आगामी लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की जीत को रोकने के लिए बनाए गए विपक्षी गठबंधन इंडिया की जो बैठक कल होने जा रही है उसमें सीटों के बंटवारे के फार्मूले के साथ ही संयोजक का नाम भी तय होना है। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस तीन प्रमुख राज्यों में भाजपा के हाथों बुरी तरह पराजित हो गई। हालांकि तेलंगाना में वह जीत गई किंतु छत्तीसगढ़ और राजस्थान गंवाने से अन्य दलों को उस पर हावी होने का मौका मिल गया। म. प्र में भी वह तमाम अनुकूलताओं के बावजूद भाजपा को सत्ता से बाहर नहीं कर सकी। जिन तीन राज्यों में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा वहां उसने अन्य विपक्षी दलों के साथ सीटों का बंटवारा करने से इंकार कर दिया था। कमलनाथ , भूपेश बघेल और अशोक गहलोत जीत के प्रति इतने आश्वस्त थे कि उन्होंने इंडिया गठबंधन के किसी भी सहयोगी के लिए सीटें छोड़ने की जरूरत नहीं समझी। हालांकि कांग्रेस का कहना है कि उनमें से जो भी दल मैदान में उतरे उन्हें मिले मतों का प्रतिशत इतना कम है कि जहां भी उसकी भाजपा के साथ सीधी टक्कर है वहां इन दलों के साथ सीटों के बंटवारे की कोई गुंजाइश नहीं है। गुजरात , हिमाचल , हरियाणा , उत्तराखंड जैसे राज्यों में कांग्रेस और भाजपा के बीच ही चुनावी जंग सीमित रहती है। दूसरी तरफ जनता दल (यू) , और राजद बिहार में तथा समाजवादी पार्टी उ.प्र में कांग्रेस को उसी की भाषा में उत्तर देते हुए बता रही है कि इन राज्यों में वह घुटनों के बल चलने की स्थिति में है। इसलिए यदि वह उन्हें अपने प्रभावक्षेत्र में सीटें नहीं देगी तो वे भी बिहार और उ.प्र में उसके साथ वैसा ही व्यवहार करेंगे। उल्लेखनीय है कि म.प्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कुल 66 लोकसभा सीटें हैं जबकि उ.प्र की 80 और बिहार की 40 मिलाकर 120 सीटें हैं । कांग्रेस इन दोनों राज्यों में क्षेत्रीय दलों के रहमो – करम पर पूरी तरह निर्भर है। 2019 में अमेठी से राहुल गांधी बुरी तरह पराजित हुए थे। वहीं रायबरेली से सोनिया गांधी महज इसलिए जीत सकीं क्योंकि सपा – बसपा ने उनके विरुद्ध प्रत्याशी नहीं उतारा। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन इतना दयनीय रहा कि सपा और बसपा लोकसभा चुनाव में उसके साथ जुड़ने से कतरा रही हैं। ऐसी ही स्थिति बिहार में है। वहां नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के रवैए से खुश नहीं हैं। इंडिया गठबंधन पर कब्जा करने की कांग्रेस की मंशा से नीतीश कुमार का पारा चढ़ा हुआ है। वे इस बात से भी काफी रूष्ट हैं कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के बहाने कांग्रेस ने गठबंधन का काम आगे बढ़ने से रोक दिया। उनका सोचना गलत नहीं है। दरअसल कर्नाटक की जीत के बाद कांग्रेस के दिमाग में ये बात बैठ गई कि गठबंधन के बाकी दलों को उसका नेतृत्व स्वीकार करना चाहिए क्योंकि भले ही उ.प्र और बिहार में उसकी स्थिति बेहद कमजोर हो तथा गुजरात , म.प्र, राजस्थान , छत्तीसगढ़ , हिमाचल और उत्तराखंड जैसे राज्यों में पिछले लोकसभा चुनाव में उसकी स्थिति बहुत खराब रही किंतु विधानसभा चुनाव में वह भाजपा की प्रमुख प्रतिद्वंदी है और उसे मिलने वाले मतों का प्रतिशत भी ठीक- ठाक है। हालिया विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का ये दावा सही साबित हुआ । महाराष्ट्र में भी वह शरद पवार और उद्धव ठाकरे के मुकाबले ज्यादा सीटों पर अड़ेगी। इसी तरह का पेंच फंसा है गठबंधन के संयोजक को लेकर। हालांकि कांग्रेस ने इस बारे में कहा तो कुछ भी नहीं किंतु उसकी दिली तमन्ना है कि संयोजक पद उसी के पास आए जिससे कि लोकसभा चुनाव की रणनीति तय करने में उसका हाथ ऊंचा रहे । टिकटों के बंटवारे में भी कांग्रेस अपना वर्चस्व चाहती है , जिसे लेकर नीतीश , ममता , पवार , अखिलेश और केजरीवाल चौकन्ने हैं। चूंकि राहुल और प्रियंका के धुआंधार प्रचार के बाद भी हिन्दी पट्टी के तीन प्रमुख राज्यों में कांग्रेस के हाथ सफलता नहीं लगी इसलिए गैर कांग्रेसी विपक्षी पार्टियां भी ऐंठने की स्थिति में आ गई हैं । उधर नीतीश कुमार की अपनी स्थिति बिहार में दिन ब दिन बिगड़ रही है। ऐसे में उनकी कोशिश है कि वे किसी तरह से इंडिया के संयोजक बन जाएं जिससे राष्ट्रीय राजनीति का बड़ा चेहरा बन सकें । कल मंगलवार को होने वाली बैठक में क्या होता है उस पर सभी की निगाहें लगी हैं। हिमाचल और कर्नाटक की जीत के बाद जो उत्साह विपक्ष में उत्पन्न हुआ था वह तीन राज्यों में भाजपा की धमाकेदार जीत से कम हो गया है। जिसकी छाया बैठक में जरूर नजर आयेगी।
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