विपक्षी गठबंधन में टकराहट के बीच राहुल का यात्रा निकालना नुकसानदेह

विपक्षी गठबंधन में टकराहट के बीच राहुल का यात्रा निकालना नुकसानदेह
विपक्षी गठबंधन में टकराहट के बीच राहुल का यात्रा निकालना नुकसानदेह

 

 

कांग्रेस नेता राहुल गांधी कल मकर संक्रांति से भारत जोड़ो यात्रा का द्वितीय चरण प्रारंभ करने जा रहे हैं। 20 मार्च को इसका मुंबई में समापन होगा। इसे भारत जोड़ो न्याय यात्रा नाम दिया गया है । कांग्रेस को लगता है कि मणिपुर से मुंबई तक की इस यात्रा से उसे लोकसभा चुनाव में लाभ होगा । पिछली यात्रा के बाद उसे हिमाचल , कर्नाटक और तेलंगाना में सफलता मिली थी। लेकिन छत्तीसगढ़ और राजस्थान उसके हाथ से खिसक गए। म.प्र में यद्यपि भाजपा काबिज थी किंतु कांग्रेस ये हवा फैलाने में कामयाब हो गई थी कि प्रदेश में सत्ता विरोधी लहर है। लेकिन परिणाम आए तो उसकी उम्मीदों पर पानी फिर गया। उसके बाद कहा जाने लगा कि भाजपा उत्तरी भारत और कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दल दक्षिणी राज्यों में मजबूत हैं। ये बात भी सामने आई कि न्याय यात्रा के मार्ग में आने वाले ज्यादातर राज्यों में कांग्रेस सत्ता से बाहर है। कुछ में क्षेत्रीय दलों के साथ वह सरकार में शामिल तो है किंतु उसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। ऐसे में यात्रा से किसे मजबूती मिलेगी ये सवाल उठ रहा है। जो क्षेत्रीय दल भाजपा विरोधी हैं वे भी कांग्रेस की ताकत बढ़ने देना नहीं चाहेंगे। तेलंगाना में के.सी.राव के सत्ता से बाहर हो जाने पर अन्य क्षेत्रीय दल भी चौकन्ने हो गए हैं। उल्लेखनीय है उक्त राज्य के चुनाव में कांग्रेस ने श्री राव पर भाजपा की बी टीम होने का खूब प्रचार किया। हालांकि बीआरएस, इंडिया गठबंधन का हिस्सा नहीं थी किंतु भाजपा से भी उसकी दुश्मनी खुलकर सामने आ गई थी। ऐसे में कांग्रेस के साथ गठबंधन में शरीक क्षेत्रीय पार्टियां अपने प्रभाव की कीमत पर कांग्रेस के उत्थान को किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं करेंगी। प.बंगाल से इसके संकेत मिलने भी लगे हैं। ममता बैनर्जी भले ही इंडिया गठबंधन में हैं किंतु अपने राज्य में वे कांग्रेस और वामपंथी दलों को मात्र 2 सीटें देने पर अड़ी हुई हैं। दूसरी तरफ कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी दीदी और मोदी के बीच अदृश्य गठबंधन की बात उछालकर तृणमूल और भाजपा के बीच गुप्त समझौते का आरोप खुले आम लगा रहे हैं। इसी का परिणाम है कि आज इंडिया गठबंधन के नेताओं की जो आभासी ( वर्चुअल ) बैठक चल।रही है उससे ममता ने दूरी बना ली है। नीतीश कुमार को गठबंधन का संयोजक बनाए जाने की अटकलों से भी वे नाराज हैं। यहां तक कि नीतीश भी बैठक में शामिल नहीं हुए।इस माहौल में यदि श्री गांधी मणिपुर से मुंबई तक क्षेत्रीय दलों के वर्चस्व वाले राज्यों के बड़े हिस्से से गुजरेंगे तब इंडिया गठबंधन के सदस्य होने के बाद भी वे उनको अपेक्षित सहयोग देंगे , इसमें संदेह है। और फिर ऐसे समय जब गठबंधन में सीटों के बंटवारे को लेकर टांग खिचौवल चल रही हो तब श्री गांधी का यात्रा पर निकल जाना रणनीतिक दृष्टि से भी बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं लगता। कांग्रेस को ये देखना और सोचना चाहिए कि भाजपा ने पांच राज्यों के चुनावों से फुरसत होने के बाद एक दिन भी व्यर्थ नहीं गंवाया और लोकसभा चुनाव की तैयारियों में जुट गई। जिन सीटों पर वह 2019 में हारी थी उनके उम्मीदवार वह जल्द घोषित करने के संकेत दे रही है । इसी तरह जिन राज्यों में कमजोर है उनमें भी उसने मोर्चेबंदी शुरू कर दी है। इसके विपरीत कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर उठने वाले मुद्दों पर अपनी नीति स्पष्ट करने असमर्थ नजर आ रही है। इसका सबसे नया उदाहरण राममंदिर के शुभारंभ पर अयोध्या में आयोजित समारोह में शामिल न होने का निर्णय लेने में किया गया विलंब है। इसके कारण पार्टी का एक बड़ा वर्ग अपने को असहज महसूस कर रहा है। कुछ ने खुलकर शीर्ष नेतृत्व के फैसले को आत्मघाती बताने में हिचक नहीं की। राहुल को यद्यपि न्योता ही नहीं मिला किंतु इस ज्वलंत विषय पर वे स्पष्ट रूप से कुछ नहीं बोल सके। ऐसे में आवश्यकता इस बात की थी कि वे बजाय सवा दो महीनों की लंबी यात्रा निकालने के , गठबंधन के घटक दलों के बीच सामंजस्य बिठाने का काम करते, जिनके बीच वैचारिक मतभेद और महत्वाकांक्षाओं का टकराव सर्वविदित है। केवल भाजपा को हराने के उद्देश्य से वे सब एक साथ आए हैं। और सीटों का बंटवारा ही उनकी एकमात्र रणनीति है। कहने को सोनिया गांधी और मल्लिकार्जुन खरगे गठबंधन के सदस्यों के बीच तालमेल स्थापित करने में जुटे हैं। लेकिन इस महत्वपूर्ण कार्य में राहुल की अन्मयस्कता के कारण ही प्रधानमंत्री पद के लिए उनके नाम को आगे किए जाने के लिए कोई सहयोगी दल सामने नहीं आया। पिछली बैठक में ममता ने श्री खरगे का नाम उछालकर एक तरह से श्री गांधी की किरकिरी करवा दी। लोकसभा चुनाव की रणनीति तय करने के समय उनका दिल्ली से दूर रहना कांग्रेस और गठबंधन दोनों ही लिए नुकसान का सौदा हो सकता है। वैसे भी म.प्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में बुरी तरह हारने के बाद से कांग्रेस को लेकर उसके समर्थक वर्ग में ही जबर्दस्त निराशा है।