संपादकीय- रवीन्द्र वाजपेयी
चुनाव आयोग द्वारा प्रदत्त जानकारी के अनुसार पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव के दौरान 1760 करोड़ रु. की नगदी , शराब , ड्रग्स और उपहार सामग्री जप्त गई जिसके बारे में संदेह है कि उसका उपयोग मतदाताओं को लुभाने की लिए किया जाना था। चिंता का विषय ये है कि 2018 की तुलना में ये आंकड़ा सात गुना अधिक है। जाहिर है चुनाव में उपयोग किया गया जो काला धन , शराब , मादक पदार्थ और उपहार में दी गई चीजें चुनाव आयोग की पकड़ से बाहर रहीं , उनका मूल्य कई गुना अधिक होगा। इससे साबित होता है कि आयोग की तमाम सख्तियों के बावजूद मतदाताओं को लुभाने या सीधे तौर पर कहें तो खरीदने के लिए नगद राशि , शराब और अन्य चीजें बांटने जैसे अनुचित तरीकों में रत्ती भर भी सुधार नहीं हुआ। वह भी तब जब अचार संहिता घोषित होते ही प्रशासन जबर्दस्त घेराबंदी करने लगता है। वाहनों को रोककर और छापेमारी जैसी कार्रवाई भी की जाती है। इसके परिणामस्वरूप ही तो 1760 करोड़ कीमत की जप्ती हो सकी। लेकिन जैसी खबरें चुनाव के दौरान आती रहीं उनके अनुसार तो जमकर नगद रुपया , शराब आदि बांटी गई। मतदान के एक दिन पूर्व गरीबों की बस्तियों में शराब और नगदी का वितरण बेरोकटोक होता रहा। इसके लिए किसी एक पार्टी या प्रत्याशी विशेष को आरोपित करना तो गलत होगा क्योंकि चुनाव जीतने के लिए इस तरह के तरीके अपनाया जाना आम हो गया है। वाहनों की जो संख्या प्रत्याशी चुनाव कार्यालय को लिखकर देता है उससे ज्यादा का उपयोग होता है। मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल निर्दलीय प्रत्याशियों के कोटे से अपने वाहन चलवाने का इंतजाम भी कर लिया करते हैं। सबसे आश्चर्यजनक तो प्रत्याशियों द्वारा दिया जाने वाला खर्च का ब्यौरा है । चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित व्यवस्था के अंतर्गत प्रत्याशियों को चुनाव के दौरान ही समय – समय पर खर्च का विवरण और मतदान के बाद चार्टर्ड अकाउंटेंट द्वारा ऑडिट करवाया हुआ कुल खर्च का विवरण अनिवार्य रूप से जमा करना होता है। हाल ही में जहां – जहां मतदान संपन्न हुआ वहां – वहां प्रत्याशियों ने चुनावी खर्च का जो ब्यौरा दिया उसे पढ़कर हंसी आती है। निर्दलीय उम्मीदवार कम व्यय दर्शाएं तो फिर भी समझ में आता है किंतु भाजपा और कांग्रेस के प्रत्याशी जितने कम खर्च में चुनाव लड़ने की जानकारी अधिकृत तौर पर देते हैं उसके सत्यापन की कोई सूक्ष्म व्यवस्था नहीं है । और फिर चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद जब तक कोई चुनाव याचिका पेश नहीं होती तब तक उन विवरणों पर कोई ध्यान भी नहीं दिया जाता । इस प्रकार चुनाव के दौरान आयोग द्वारा दिखाई जाने वाली सख्ती ऊपरी तौर पर तो प्रभावशाली नजर आती है किंतु सच्चाई ये है कि चुनाव आयोग और राजनीतिक दलों के बीच तुम डाल – डाल तो हम पात – पात वाली कहावत चरितार्थ होती है। यही कारण है कि चुनावों में होने वाले बेतहाशा खर्च को नियंत्रित करने के उपाय अपेक्षानुसार कारगर नहीं हो पाते। सबसे बड़ी बात ये है कि नगदी , शराब , नशीले पदार्थ और उपहार सामग्री जिनसे जप्त होती है उनमें से कितनों को और कितनी सजा मिली ये पता ही नहीं चलता। यही वजह है कि अपवादस्वरूप लोग पकड़े जाने वाले कब छूट जाते हैं , पता ही नहीं चलता। यही कारण है कि चुनाव के दौरान काले धन , शराब और मुफ्त उपहार बांटने वाले पूरी तरह से बेखौफ रहते हैं। मतदान के समय भले ही अन्य राज्यों का पुलिस बल तैनात किया जाता है किंतु प्रारंभिक दौर में तो स्थानीय प्रशासन और पुलिस ही चूंकि चुनाव प्रक्रिया का संचालन करते हैं जिनका नेताओं और शराब माफिया से रिश्ता बताने की जरूरत नहीं हैं । ये बात आम नागरिक को भी पता है कि प्रशासन और पुलिस पूरी तरह ईमानदार और पारदर्शी हो जाए तो चुनाव लड़ने वालों द्वारा अपनाए जाने वाले अनुचित और अवैध तरीकों पर पूर्णरूपेण न सही किंतु काफी हद तक तो रोक लग ही सकती है। बहरहाल वर्तमान स्थिति तो किसी मजाक से कम नहीं है क्योंकि जिस दरियादिली से प्रत्याशी और राजनीतिक दल चुनाव में खर्च करते हैं उसका आधा भी आयोग को दिए जाने वाले विवरण में नहीं दर्शाया जाता। स्व.टी. एन.शेषन ने चुनाव सुधार का जो दुस्साहस दिखाया था उनके उत्तराधिकारियों द्वारा उसे आगे तो बढ़ाया गया किंतु कागजों पर जितना दावा किया जाता है व्यवहार में नजर नहीं आने से चुनाव लगातार खर्चीले होते जा रहे हैं। यही वजह है कि राजनीति में आने के इच्छुक बुद्धिजीवी और पेशेवर लोगों को मजबूरन किसी दल का सहारा लेना पड़ता है । लोकतंत्र की सार्थकता तभी है जब समाज का वह वर्ग भी चुनाव लड़ने की हिम्मत जुटा सके जिसके पास मतदाता को लुभाने के लिए रुपया और शराब बांटने का सामर्थ्य नहीं है। अन्यथा चुनावों का जो स्वरूप सामने आने लगा है वह और विकृत होता जाएगा।