म.प्र सहित अनेक राज्यों से राज्यसभा उम्मीदवारों के नाम सामने आ गए हैं। इस चुनाव में विभिन्न पार्टियां अपने संख्याबल के मुताबिक प्रत्याशी उतारती हैं। जिस पार्टी के पास निर्धारित कोटे से अधिक मत होते हैं वह या तो दूसरी पार्टी में सेंध लगाकर अपने अतिरिक्त प्रत्याशी को जिताने का प्रयास करती है या किसी धनकुबेर या अन्य हस्ती के साथ सौदेबाजी कर लेती है। राज्यसभा संसद का स्थायी सदन है। इसे उच्च सदन भी कहा जाता है । इसका गठन उन लोगों के लिए किया गया था जो पूर्णकालिक राजनीति तो नहीं करते किंतु देश को उनके योगदान की ज़रूरत होती है। ऐसे लोग चूंकि चुनाव लड़ना पसंद नहीं करते और लड़ते भी हैं तो जीत नहीं पाते , लिहाजा विभिन्न पार्टियां अपनी पसंद के इन लोगों को राज्यसभा में लाती हैं। कुछ विशिष्ट गैर राजनीतिक हस्तियों को राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत भी किया जाता है। राज्यसभा सदस्यों का कार्यकाल 6 वर्ष का होता है । बीते एक – दो दिनों में जिन उम्मीदवारों के नाम सामने आए उनमें कांग्रेस नेत्री सोनिया गांधी और भाजपा अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा भी हैं। सपा ने फिल्म अभिनेत्री जया बच्चन को फिर अवसर दिया तो भाजपा ने महाराष्ट्र में कांग्रेस से दो दिन पहले आए अशोक चव्हाण को प्रत्याशी बना दिया । म.प्र में केंद्रीय मंत्री डा.मुरुगन भी भाजपा की सूची में है जो मूलतः तमिलनाडु के हैं किंतु वहां भाजपा के पास आवश्यक संख्या बल न होने से उन्हें दूसरी बार यहां से राज्यसभा भेजा जा रहा है। तृणमूल कांग्रेस द्वारा सागरिका घोष नामक महिला पत्रकार को उच्च सदन भेजने की जानकारी भी आई जो प्रख्यात पत्रकार राजदीप सरदेसाई की धर्मपत्नी हैं। कुछ केंद्रीय मंत्री भी उनके मूल राज्य की बजाय अन्य राज्य से उतारे जा रहे हैं। लेकिन इससे हटकर प्रश्न ये है कि राज्यसभा जिस उद्देश्य के लिए बनाई गई थी , क्या प्रत्याशी चयन करते समय राजनीतिक पार्टियां उसका ध्यान रखती हैं ? अभी तक जो नाम विभिन्न पार्टियों के सामने आए हैं उनमें से अनेक ऐसे हैं जो सिर्फ इसलिए नहीं चौंकाते क्योंकि वे अनजान चेहरे हैं या सक्रिय राजनीति से उनका वास्ता नहीं बल्कि इसलिए क्योंकि उनका कृतित्व इस सदन के अपेक्षित मापदंड के मुताबिक अपर्याप्त लगता है। समाज के पिछड़े , वंचित और दलित वर्ग के ऐसे लोगों को राज्यसभा में लाना तो समझ में आता है जो भले ही प्रचार से दूर रहकर समाज की भलाई हेतु कार्य करते रहे हों , परंतु राजनीतिक सौदेबाजी और जातिगत वोटबैंक को साधने के लिए किसी को उच्च सदन में लाना औचित्यहीन है। देश की राजनीति चूंकि जाति के जंजाल में बुरी तरह उलझकर रह गई है इसलिए प्रत्येक राजनीतिक दल के भीतर जाति आधारित दबाव समूह बन गए हैं । अनेक ऐसे व्यक्तियों को , जिनके नाम और उपनाम से भले पता न चले परंतु उम्मीदवार बनाने के साथ ही उनकी जाति की जानकारी दे दी जाती है। ऐसा करने से उस जाति विशेष के लोग खुश होते हों किंतु राज्यसभा सांसद बन जाने के बाद व्यक्ति पर जाति की छाप लगने से अन्य वर्ग उससे छिटकने लगते हैं । ये देखते हुए बेहतर होगा राजनीतिक दल यदि पिछड़े , दलित या आदिवासी वर्ग के किसी उम्मीदवार को मैदान में उतारते हैं तो जाति के बजाय उसके सामाजिक योगदान का उल्लेख होना चाहिए। मौजूदा केंद्र सरकार द्वारा पद्म पुरस्कारों के लिए अनेक ऐसे गुमनाम व्यक्तियों का चयन किया गया जो चुपचाप समाज की बेहतरी के लिए काम करते रहे। लेकिन उनकी जाति या समुदाय का बखान न करते हुए केवल उनके कारनामों को प्रचारित करने से उनके प्रति स्वप्रेरित सम्मान उत्पन्न होता है। इसी तरह राज्यसभा के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा जिन उम्मीदवारों का चयन किया जाता है उनकी जाति की बजाय राजनीति के अलावा भी सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में उनके योगदान को प्रचारित किया जाए तो वे सीमित दायरे से निकलकर पूरे समाज के लिए सम्मानित बन सकते हैं। जाति के नाम पर चल रहे क्षेत्रीय दलों से तो इस बारे में कोई अपेक्षा करना व्यर्थ है किंतु भाजपा और कांग्रेस को तो कम से कम उम्मीदवारों की जाति के बजाय शैक्षणिक और पेशेवर योग्यता के अलावा सामाजिक जीवन में योगदान को चयन का आधार बनाना चाहिए। समय आ गया है जब लोकसभा और राज्यसभा के स्वरूप में अंतर स्पष्ट नजर आए। संसद के उच्च सदन की उच्चता बनाए रखना संवैधानिक दृष्टि से अपेक्षित ही नहीं आवश्यक भी है।