संपादकीय- रवीन्द्र वाजपेयी
पांच राज्यों में से मिजोरम को छोड़ भी दें तो म.प्र , छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस जिस तरह औंधे मुंह गिरी उसने राहुल गांधी के उठते हुए राजनीतिक ग्राफ को एक बार फिर ढलान की और धकेल दिया है। ऐसे में भाजपा उनका उपहास करे तो बात समझ में भी आती है किंतु अब विपक्ष के बाकी दल भी कांग्रेस के बहाने राहुल की खिंचाई करने में जुट गए जिससे इंडिया नामक विपक्षी गठबंधन में बिखराव के संकेत मिलने लगे हैं। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने 6 दिसंबर को इंडिया की जो बैठक बुलाई उसमें आने से प.बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने मना कर दिया वहीं समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव भी अनिच्छुक बताए जाते हैं। इसीलिए बैठक रद्द करने की नौबत आ गई। नीतीश कुमार तो इंडिया गठबंधन की निष्क्रियता को लेकर कांग्रेस पर पहले ही शब्दबाण छोड़ते रहे हैं। ज्यादातर विपक्षी दलों को इस बात की शिकायत है कि हिमाचल और कर्नाटक विधानसभा चुनाव जीतने के बाद कांग्रेस विशेष रूप से राहुल का रवैया पूरी तरह बदल गया है। उत्तर भारत के तीनों राज्यों में सपा , जनता दल (यू) और आम आदमी पार्टी कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ना चाहती थीं परंतु उसने किसी को घास नहीं डाली। उल्टे कांग्रेस विपक्षी दलों को ये एहसास करवाने में जुट गई कि भारत जोड़ो यात्रा के बाद श्री गांधी प्रधानमंत्री श्री मोदी के विकल्प के तौर पर उभरे हैं और जनता में उनकी स्वीकार्यता बढ़ी है। कर्नाटक चुनाव में पार्टी को मिली कामयाबी के बाद भाजपा विरोधी कुछ यू ट्यूबर पत्रकारों को राहुल के पक्ष में माहौल बनाने का अघोषित ठेका दे दिया गया । लेकिन म.प्र , छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की जो दुर्गति मतदाताओं ने की उसके बाद उसकी बेरूखी झेलते आ रहे विपक्षी दल बीते दो दिनों से ऐंठते नजर आ रहे हैं। ममता ने तो साफ कह दिया कि ये भाजपा की जीत नहीं , कांग्रेस की हार है। नीतीश कुमार , अखिलेश यादव , के.सी त्यागी , अरविंद केजरीवाल सहित इंडिया गठबंधन के शेष घटक दल भी कांग्रेस की खुलकर इस बात के लिए आलोचना कर रहे हैं कि वह गठबंधन धर्म का पालन करने की बजाय एकला चलो की जो नीति अपना रही है वह श्री मोदी को तीसरी पारी खेलने का अवसर प्रदान करने में सहायक बनेगी। एक भी विपक्षी दल ऐसा नहीं है जिसने तेलंगाना की विजय के लिए राहुल या कांग्रेस को बधाई दी हो । लेकिन तीन अन्य राज्यों में उसकी शिकस्त का मजाक उड़ाने के साथ ही आलोचनात्मक टिप्पणियों की बाढ़ जिस तरह से आई है उसे देखते कांग्रेस इंडिया की लगाम अपने हाथ में रखने का जो प्रयास करने लगी थी उसे जरूर धक्का लगा है। नीतीश कुमार को इस गठबंधन का जन्मदाता माना जाता है किंतु उसके संयोजक सहित अन्य नीतिगत मुद्दों पर कांग्रेस ने जिस प्रकार से हावी होने की कोशिश की उससे बाकी पार्टियां चौकन्नी हो उठी थीं । लेकिन श्री गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के अलावा हिमाचल तथा कर्नाटक में कांग्रेस की जीत के बाद उसकी वजनदारी अचानक से बढ़ने लगी। कांग्रेस थोड़ा बड़प्पन दिखाते हुए तीन राज्यों के चुनाव में छोटे विपक्षी दलों को भी साथ ले लेती तो भले ही भाजपा का विजय रथ रोकना संभव न हो पाता परंतु विपक्षी एकता में दरार नहीं पड़ती और हार का जिम्मा सामूहिक होता। लेकिन कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व छोटी सी बात नहीं भांप सका। दूसरी तरफ पार्टी के प्रादेशिक नेता भी अपनी ऐंठ में रहे और ये कहते हुए गठबंधन से मुकर गए कि वह तो लोकसभा चुनाव के लिए है। उल्लेखनीय है चुनाव के पहले भोपाल में इंडिया गठबंधन की एक संयुक्त रैली आयोजित की गई थी किंतु कमलनाथ ने इस डर से उसे रद्द करवा दिया कि कहीं कांग्रेस पर अन्य विपक्षी दलों के लिए कुछ सीटें छोड़ने का दबाव न बन जाए। बाद में जब सपा के साथ बात टूटी तब कमलनाथ ने कौन अखिलेश – वखलेश जैसी सस्ती टिप्पणी कर आग में घी डाल दिया। राहुल द्वारा श्री यादव को फुसलाने का प्रयास भी हुआ किंतु सपा अध्यक्ष ने कांग्रेस पर धोखेबाज होने का आरोप लगाते हुए म.प्र में धुआंधार प्रचार किया। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में आम आदमी पार्टी ने भी कांग्रेस को खूब गरियाया। चुनाव परिणाम आने तक कांग्रेस इस बात के प्रति आश्वस्त थी कि म.प्र और छत्तीसगढ़ के साथ ही तेलंगाना में भी वह जीत जाएगी और तब शायद उसे किसी से गठजोड़ की ज़रूरत ही न पड़े किंतु उसकी उम्मीदों पर पानी फिर गया और तेलंगाना में मिली शानदार जीत के बावजूद वह शेष तीनों राज्यों में मुंह के बल गिरी। ये देखते हुए तीन राज्यों में कांग्रेस की हार इंडिया गठबंधन के विघटन की शुरुआत बन जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए जिसके लिए कांग्रेस का अहंकार और राहुल गांधी सहित उनके परिवार की सामंतवादी सोच सबसे ज्यादा जिम्मेदार होगी।