्रा को न पहले जैसा प्रचार मिल रहा है और न ही वह पार्टी में उत्साह जगाने में कामयाब लगती है। विपक्षी गठबंधन के अनेक नेता खुलकर कह चुके हैं कि इस यात्रा का गठबंधन से कोई संबंध नहीं है। संवाद हीनता के साथ ही श्री गांधी की आत्ममुग्धता के कारण नीतीश कुमार ने एनडीए का पल्ला पकड़कर विपक्षी एकता में सेंध लगा दी। पूरे देश से कांग्रेस नेताओं द्वारा पार्टी छोड़ने की खबरें आ रही हैं । ऐसे में न्याय यात्रा आगे पाट, पीछे सपाट की उक्ति को चरितार्थ कर रही है। हालांकि अब उसे बंद कर देना तो उचित नहीं होगा । लेकिन पार्टी को गठबंधन के दलों को ये विश्वास दिलाना चाहिए कि कांग्रेस उनके महत्व और प्रभुत्व को कम करने की मंशा नहीं रखती। दरअसल क्षेत्रीय दल इस बात से आशंकित हैं कि कांग्रेस उनके प्रभावक्षेत्र को नुकसान पहुंचाना चाह रही है।