भोपाल (राजनीतिक संवाददाता)। भाजपा में ऐतिहासिक जीत के बाद नए मुख्यमंत्री को लेकर चर्चाओं का बाजार गर्म है। दूसरी तरफ कांग्रेस में प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ के भविष्य पर अटकलें लगना शुरू हो गई हैं। नेता प्रतिपक्ष डा. गोविंद सिंह भी चुनाव हार गए। श्री नाथ के अंध समर्थक कहे जाने वाले सज्जन सिंह वर्मा भी परास्त हो चुके हैं। पूर्व वित्तमंत्री तरुण भनोट भी जबलपुर पश्चिम की अपनी सीट गंवा बैठे। हालांकि श्री नाथ के गृह जिले छिंदवाड़ा के साथ ही बालाघाट और सिवनी में ही कांग्रेस का वर्चस्व रहा। मंडला, डिंडोरी की आदिवासी सीटों में भी उसका डंका बजा। लेकिन प्रदेश के बाकी अंचलों में कांग्रेस का बेहद निराशाजनक प्रदर्शन श्री नाथ के प्रदेश अध्यक्ष बने रहने में बाधक बन सकता है। 2020 में सरकार गिरने के बाद वे नेता प्रतिपक्ष और अध्यक्ष दोनों पद कब्जाए थे। बाद में विरोध बढ़ने पर नेता प्रतिपक्ष पद दिग्विजय के करीबी डा. सिंह को दे दिया। लेकिन संगठन पर उन्होंने अपना एकाधिकार कायम करते हुए 2023 के चुनाव की तैयारियों का जिम्मा पूरे तौर पर अपने नियंत्रण में ले लिया। टिकिट वितरण से लेकर स्टार प्रचारकों के दौरे और प्रचार जैसे काम उनकी मर्जी के अनुसार ही हुआ। यदि पार्टी सरकार में लौट आती तब तक तो ठीक था लेकिन अब जबकि उसे जबरदस्त हार झेलनी पड़ी तब श्री नाथ के विरुद्ध आवाजें उठनी स्वाभाविक हैं। हालांकि उन्होंने अपनी तरफ से कोई संकेत नहीं दिया लेकिन अब तक शांत बैठे नाथ विरोधी ज्यादा धैर्य नहीं रखेंगे। ये भी संकेत हैं कि श्री नाथ अब केंद्रीय राजनीति में लौट जायेंगे तथा 2024 का लोकसभा चुनाव लड़कर सांसद बेटे नकुल नाथ को विधायक बनवा देंगे। उनकी समझ में ये आ गया है कि अब उम्र के इस दौर में अब वे प्रदेश में कांग्रेस को दोबारा खड़ा करने में सक्षम नहीं हैं। 2018 के चुनाव में भी वे पार्टी का चेहरा नहीं थे किंतु दिग्विजय सिंह के साथ मिलकर उन्होंने ज्योतिरादित्य सिंधिया का रास्ता रोक दिया और मुख्यमंत्री बन बैठे। 2019 के लोकसभा चुनाव में छिंदवाड़ा से उनके बेटे नकुल नाथ जीते किंतु जीत का अंतर बेहद कम रहा। यदि नरेंद्र मोदी की वहां सभा हुई होती तब शायद वह सीट भी कांग्रेस गंवा देती। धर गुना में श्री सिंधिया हार गए और 2020 में अपने साथी विधायकों के साथ भाजपा में आ गए और श्री नाथ की सरकार धराशायी हो गई। उसके बाद उम्मीद थी कि वे राष्ट्रीय राजनीति में लौट जाएंगे किंतु प्रतिशोध के भाव के कारण उन्होंने प्रादेशिक राजनीति में रहने का मन बनाया। लेकिन बतौर अध्यक्ष वे पार्टी में गुटबाजी खत्म नहीं कर सके। उल्टे उसे बढ़ावा दिया और चंद दरबारियों को छोड़कर बाकी को किनारे बिठा दिया। नतीजा ये हुआ कि वे पार्टी के सर्वेसर्वा तो बन बैठे किंतु द्वितीय पंक्ति का नेतृत्व धीरे-धीरे समाप्त हो गया। श्री नाथ के बेहद करीबी दिग्विजय सिंह भी उनके फैसलों से असहमत होने के बाद भी इसलिए साथ चिपके रहे क्योंकि उनका बेटा जयवर्धन पूरी तरह स्थापित नहीं हो पाया है। इस चुनाव में दिग्विजय और कमलनाथ के बीच की टकराहट अनेक अवसरों पर सामने आती रही। टिकिट वितरण से लेकर चुनाव प्रबंधन तक में श्री नाथ का ही दबदबा रहा जिससे पार्टी के अन्य नेता बेकार कर दिया गए। कमलनाथ का सोचना था कि उनका मुख्यमंत्री बनना तय है किंतु वे भाजपा का अंडर करेंट नहीं समझ पाए और बड़ी-बड़ी बताएं करते हुए कार्यकर्ताओं को भी मुगालते में रखे रहे। लेकिन चुनाव परिणामों का बाद उनकी ठसक उतर चुकी है। गत दिवस वे शिवराज सिंह चौहान को बधाई देने गए तब भी बजाय किसी और के अपने सांसद बेटे नकुल को ही साथ रखा । छिंदवाड़ा के विधानसभा उम्मीदवार भी नकुल से ही उन्होंने घोषित करवाए थे। लेकिन अब हालात बदल चुके हैं। दिग्विजय केवल अपने बेटे को जिता सके जबकि भाई और भतीजा हार गया। ऐसे में कमलनाथ के विरुद्ध पार्टी के प्रादेशिक ही नहीं राष्ट्रीय नेता भी मुखर हो रहे हैं। बीते कुछ सालों में श्री नाथ ही प्रदेश में कांग्रेस के नौजवान नेताओं को जिस तरह किनारे लगाया उसके बाद अब पार्टी का बीड़ा उठाने वाला सक्षम युवा चेहरा नजर नहीं आ रहा। इस प्रकार कमलनाथ ने प्रदेश में कांग्रेस का भट्टा पूरी तरह बिठा दिया। ऐसे में लोकसभा के लिए पार्टी को उम्मीदवार मिलना कठिन होगा।
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