सस्ते न्याय के बिना आजादी अधूरी है

सस्ते न्याय के बिना आजादी अधूरी है
सस्ते न्याय के बिना आजादी अधूरी है

संपादकीय – रवीन्द्र वाजपेयी

लोकसभा में गत दिवस भारतीय न्याय संहिता , भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम विधेयक पारित हो गए। अब इनको राज्यसभा में भी पेश किया जाएगा । उसकी स्वीकृति के बाद राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होकर ये कानून का रूप ले लेंगे । ब्रिटिश काल के दंड संहिता और साक्ष्य संबंधी कानूनों को बदलने की मांग लंबे समय से चली आ रही थी। राजद्रोह जैसे कानूनों के दुरुपयोग का मुद्दा भी गर्माता रहा। इसके साथ ही अदालत में प्रकरण की सुनवाई का अंतहीन सिलसिला भी न्याय प्रणाली के प्रति गुस्से में वृद्धि का कारण बनता गया। सुनवाई होने के बाद फैसला सुनाने की अवधि निश्चित न होने से भी आशंकाएं जन्म लेती थीं। कुल मिलाकर ये कहना गलत नहीं है कि भले ही 1947 में भारत ने अंग्रेजों से आजादी हासिल कर ली और 26 जनवरी 1950 से अपना संविधान लागू होने के बाद हम सार्वभौमिक गणराज्य की हैसियत में आ गए किंतु कानूनों का अंबार न सिर्फ आम जनता अपितु कानूनविदों के लिए भी मुश्किलें खड़ी करता रहा है। इसी तरह तमाम दावों के बावजूद न्याय प्रणाली पर भी अंग्रेजी राज की छाया बनी हुई है। सैकड़ों अपराधिक कानून ऐसे रहे जो कभी उपयोग में नहीं आने के बाद भी किताबों की शोभा बढ़ाते हैं । उनके दुरुपयोग की शिकायतें भी यदाकदा आती रहीं। राजद्रोह भी उनमें से ही है। सवाल ये उठता है कि आज तक इस बारे में क्यों नहीं सोचा गया , और यदि सोचा गया तो समुचित कदम उठाने से परहेज करने की वजह क्या रही ? बीते 75 सालों में न्याय व्यवस्था में समयानुसार बदलाव और सुधार हेतु अनेक समितियां और आयोग बने । उनकी रिपोर्ट और अनुशंसा पर समाज और संसद तक में विमर्श हुआ। कुछ पर अमल भी किया गया किंतु न्याय प्रणाली में परिस्थितिजन्य सुधार के प्रति साहस की बजाय उदासीनता का आलम बरकरार रहा। रोचक बात ये है कि कानून मंत्री के पद पर देश के अनेक प्रख्यात अधिवक्ताओं के पदस्थ रहने के बाद भी कानूनों का जो ढांचा अंग्रेज छोड़ गए थे उसको भारतीय जरूरतों और हालातों के अनुसार ढालने के प्रति उदासीनता ही बरती गई। कई बार तो ऐसा लगा जैसे कानूनों की किताबों को धार्मिक ग्रंथ मानकर उनमें बदलाव को पाप समझा जाता रहा। बहरहाल , वर्तमान केंद्र सरकार की प्रशंसा करनी होगी जिसने अपना दूसरा कार्यकाल खत्म होने के पहले यह क्रांतिकारी कदम उठाकर न्याय प्रणाली में महत्वपूर्ण सुधार करने का साहस दिखाया। हालांकि ऐसे कार्यों का आम जनता द्वारा समुचित संज्ञान नहीं लिया जाता किंतु कानून और न्याय व्यवस्था से जुड़े वर्ग में निश्चित रूप से इन विधेयकों का स्वागत किया जावेगा। इनके पारित होने के बाद कई स्थापित परिभाषाएं और अवधारणाएं बदल जाएंगी। कानूनों की अधिकता के साथ ही उनमें व्याप्त जटिलता और फैसले में विलंब जैसी विसंगति दूर करने के लिए उठाए गए इस कदम का सकारात्मक असर देखने मिलेगा । यद्यपि अभी भी कतिपय न्यायाधीशों में अंग्रेजी राज वाली श्रेष्ठता का भाव देखने मिलता है किंतु दूसरी तरफ न्यायाधीशों की नई पीढ़ी में अनेक चेहरे ऐसे भी हैं जो आम जनता की पीड़ा को गंभीरता से महसूस करते हुए संवेदनशीलता का परिचय देते हैं। सही बात ये है कि अंग्रेजों के समय अदालतों में बैठे मी लॉर्ड नस्लीय भेदभाव की मानसिकता से प्रेरित होने के कारण भारतीयों के प्रति अनुदार रहते थे । आजादी के बाद उस स्थिति में तो सुधार हुआ है परंतु न्याय प्राप्त करने की प्रक्रिया इतनी कठिन और महंगी है कि आम जनता आज भी खून के आंसू रोने बाध्य है। नए विधेयकों के कानून में तब्दील होने के बाद निश्चित तौर पर अनेक स्वागत योग्य बदलाव देखने मिलेंगे किंतु केंद्र सरकार को चाहिए वह न्याय प्राप्त करने में आने वाले खर्च को कम करने संबंधी कदम भी उठाए। वकीलों की आसमान छूती फीस के कारण अनेक लोग अदालत जाने का साहस ही नहीं बटोर पाते। ये आरोप भी लगते रहे हैं कि न्यायाधीश लाखों रुपए प्रतिदिन की फीस लेने वाले दिग्गज अधिवक्ताओं से प्रभावित होकर फैसले देते हैं। केंद्र सरकार आम जनता के कल्याण के लिए अनेक योजनाओं का संचालन करती है। अच्छा हो आम जनता को सस्ता न्याय दिलवाने के लिए भी कोई योजना बने क्योंकि इसके बिना आजादी अधूरी ही कही जाएगी।