संपादकीय- रवीन्द्र वाजपेयी
समय के साथ सभी चीजें बदलती हैं। इसलिए चुनाव भी नए रंग और नए रूप में नजर आने लगे हैं। सघन जनसंपर्क अब औपचारिकता में बदल गया है। मतदाताओं की बढ़ती संख्या और निर्वाचन क्षेत्र के फैलाव ने प्रत्याशियों की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। इसीलिए घर – घर जाकर दरवाजा खटखटाने वाले प्रचार की जगह अब हाईटेक संचार माध्यमों ने ले ली है। मोबाइल पर धड़ाधड़ संदेश आते हैं , प्रत्याशी का रिकॉर्डेड अनुरोध भी सुनाई देता है। सोशल मीडिया के सभी मंच चुनावी प्रचार से भरे हैं । बड़े नेताओं के तामझाम भरे रोड शो होने लगे हैं। कुछ विशिष्ट हस्तियों के नाम पर भीड़ जमा करने का तरीका भी अपनाया जाने लगा है किंतु इस सबके बीच देर रात तक चलने वाली छोटी – बड़ी सभाएं अतीत बन चुकी हैं जिनमें विभिन्न दलों के नेता घंटों अपनी विचारधारा का बखान करते हुए मतदाताओं से समर्थन की अपील करते थे। वे नेता हेलीकॉप्टर और चार्टर्ड विमानों से नहीं अपितु रेल या सड़क मार्ग से आते। उनके आने में देर होने पर भी जनता उनको सुनने घंटों प्रतीक्षा करती रहती थी। नुक्कड़ सभाओं में प्रादेशिक या स्थानीय नेतागण अपनी पार्टी का पक्ष रखते थे। आज की तरह रैलियों में शामियाना और कुर्सियां नहीं लगती थीं । आगे बिछी कुछ दरियों पर पहले से आए श्रोता कब्जा जमा लेते और पीछे हजारों श्रोता खड़े -खड़े भाषण सुनते थे। प्रधानमंत्री के अलावा अनेक ऐसे राष्ट्रीय नेता भी थे जो भले सांसद – विधायक न रहे हों किंतु जनता उनको सुनने बेताब रहा करती थी। सबसे बड़ी बात ये थी कि उन नेताओं को सुनने के लिए वे लोग भी आते जो उनकी विचारधारा से सहमत नहीं होते थे । नुक्कड़ सभाओं के माध्यम से प्रादेशिक नेता छोटे – छोटे श्रोता समूह से मुखातिब होते और लोग भी धैर्यपूर्वक उन्हें सुनते थे। समय बीतने के साथ चुनाव महंगे होते जा रहे हैं। चुनाव आयोग ने बीते कुछ दशकों में उनका रंग – रूप पूरी तरह बदल दिया। खर्च कम करने के लिए किए गए उपाय कितने सफल हुए ये बड़ा सवाल है क्योंकि धन का उपयोग पहले से कई गुना बढ़ गया है। रात 10 बजे सभाएं बंद कर दी जाती हैं। आयोग एक – एक कुर्सी और वाहन का हिसाब रखता है। चाय , समोसे तक का खर्च जोड़ा जाने लगा है। अखबारी विज्ञापन के अलावा सोशल मीडिया पर भी हेट, फेक और पेड समाचार पर 24 घंटे निगाह रखी जाने लगी है। वृद्ध और निःशक्त मतदाताओं को घर पर मतदान की सुविधा भी शुरू हो गई है। मतदाता सूचियां बनाने और मतपर्चियां घर – घर भेजने का सरकारी इंतजाम मत प्रतिशत बढ़ाने में सहायक हुआ है। लेकिन चुनावी सभाओं का असली आनंद लुप्त हो गया है। न वैसे ओजस्वी वक्ता रहे और न ही प्रतिबद्ध श्रोता। इसका मुख्य कारण ये भी है कि सभी प्रमुख राजनीतिक दल और उनके नेता सत्ता में रह चुके हैं। ऐसे में वे केवल अपने विरोधी की आलोचना कर जनता को प्रभावित नहीं कर सकते। उन्हें सरकार में रहते हुए जनहित में किए गए कामों का हिसाब भी देना होता है। वह पीढ़ी भी धीरे – धीरे समाप्त होती जा रही है जो किसी पार्टी या नेता की अंधभक्त होती थी। नेहरू जी , डा.लोहिया और अटल जी जैसे जननेताओं के विरोधी भी उनके प्रति सम्मान का भाव रखते थे। धीरे – धीरे नेताओं का स्तर गिरने लगा जिसके परिणामस्वरूप राजनीति के प्रति समाज में व्याप्त आदर भाव में भी कमी आती गई। आज देश में शायद ही कोई नेता बचा हो जिसको सुनने स्वस्फूर्त जनता उमड़ पड़ती हो। गांव और कस्बों में हेलीकॉप्टर देखने जरूर लोग जमा हो जाते हैं किंतु नेताओं को सुनने का लालच खत्म होने लगा है। और हो भी क्यों न , बीते 75 साल से भाषण सुनती आई जनता जब देखती है कि साधारण परिस्थिति का व्यक्ति तो चुनाव जीतने के बाद अपार धन संपत्ति अर्जित कर लेता है किंतु उसकी अपनी दशा नहीं बदलती तब उसके मन में गुस्सा जागता है। और इसी गुस्से ने नेताओं के प्रति असम्मानजनक संबोधनों को जन्म दिया । जो राजनीति समाज को दिशा देती थी वह खुद ही दिशाहीन हो चली है । इसी तरह जिन नेताओं को जनता अपना पथ प्रदर्शक माना करती थी वे खुद भटकाव का शिकार हैं। ये स्थिति अच्छी नहीं है जिसका प्रमाण राजनीति से अच्छे लोगों का दूर होते जाना है। हालांकि सभी पार्टियों और नेताओं को कठघरे में खड़ा करना न्यायोचित नहीं होगा किंतु अधिकांश की साख में कमी आई है , जो लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। चूंकि हमारा समाज काफी धैर्यवान है इसलिए अपनी उपेक्षा और बदहाली पर उत्तेजित नहीं होता। हर चुनाव के बाद लोकतंत्र की मजबूती और मतदाताओं की समझदारी का बखान तो खूब होता है किंतु अधिक मतदान और चुनाव के निर्विघ्न संपन्न हो जाने को ही सफलता और संतोष का पैमाना माना लेना सच्चाई से आंखें चुराने जैसा है। भारतीय लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भले हो किंतु वह अपनी नैसर्गिक खूबसूरती खोता जा रहा है। कृत्रिमता , बाजारवाद और नीतिगत भटकाव उसकी पहिचान बन चुके हैं। चुनावों के लगातार महंगे होने से भी उनकी गंभीरता और गरिमा में कमी आई है। नेताओं के आकर्षण में कमी आने का ही प्रमाण है कि पहले उनको देखने – सुनने जनसैलाब उमड़ा करता था किंतु अब वही नेता रोड शो के माध्यम से खुद को दिखाने नजर आते हैं।