संपादकीय – रवीन्द्र वाजपेयी
कांग्रेस नेता राहुल गांधी बीते काफी समय से संसद और अन्य स्थानों पर जो ओबीसी राग अलाप रहे थे , वह कांग्रेस के गले पड़ गया। भाजपा ने म.प्र में ओबीसी की सबसे प्रमुख यादव जाति का मुख्यमंत्री और छत्तीसगढ़ में उपमुख्यमंत्री बनाकर अपनी सोशल इंजीनियरिंग का डंका पीट दिया। जातिगत जनगणना का जो वायदा कांग्रेस ने चुनाव घोषणापत्र में किया था उसकी भी हवा निकल गई । वह मुद्दा जितनी तेजी से उठा उतनी ही तेजी से धड़ाम हो गया। गत दिवस म.प्र मंत्रीमंडल के विस्तार में भी भाजपा ने ओबीसी पर विशेष ध्यान दिया और 12 मंत्री इस वर्ग के बनाकर लोकसभा चुनाव के लिए अपनी रणनीति का संकेत दे दिया । प्रदेश में कुल 35 मंत्री बनाए जा सकते हैं जिनमें से मुख्यमंत्री और 2 उपमुख्यमंत्री के अलावा 28 मंत्री बनाए जाए के बाद अब 4 स्थान मंत्रीमंडल में रिक्त हैं। जिनको संभवतः लोकसभा चुनाव के बाद भरे जाने की नीति बनाई गई है। ये भी मुमकिन है कि कुछ युवा विधायकों को और भी शामिल किया जाए जिनकी क्षमता का आकलन केंद्रीय नेतृत्व करेगा । बहरहाल , फिलहाल तो जातीय संतुलन के लिहाज से भाजपा ने बाजी मार ली है। यद्यपि कांग्रेस ने आदिवासी नेता प्रतिपक्ष और ओबीसी प्रदेश अध्यक्ष के साथ ही ब्राह्मण को उप नेता प्रतिपक्ष बनाकर मुकाबले में खड़ा होने का प्रयास तो किया है किंतु तीनों चेहरे ऐसे नहीं हैं जो लोकसभा चुनाव में उसकी नैया पार लग सकें। मंत्रीमंडल के गठन में भले ही 10 दिन का समय लगा लेकिन क्षेत्रीय संतुलन के साथ ही वरिष्टता और नए खून को समुचित महत्व देकर पार्टी ने भविष्य की व्यूह रचना जमा ली है। उसकी तुलना में कांग्रेस अभी तक पराजय के झटके से उबर नहीं पा रही। कमलनाथ और दिग्विजय सिंह को पूरी तरह किनारे किए जाने के बाद नई पीढ़ी का मार्गदर्शन करने वाला कोई वरिष्ट नेता नजर नहीं आ रहा। प्रदेश में पार्टी का संगठन पूरी तरह से बिखरा हुआ है। छिंदवाड़ा छोड़कर बाकी एक भी जिला नहीं है जहां कांग्रेस का एक छत्र प्रभाव हो। विधानसभा चुनाव में ज्यादातर दिग्गज हार चुके हैं और जो जीते वे अब हथियार उठाने लायक नहीं रहे। ऐसे में भाजपा सरकार का नया मंत्रीमंडल लोकसभा चुनाव के मद्देनजर एक मजबूत दस्ते की तरह है जो प्रदेश में उसको और ताकतवर बनाने में सहायक होगा। कांग्रेस दरअसल इस समय निहत्थी है क्योंकि वह राहुल की भारत जोड़ो यात्रा पर जरूरत से ज्यादा निर्भर हो गई थी। हिमाचल और कर्नाटक की जीत को भी उसी से जोड़कर देखा जा रहा था। इसी वजह से इंडिया गठबंधन में उसने बड़े भाई की भूमिका निभाने का दबाव बनाया किंतु म. प्र , छत्तीसगढ़ और राजस्थान में करारी हार के बाद पार्टी में सन्नाटा छा गया। गठबंधन में शामिल बाकी दलों ने चुनाव परिणाम आते ही कांग्रेस पर हमला बोल दिया। 19 दिसंबर को इंडिया की जो बैठक हुई उसमें प. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने तो गठबंधन की ओर से कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे का नाम प्रस्तावित कर राहुल गांधी को हाशिए पर धकेलने का जो दांव चला उसे समर्थन देने में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने एक क्षण भी नहीं गंवाया। बैठक में मौजूद अन्य दलों के नेताओं में से किसी ने भी ममता और अरविंद की उस जुगलबंदी का विरोध नहीं किया जिसे मौन समर्थन ही कहा जायेगा । हालांकि श्री खरगे ने चुनाव के बाद प्रधानमंत्री तय होने की बात कहकर मुद्दे को टालने की कोशिश की लेकिन तीर तो धनुष से निकल ही चुका था। बहरहाल , कांग्रेस तीन राज्यों में मिली पराजय के बाद पूरी तरह हताश नजर आ रही है। दूसरी तरफ भाजपा तिहरी जीत की खुशी में डूबी रहने की बजाय लोकसभा चुनाव की मोर्चेबंदी में जुट चुकी है। म. प्र में मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री के बाद मंत्रीमंडल के सदस्यों का जिस तरह चयन हुआ उससे ये बात स्पष्ट है कि पार्टी का शीर्ष नेतृत्व 2024 की रणभूमि में अपनी सेना और उसके नायकों की तैनाती काफी सोच – समझकर कर रही है। छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भी सरकार का नेतृत्व तय करते समय बहुत ही दूरदर्शिता दिखाई गई। सबसे बड़ी बात ये रही कि जिन दिग्गजों को अपरिहार्य माना जाता था उनको दौड़ से बाहर कर ये संदेश दे दिया गया कि भाजपा के पास वैकल्पिक नेतृत्व की कमी नहीं है। पार्टी ने पीढ़ी परिवर्तन की प्रक्रिया को जिस चतुराई से शुरू किया वह अन्य पार्टियों के लिए सबक है। विशेष तौर पर कांग्रेस के लिए जो कुछ नेताओं के शिकंजे से बाहर ही नहीं निकल पाती। हालांकि म.प्र जनसंघ के जमाने से हिंदुत्ववादी राजनीति का गढ़ रहा है लेकिन वह मध्य भारत और मालवा अंचल तक ही सीमित था परंतु भाजपा ने समूचे प्रदेश में अपनी जड़ें मजबूत कर ली हैं। ये देखते हुए लोकसभा चुनाव में प्रदेश की सभी 29 लोकसभा सीटें जीतने का जो दावा पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने किया वह सच हो जाए तो आश्चर्य नहीं होगा क्योंकि विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जो दुर्गति हुई उसके बाद छिंदवाड़ा के मतदाताओं में कमलनाथ को लेकर जो आकर्षण था उसका भी ढलान पर आना तय है।