संपादकीय- रवीन्द्र वाजपेयी
जातीय जनगणना के बाद बिहार में जातीय – आर्थिक सर्वे के जो आंकड़े आए हैं उनको लेकर राष्ट्रव्यापी राजनीति शुरू हो जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। सर्वे के अनुसार राज्य में 96 लाख लोगों को गरीब की श्रेणी में रखा गया है। यहां तक तो बात सामान्य थी किंतु राज्य में 25 फीसदी सवर्णों के गरीबों की सूची में आने से जातीय जनगणना को लेकर अब नए सिरे से बहस और विवाद शुरू हो गया। उल्लेखनीय है जाति आधारित जनगणना में यादवों की सबसे बड़ी संख्या सामने आने से अन्य पिछड़ी जातियों में नाराजगी पैदा हुई। अहीर और गोप कहलाने वालों ने भी ये कहकर विरोध जताया कि उनकी अलग पहिचान ही नष्ट कर दी गई। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा करवाई गई जातीय जनगणना को अन्य विपक्षी दल भी समर्थन दे रहे हैं। कांग्रेस भी उसका वायदा कर रही है। लेकिन जातीय – आर्थिक सर्वे के आंकड़े आ जाने के बाद आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग को बल मिलना तय है। बिहार में सवर्ण आबादी भले कम हो किंतु गरीबों में 25 फीसदी सवर्ण आबादी यदि 6 हजार प्रतिमाह से कम कमाती है तो निश्चित रूप से अन्य राज्यों में भी राजनीति का मुद्दा बन सकता है। सोचने वाली बात ये है कि आजकल ज्यादातर पार्टियां वोट बैंक के कारण सवर्णों को भाव नहीं दे रहीं। यहां तक कि ब्राह्मण और बनियों की पार्टी कही जाने वाली भाजपा भी सोशल इन्जीनियरिंग का सहारा लेने लगी है। 1989 से उत्तर भारत की उच्च जातियां भाजपा की खेवनहार बनना शुरू हुईं जिसके कारण वह लोकसभा में 2 से 100 सीटों तक पहुंचने लगी। लेकिन जब उसे लगा कि महज उतने से ही वह देश की सत्ता हासिल नहीं कर सकेगी तब उसने पिछड़ी और दलित जातियों को अपने पाले में खींचने की रूपरेखा बनाई जिसमें उसे सफलता भी मिली। आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग के प्रति भी भाजपा काफी पहले से मुखर रही है। लेकिन अब उसके भीतर भी जातीय दबाव समूह पैदा हो गए हैं। यही कारण है कि अन्य पार्टियों की तरह ही चुनावी टिकिट देते समय प्रत्याशी की योग्यता और क्षमता के अलावा उसकी जाति का संज्ञान भाजपा भी लेना नहीं भूलती । इस उधेड़बुन में आर्थिक आरक्षण का मुद्दा छूने के बारे में भी वह काफी सतर्कता बरतने लगी है। लेकिन बिहार के जातीय – आर्थिक सर्वे के नतीजों ने प्रधानमंत्री द्वारा गरीबी को सबसे बड़ी जाति बताए जाने की बात को बल प्रदान किया है। हालांकि आज के राजनीतिक हालात में ऐसा होना बेहद कठिन प्रतीत होता है लेकिन जिस तरह का बदलाव समाज में देखने मिल रहा है उसके मद्देनजर संदर्भित सर्वे के आंकड़े उथल पुथल मचाए बिना नहीं रहेंगे । सरकारी नौकरियों के लगातार घटते जाने से भी आर्थिक स्थितियां जातिगत आरक्षण पर हावी होना सुनिश्चित है। चूंकि जातीय जनगणना का मुद्दा बिहार से ही गरमाया इसलिए बड़ी बात नहीं यदि गरीबी को लेकर आए जातीय सर्वे के आंकड़े अन्य राज्यों में भी इसकी मांग बुलंद करें। गौरतलब है कि सवर्ण जातियों में भी राजनीतिक गोलबंदी के तहत बसपा जैसी पार्टी से गठबंधन किए जाने के दृष्टांत सामने आ रहे हैं। म.प्र विधानसभा के मौजूदा चुनाव में मुरैना में अनेक सीटों पर बसपा ने ब्राह्मण प्रत्याशी उतारकर भाजपा और कांग्रेस के सामने कड़ी चुनौती पेश की है । केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर भी दिमनी सीट पर ऐसे ही मुकाबले में फंसे हुए हैं। इसी तरह भाजपा छोड़ने वाले पूर्व मंत्री रुस्तम सिंह द्वारा अपने बेटे को बसपा से लड़वा दिया,जबकि वे खुद प्रभावशाली गुर्जर जाति से हैं। कहने का आशय ये है। कि यदि राष्ट्रीय पार्टियां आर्थिक स्थिति के आधार पर जातियों को सुविधा देने से परहेज करेंगी तब उच्च जातियों के गरीब भी बसपा या फिर ऐसी ही अन्य किसी ताकत से जुड़कर अपना महत्व साबित करने से नहीं चूकेंगे। म.प्र में कांग्रेस ने ओबीसी कार्ड खेलकर जो चाल चली है उसके जवाब में भाजपा शिवराज सिंह चौहान को पिछड़ी जाति का बताकर पलटवार कर रही है। इसी तरह उसने केंद्रीय मंत्री प्रहलाद सिंह पटेल को भी वैकल्पिक चेहरे के तौर पर आगे कर दिया है। लेकिन न सिर्फ म.प्र अपितु अन्य राज्यों में भी सवर्ण जातियों का गरीब तबका अपनी उपेक्षा से खिन्न होकर नए विकल्प तलाशने में जुटा है। इसमें दो मत नहीं है कि दलित , आदिवासी और पिछड़ी जातियों के सामाजिक , आर्थिक और शैक्षणिक उत्थान के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना जरूरी है लेकिन सामाजिक समरसता जीवंत रखने के लिए आर्थिक दृष्टि से कमजोर लोगों का ध्यान रखा जाना भी बेहद जरूरी है। गरीब चाहे किसी भी जाति या धर्म का हो उस पर सरकार की दया दृष्टि पड़नी ही चाहिए। बिहार सरकार के जातीय – आर्थिक सर्वे का समुचित विश्लेषण कर इस बारे में राष्ट्रीय नीति बनाया जाना समय की मांग भी है और जरूरत भी।