संपादकीय- रवीन्द्र वाजपेयी
इजराइल और हमास के बीच युद्ध को एक सप्ताह से ज्यादा बीत चुका । 7 अक्टूबर को हमास द्वारा गाज़ा पट्टी से हजारों राकेट छोड़े जाने के अलावा उसके पैराग्लाइडर्स द्वारा इसराइल के भीतर आकर हत्या , अपहरण , बलात्कार जैसे अमानवीय कृत्य किए जाने के बाद पूरी दुनिया कांप गई । गाज़ा पट्टी पर कब्जा किए बैठे आतंकवादी संगठन हमास ने इसराइल की सुरक्षा व्यवस्था को जिस तरह बेअसर किया उसने अमेरिका में हुए 9/11 हमले की स्मृतियां ताजा कर दी थीं। लेकिन कुछ घंटों के भीतर ही इसराइल ने पलटवार करते हुए लड़ाई का केंद्र गाज़ा पट्टी को बना दिया। उसके प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने स्पष्ट कर दिया कि हमास को उसी की भाषा में उत्तर दिया जाएगा । और फिर गाज़ा में बिजली और पेयजल के अलावा सारी जरूरी आपूर्ति रोक दी गई। सैकड़ों इमारतें मलबे में बदल गईं । हजारों लोग मारे जा चुके हैं। हमास कमांडरों को खत्म किया जा रहा है। लेबनान ने भी इजराइल पर हमले की कोशिश की लेकिन उसे भी ठंडा कर दिया गया। हमास के सबसे बड़े मददगार ईरान ने उसे इस हमले के लिए उकसा तो दिया किंतु वह भी धमकियां देने के अलावा और कुछ न कर सका । उधर इजराइल ने गाज़ा पर कब्जे की मंशा व्यक्त कर डाली । जिसके बाद लोग बोरिया – बिस्तर समेटकर सुरक्षित स्थान की तलाश में चल दिए। गाज़ा से मिस्र जाने वाले सभी रास्तों पर जनसैलाब उमड़ पड़ा। लेकिन मिस्र ने अपनी सीमा सील करते हुए उनके प्रवेश पर पाबंदी लगा दी। संरासंघ , इजराइल को युद्ध के नियमों से परे जाकर गाज़ा को बरबाद करने के विरुद्ध चेतावनी दे रहा है। लेकिन नेतन्याहू ने साफ कह दिया कि वे पीछे नहीं हटेंगे। लगता है जिन ताकतों ने हमास को उकसाया उनको इजराइल से ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं थी। खुद हमास भी अंदाज लगाने में चूक गया । उल्लेखनीय है स्व.यासर अराफात के जीवनकाल में ही फिलीस्तीनियों के साथ इजराइल का समझौता होने के बाद दोनों शांति के साथ रहने तैयार हो गए थे। लेकिन कट्टरपंथी इस्लामिक देश यहूदियों को वहां से बेदखल करने पर अड़े हुए हैं। बीते हफ्ते भर में इजराइल ने जिस दृढ़ता का परिचय दिया वह सीखने लायक है । वहां का प्रत्येक नागरिक सैनिक की भूमिका में आ गया है। विदेशों में रह रहे यहूदी देश को संकट में देख घर लौट रहे हैं। विपक्ष के साथ आपातकालीन राष्ट्रीय सरकार भी बना ली गई है। कुल मिलाकर इजराइल शत्रु की जड़ों में मठा डालने की जिस चाणक्य नीति पर चल रहा है वही तो वे सभी देश अपनाते हैं जो उसे संयम रखने की सलाह दे रहे हैं । अमेरिका ने 9/11 के सूत्रधार ओसामा बिन लादेन को सात समंदर पार कर दूसरे देश की सीमा में घुसकर मारा। रूस अपने राष्ट्रीय हितों के लिए यूक्रेन में जो कुछ कर रहा है उसके बाद उसे इजराइल को रोकने का नैतिक अधिकार ही नहीं है। चीन भी तिब्बत में जिस निर्दयता से मानवीय अधिकारों का कत्लेआम करता आया और उइगर मुसलमानों को जैसे खून के आंसू रुलाता है , वह भी किसी से छिपा नहीं है। आज जो इस्लामिक जगत यहूदियों को अत्याचारी बताता है उसे इस बात का भी जवाब देना पड़ेगा कि जिस धरती पर यहूदी धर्म जन्मा वह उनकी भी तो मातृभूमि है। येरुशलम को ईसाई , यहूदी और मुसलमान तीनों अपना पवित्र स्थल मानते हैं। ऐसे में पूरी सहानुभूति फिलीस्तीनियों के साथ जोड़ देना एकपक्षीय है। इजराइल एक वास्तविकता है जिसे स्वीकार करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है। इस युद्ध के पहले ही संयुक्त अरब अमीरात और मिस्र जैसे अनेक देश इजराइल के साथ कारोबारी रिश्ते बना चुके थे। वहीं सऊदी अरब भी दोस्ताना कायम करने जा रहा था । लेकिन ईरान सहित कुछ विघ्नसंतोषियों ने पश्चिम एशिया को आग में झोंकने का षडयंत्र रच दिया। देखने वाली बात ये है कि बीते 75 सालों में अनेक मुस्लिम देशों ने कभी अकेले तो कभी मिलकर इजराइल को मिटाने का दुस्साहस किया । लेकिन हर युद्ध में वह पहले से ज्यादा ताकतवर होकर उभरा और फिलिस्तीनियों की जमीन घटती चली गई। मौजूदा विवाद का अंजाम भी वैसा ही होने का अंदेशा है। गाज़ा पट्टी की घेराबंदी तो इजराइल शुरू से करता आया है। लेकिन अब वह उस पर कब्जा करने आमादा है जिसके लिए इस्लामिक कट्टरता के पोषक तत्व जिम्मेदार हैं। बतौर इंसान फिलिस्तीनी समुदाय के अधिकारों की रक्षा बेशक होनी चाहिए लेकिन जब तक उनको केवल मुसलमान माना जायेगा तब तक वे इसी तरह खानाबदोश बने रहेंगे। इजराइल को किसी पर ज्यादती का अधिकार कतई नहीं है परंतु अपनी सार्वभौमिकता की रक्षा करने के उसके अधिकार की अनदेखी भी नहीं की जा सकती।