संपादकीय- रवीन्द्र वाजपेयी
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की गिनती सुलझे हुए राजनेताओं में थी। नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में उभरने से पहले उनको एनडीए का प्रधानमंत्री चेहरा माना जाता था। लंबे समय तक भाजपा के साथ रहते हुए वे केंद्र में मंत्री और बिहार के मुख्यमंत्री बने और इस बीमारू राज्य की छवि काफी बदली। लालू यादव को जेल भिजवाने में भी श्री कुमार की भूमिका मानी जाती रही। सुशासन बाबू कहलाने वाले नीतीश ने जाति और परिवार से हटकर अपनी एक सौम्य छवि बनाई थी। बिहार में जंगल राज खत्म करने का कारनामा भी उनके और भाजपा के नाम पर है। लेकिन 2013 में ज्योंही भाजपा ने श्री मोदी को प्रधानमंत्री पद का चेहरा बनाया त्योंही श्री कुमार खफा हो उठे और दोबारा लालू एंड कंपनी से मिल गए। हालांकि कुछ समय बाद पलटी मारकर एनडीए में लौट आए और मिलकर लोकसभा तथा विधानसभा चुनाव भी लड़ा किंतु अचानक भाजपा से दोबारा न मिलने की कसम खाते हुए लालू और कांग्रेस के साथ हो लिए। सैद्धांतिक मतभेदों के चलते पार्टी छोड़ना और तोड़ना स्व.डा. लोहिया के मानसपुत्रों का चरित्र रहा है और इस लिहाज से श्री कुमार भी अपवाद नहीं हैं । उन्होंने भी स्व.जॉर्ज फर्नांडीज के साथ मिलकर समता पार्टी बनाई थी जिसे बाद में जनता दल (यू) में विलय कर दिया गया। फिलहाल वे इसके सर्वेसर्वा हैं। इन दिनों नीतीश 2024 के लोकसभा चुनाव में मोदी विरोधी विपक्ष का गठबंधन बनाने को लेकर चर्चा में हैं । बिहार में इस बात की चर्चाएं आम हैं कि उनका राजनीतिक सफर पूर्ण विराम की ओर बढ़ रहा है जिससे उनके साथी भी छिटकते जा रहे हैं । इससे बचने के लिए उन्होंने भी वही हथकंडे अपनाने शुरू कर दिए जिसके लिए वे लालू और स्व.शरद यादव को कोसा करते थे। भले ही वे कितना भी इंकार करें किंतु उनके मन में प्रधानमंत्री बनने की इच्छा हिलोरें मार रही है। इसीलिए वे विपक्षी एकता के स्वयंभू झंडाबरदार बन बैठे। लेकिन इसके लिए उनको कोई राष्ट्रीय मुद्दा तैयार करना था। आखिरकार वे मंडलवादी राजनीति के उसी दौर को पुनर्जीवित करने में जुट गए जिसने 1990 में समाज में जातिवाद की खाई को और चौड़ा कर दिया। जाति आधारित जनगणना , जातीय – आर्थिक सर्वे और उसके साथ ही आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाकर 75 फीसदी कराने के प्रस्ताव के जरिए वे खुद को देश का सबसे बड़ा ओबीसी चेहरा साबित करने में जुट गए हैं। दरअसल उनके मन में एक बात घर कर चुकी है कि राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए शरद पवार , ममता बैनर्जी , अरविंद केजरीवाल जैसे नेता राजी नहीं होंगे। तेलंगाना चुनाव में कांग्रेस के मैदान में उतरने के कारण मुख्यमंत्री के. सी.रेड्डी का भी इसी जमात में शामिल होना तय है। इसीलिए उन्होंने श्री मोदी के हिंदुत्व के मुकाबले ओबीसी कार्ड खेलकर राजनीतिक विमर्श को विपरीत दिशा में मोड़ने का दुस्साहस कर डाला।उनके पहले कदम का अन्य गैर भाजपा पार्टियों को भी समर्थन करने मजबूर होना पड़ा जिससे उनका हौसला बढ़ा और उन्होंने जातिगत जनगणना और जातीय – आर्थिक सर्वे के फौरन बाद आरक्षण की सीमा 75 फीसदी बढ़ाए जाने का अस्त्र फेंक दिया । हालांकि तमिलनाडु में पहले से आरक्षण की सीमा सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों से ज्यादा है। म.प्र सहित अनेक राज्यों में भी ओबीसी आरक्षण को लेकर लंबे समय से राजनीतिक और कानूनी पचड़ा फंसा हुआ है। कमलनाथ ने ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण का चुनावी वायदा भी कर दिया है। लेकिन नीतीश को एक बात समझ लेना चाहिए कि जाति , भाषा और क्षेत्र की राजनीति करने वाले नेताओं का आभामंडल सीमित ही रहता है। यदि ऐसा न होता तो तमिलनाडु की दोनों प्रमुख पार्टियों की जड़ें देश भर में रह रहे तमिल भाषियों के बीच फैल जातीं । इसी तरह शिवसेना भी राष्ट्रीय पार्टी बन जाती। 1990 में मंडल मुद्दे के उठने पर मुलायम सिंह यादव , शरद यादव और लालू यादव जैसे नेताओं को प्रधानमंत्री बनने के सपने आने लगे थे। लेकिन वे रेत के घरौंदे की तरह ढह गए। जातिवाद का लाभ लेकर प्रधानमंत्री तो चौधरी चरण सिंह भी बने किंतु जल्द ही अर्श से फर्श पर आ गए। पता नहीं क्यों नीतीश जैसे अनुभवी राजनीतिज्ञ सब समझते हुए भी ओबीसी की राजनीति के फेर में बिहार के साथ ही पूरे देश को जातीय संघर्ष की ओर धकेलने का पाप कर रहे हैं? भाजपा और श्री मोदी के प्रति उनके मन में जो कुंठा है उसकी वजह से वे सामाजिक ढांचे को कमजोर करने पर आमादा हो जाएं तो ऐसी राजनीति क्षणिक आवेग पैदा करने के बाद फुस्स हो जाती है। गौरतलब है मंडल राजनीति के उदय के बाद ही नई – नई जातियां और उपजातियां उभरकर सामने आने लगीं। लेकिन उनके नेता बहुत ही छोटे से दायरे में हैं। नीतीश इस वास्तविकता को जानते हुए भी ऐसा क्यों कर रहे हैं ये बड़ा सवाल है। दुर्भाग्य से कोई भी पार्टी ऐसे मामलों में सच्ची बात कहने का साहस नहीं दिखा पाती। ये देखते हुए बुद्धिजीवियों और समाजशास्त्रियों को आगे आकर दिशा देनी चाहिए। इस बारे में ये कहना गलत न होगा कि देश की एकता और अखंडता के लिए जितना नुकसानदेह नक्सलवाद और आतंकवाद है उतनी ही जातिवादी राजनीति भी । इसलिए इसको रोकना जरूरी है। आज की जरूरत जाति व्यवस्था से उत्पन्न विसंगतियां मिटाने की है न कि उसे और मजबूत करने की।