एम. एस.स्वामीनाथन : जिन्होंने क्रांति शब्द को सार्थकता प्रदान की

एम. एस.स्वामीनाथन : जिन्होंने क्रांति शब्द को  सार्थकता प्रदान की
एम. एस.स्वामीनाथन : जिन्होंने क्रांति शब्द को  सार्थकता प्रदान की

संपादकीय -रवीन्द्र वाजपेयी

क्रांति शब्द एक अलग तरह की अनुभूति देता है । आम तौर पर इससे हिंसा के जरिए सत्ता परिवर्तन का एहसास होता है। लेकिन सही अर्थों में इसका अर्थ है किसी नए विचार को मूर्तरूप देना और उस दृष्टि से देश के शीर्षस्थ कृषि वैज्ञानिक डा.एम. एस. स्वामीनाथन को सही मायनों में क्रांतिकारी कहा जा सकता है , जिनके भागीरथी प्रयासों से देश खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने के बाद निर्यातक बनने की हैसियत में आ गया। उल्लेखनीय है अकाल लंबे समय तक हमारे देश की नियति बना रहा। गुलामी का दौर खत्म होने के बाद भी हम इससे जूझते रहे । बढ़ती आबादी के अनुपात में खाद्यान्न उत्पादन काफी कम रहने से अमेरिका , कैनेडा , ऑस्ट्रेलिया और रूस से उसका आयात करना पड़ता था जिससे अर्थव्यवस्था के साथ ही विदेश नीति पर भी अनुचित दबाव बना रहता था। इस स्थिति से उबारने के लिए जिस एक व्यक्ति का नाम इतिहास में दर्ज हुआ वे डा.स्वामीनाथन 98 साल की आयु में गत दिवस चल बसे। आज की पीढ़ी के लिए वे भले ही सामान्य ज्ञान की विषयवस्तु हों किंतु कृषि क्षेत्र के सबसे सम्मानित विश्व खाद्य पुरस्कार से अलंकृत डा.स्वामीनाथन स्वाधीन भारत की उन महान विभूतियों में से थे जिन्होंने पद , प्रतिष्ठा और पैसे की दौड़ से दूर रहकर देश को आत्मसम्मान के साथ जीने का मंत्र दिया। सत्तर के दशक में जब देश सूखे और अकाल की वजह से पूरी दुनिया से अनाज मांगने की शर्मिंदगी झेल रहा था तब पद्म विभूषण स्वामीनाथन जी ने हरित क्रांति का बीड़ा उठाते हुए भारत की परंपरागत खेती को समय की जरूरतों के अनुसार नया रूप दिया। उस समय कृषि प्रधान कहे जाने वाले देश के सामने खाद्यान्न संकट विचारणीय मुद्दा था। और तब उन्होंने उन्नत खेती की विधि से किसानों को परिचित कराते हुए कृषि से जुड़ी मानसिकता को नए सांचे में ढालने का दुस्साहस किया । धीरे – धीरे पूरे देश में उनका मॉडल लागू किए जाने से खेती की दशा और दिशा दोनों में आमूल परिवर्तन हुआ जिसका परिणाम बढ़ते खाद्यान्न उत्पादन के रूप में देखने मिला। स्वामीनाथन जी ऐसे मौन तपस्वी थे जिन्होंने कभी भी स्वयं को महिमामंडित करने की कोशिश नहीं की। शांत भाव और एकाग्र चित्त से की गई उनकी साधना का ही प्रतिफल है कि रूस – यूक्रेन युद्ध से जब दुनिया के सामने गेंहू का संकट उत्पन्न हुआ तो उस परिस्थिति में भारत अनेक देशों की जनता का पेट भरने आगे आया। इस बारे में एक बात ध्यान रखना जरूरी है कि किसी भी देश की आर्थिक सम्पन्नता और सामरिक शक्ति तब तक बेमानी है जब तक वह अपनी जनता का पेट भरने के लिए अनाज उत्पादन में आत्मनिर्भर न बन सके। इसके अलावा यदि उसे विश्वशक्ति बनना है तब भी उसे अपनी जरूरत से अधिक अन्न उत्पादन करना आवश्यक है। प्राकृतिक आपदा के अलावा भी कोरोना जैसा अप्रत्याशित संकट आने पर खाद्यान्न की उपलब्धता उससे लड़ने का हौसला प्रदान करती है। कोरोना के कारण लॉक डाउन के दौरान जब सब कुछ बंद था तब भारत के 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज देने की केंद्र सरकार की योजना यदि कामयाब हो सकी तो उसका कारण खाद्यान्न के वे भंडार थे जो कृषि क्षेत्र में आई क्रांति के कारण भरे जा सके । आज केंद्र और राज्य सरकारें मुफ्त अनाज की योजनाओं को संचालित कर जनता से अपनी जो जय – जयकार करवाती हैं उसके सही हकदार दरअसल डा.स्वामीनाथन ही हैं जो अब स्वर्गीय हो चुके हैं । रूस और यूक्रेन गेंहू , मक्का और सूरज मुखी के सबसे बड़े उत्पादक हैं किंतु आपस में युद्धरत हो जाने से उनके उत्पाद निर्यात नहीं हो पा रहे थे जिससे अनेक विकसित देशों में खाद्यान्न संकट उत्पन्न हो गया । लेकिन भारत को उतनी परेशानी नहीं हुई क्योंकि हमारे अन्न भंडार भरे हुए थे। आज की स्थिति में देश जितना कृषि उत्पादन कर रहा है उसमें कुछ चीजों को छोड़कर बाकी जरूरत से अधिक होने से सरकारी भंडारों में दो साल तक का अनाज है। देश के किसान और कृषि वैज्ञानिक इस उपलब्धि के लिए बधाई के पात्र हैं किंतु इस सबके लिए किसी एक व्यक्ति को श्रेय देने की बात हो तो निःसंदेह वे डा.स्वामीनाथन ही हो सकते हैं। भारत आज विश्व शक्ति बनने की ओर अग्रसर है तो उसमें उनका योगदान स्वर्णाक्षरों में लिखा जाना चाहिए। एक सच्चे क्रांतिकारी और महान देशभक्त के रूप में वे सदैव याद किए जाते रहेंगे ।
विनम्र श्रद्धांजलि।